परिवार बनाम प्रतिभा
बॉलीवुड पर नई पौध के बारे में 23 जनवरी की आवरण कथा में हर पहलू पर बात की गई है। नई पीढ़ी पर इसलिए भी शायद ज्यादा बात की जा रही है क्योंकि यह पहली बार होगा कि दर्जन के हिसाब से फिल्मी परिवारों के बच्चे इसमें कदम रख रहे हैं। पहले भी अभिनेताओं और अभिनेत्रियों के बच्चे फिल्मी परदे पर आते थे, लेकिन यह साल संख्या के लिहाज से अलग है। हर आने वाला नया कलाकार किसी न किसी तरह बॉलीवुड से जुड़ा हुआ है। हर कोई अपने बच्चों या रिश्तेदारों के लिए या तो फिल्म बना रहा है या उनकी सिफारिश कर रहा है। लेख में एक पंक्ति है, “फिल्मी परिवारों से निकले इन नवांकुरों के प्रति अब माहौल में जिज्ञासा कम और झल्लाहट ज्यादा नजर आ रही है।” यह झल्लाहट इसलिए है कि अब आम मध्यमवर्गीय परिवार का बेटा या बेटी भी सिर्फ पढ़ाई नहीं करना चाहते। वे भी सोने की खान कहे जाने वाले इस उद्योग में आकर पैसा कमाना चाहते हैं, शोहरत चाहते हैं। लेकिन जब वे यहां आते हैं, तो नजारा दूसरा ही होता है। यहां तो सरकारी आरक्षण से भी ज्यादा बुरी गत होती है। बॉलीवुड निर्ममता से पेश आता है। इसी निर्ममता की वजह से उसके खिलाफ माहौल बनता जा रहा है, क्योंकि अब पहले वाला जमाना नहीं रहा जब आम लोगों को लगता था कि हर अच्छी चीज पर अमीरों का हक है। अब आम लोग भी अपने लिए हर रास्ते को खुला रखना चाहते हैं।
कमलकांत श्रीवास्तव | ग्वालियर, मध्य प्रदेश
औसत कलाकारों पर मेहरबानी
यह बात समझ से परे है कि हर नायक-नायिका के बेटे या बेटी को फिल्म उद्योग से ही क्यों जुड़ना है। कुछ लोगों का तर्क होता है कि वकील का बेटा वकील, डॉक्टर का बेटा डॉक्टर बनता है, इसलिए बॉलीवुड में भी बच्चे परिवार का पेशा अपनाते हैं। बॉलीवुड में नेपोटिज्म (अब ‘पैदाइशी सितारों’ की चमक तो देखिए, 23 जनवरी) पर अच्छा लेख है। कोई कुछ भी कहे लेकिन बॉलीवुड प्रतिभाओं की कब्रगाह है। यहां अच्छे-अच्छे कलाकार इस भाई-भतीजावाद के चक्कर में दफन हो गए। जो यह दबाव नहीं झेल पाए, वे सुशांत सिंह राजपूत हो गए। कोई भी बड़ा कलाकार कभी अपने बच्चों को सैनिक, पायलट, डॉक्टर, प्रोफेसर बनने की प्रेरणा नहीं देता। इन बच्चों की परवरिश में ऐसे करिअर विकल्प होते ही नहीं हैं। आखिर क्यों। इनके पास न संसाधन की कमी होती है न पैसे की। ये जहां चाहें वहां बच्चों को पढ़ा सकते हैं। लेकिन ये भी जानते हैं कि भारत में ऐसे लोगों की संख्या लाखों में है, जो इनकी औसत सी फिल्म पर हजारों रुपये लुटा देते हैं। एक औसत से भी कम फिल्म करोड़ों रुपये कमाती है। जब कुछ न करने के इतने पैसे मिल रहे हों, तो कौन बेवकूफ होगा जो डॉक्टर या इंजीनियर बन कर बैल की तरह मेहनत करना चाहेगा। यह तो भारत के लोगों को ही समझना है कि मनोरंजन के नाम पर इन औसत लोगों को अरबपति बनाना है या फिर उस पैसे से अपना भविष्य संवारना है।
कामिनी पंत | देहरादून, उत्तराखंड
बायकॉट बॉलीवुड
बहस इस बात पर नहीं है कि इस बॉलीवुड में नए चेहरे आने वाले हैं। हर व्यक्ति को अपनी पसंद का पेशा अपनाने की स्वतंत्रता है। लेकिन ये जो नए चेहरे आ रहे हैं और सोशल मीडिया उन्हें लोगों के चहेते बनाने में लगा हुआ है वह गलत है। अभिनय में अपना करिअर शुरू करने वाले इन नए चेहरों के किस्मत आजमाने के कारण कई ऐसे चेहरे होंगे, जिनकी बलि ले ली जाएगी। इन चेहरों के पास माता-पिता का नाम है, पैसा है। ये लोग प्रचार पर करोड़ों रुपये खर्च कर सकते हैं। इन्हें कहीं भी ऑडिशन की कतार में नहीं लगना है। इन्हें किसी की चिरौरी नहीं करना है। बिना किसी प्रयास के ये लोग सीधे नायक या नायिका बनेंगे। इनसे ज्यादा प्रतिभावान बच्चे या तो फिल्म में इनके दोस्त बनेंगे या पीछे कहीं गुमनाम से खड़े रहेंगे। बायकॉट बॉलीवुड का जो ट्रेंड चला है, वह जारी रहना चाहिए ताकि इन बच्चों को भी पता हो कि समाज इनके लटके-झटके अब और नहीं सहेगा। हां अगर वाकई कोई अच्छा अभिनय करेगा, तो वह टिका रहेगा। लेकिन ऐसी हर फिल्म का बहिष्कार किया जाना चाहिए, जिसमें दोयम दर्जे का स्टार किड हो। इसके लिए जरूरी है कि लोग अपनी मनोरंजन की भूख पर काबू रखें। (आवरण कथा, सुहाना साल, 23 जनवरी)
प्रियंका शर्मा | हिसार, हरियाणा
बेकार का विवाद
23 जनवरी के अंक में बॉलीवुड के भाई-भतीजावाद पर अच्छी जानकारी है। यह तो सच है कि प्रतिभा पर ही सफलता निश्चित रहती है। लेकिन स्टार किड होने से एक सहूलियत तो होती ही है कि उन्हें प्रतिभा दिखाने के लिए मौका आसानी से मिल जाता है। फिर सोशल मीडिया का हल्ला भी मदद तो करता ही है। हालांकि हर बार नेपोटिज्म काम नहीं करता। आवरण कथा ने उन्हीं सब भ्रांतियों को ध्वस्त किया है। लेकिन अब हो यह रहा है कि आए दिन सोशल मीडिया में स्टार किड्स को लेकर बेस्वाद खिचड़ी पकाई जा रही है। प्रतिभा और परिश्रम ही सफलता का रास्ता है, फिर चाहे वह सामान्य परिवार से आया कलाकार हो या सफल-असफल नायक, नायिकाओं के बच्चे।
डॉ. पूनम पांडे | अजमेर, राजस्थान
असली परीक्षा
हिंदी सिनेमा गजब दौर से गुजर रहा है। 23 जनवरी की आवरण कथा, ‘सुहाना साल’ स्टार किड्स विविध आयाम पर नजर डालती है। कोई कितना भी कहे कि फिल्मी परिवार से ताल्लुक न रखने के बाद भी शाहरुख खान ने अपनी जगह बनाई। लेकिन ईमानदारी से देखा जाए, तो एक शाहरुख खान क्या संघर्ष करने वाले सभी युवाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। शाहरुख युवा दिलों की धड़कन बन गए, लेकिन ऐसे कई होंगे, जो वह मौका नहीं पा सके होंगे। बॉलीवुड में कुछ लोग हैं, जो कब्जा जमा कर बैठे हैं और परिवारवाद को खाद-पानी देते रहते हैं। भला हो ओटीटी माध्यम का जिसकी वजह से कुछ अच्छे कलाकारों को दर्शक देख पा रहे हैं और इन लोगों की भी पहचान बनी है। अब जब नई पीढ़ी मैदान में उतर रही है, तो इनके माता-पिता इसलिए घबराए हुए हैं क्योंकि ये लोग जानते हैं कि अब इनका मुकाबला ओटीटी और यूट्यूब से भी है। अब जो चाहे सोशल मीडिया के माध्यम से अपनी पहचान बना सकता है। कुछ समीक्षकों के बल पर इनका साम्राज्य स्थापित होने से रहा।
चंदन पांडेय | आजमगढ़, उत्तर प्रदेश
चालबाजों का राजा
चार्ल्स शोभराज का बाहर आना फिर किसी नई कहानी को जन्म देगा। 23 जनवरी के अंक में, ‘फिर खुले जेल दरवाजे’ रोचक लगा। शोभराज ने भले ही जीवन का ज्यादातर समय जेल में बिताया हो, पर वो जितने दिन भी बाहर रहा उसने अपनी चालाकी और आपराधिक प्रवृत्ति से लोगों को परेशान ही किया। यदि वह नेपाल के बजाय अमेरिकी जेल में होता, तो शायद ही कभी बाहर निकल पाता। उसके बाहर आने पर अब कई किताबें लिखी जाएंगी, फिल्में बनेंगी और ओटीटी के लिए तो ऐसा विषय है, जिसे शायद ही कोई निर्माता छोड़ना चाहेगा। उसके कारनामे ही ऐसे हैं कि लोगों की दिलचस्पी उसमें बनी रहती है। चार्ल्स के खुद के वकील का कहना है कि पहली नजर में कोई नहीं कह सकता कि वह इतना बड़ा सीरियल किलर है। लेकिन सबूत बताते हैं कि वह शातिर अपराधी है। अपराधी होकर वह भले ही कितना भी बुद्धिजीवी जैसा व्यवहार कर लेकिन शोभराज व्यक्ति है और वह खुद अपने व्यक्तित्व के खतरनाक पहलू को स्वीकार करता है। उसके इस वाक्य से ही दुस्साहस का पता चलता है, “मैं अपनी मर्जी से जेल से भाग सकता हूं। मैं अपनी मर्जी से लूट सकता हूं। मैं जैसे चाहता हूं, वैसे जी सकता हूं।” देखना होगा कि अब वह शांतिपूर्वक रहेगा या फिर कोई नया अपराध करेगा।
चरण सिंह | जैसलमेर, राजस्थान
धर्मांतरण पर हो-हल्ला
आउटलुक के 23 जनवरी के अंक में धर्मांतरण पर धमाल पढ़ा। देश में लचीला कानून, अशिक्षा, गरीबी और लोभ के कारण मतांतरण हो रहा है। मजहबी कटृटरता और उसके परिणाम देश के लिए बड़ी चुनौती बन चुकी है। सुप्रीम कोर्ट भी लालच या धोखे से कराए जाने वाले मतांतरण पर चिंता जता चुका है। कोर्ट इसे गंभीर मामला तक कह चुका है लेकिन स्थिति जस की तस है। सुप्रीम कोर्ट को आभास है कि धोखे या लालच देकर कराए जाने वाले धर्मांतरण पर रोक लगनी चाहिए। ऐसे हर मामले में तुरंत कार्रवाई होनी चाहिए।
युगल किशोर राही | छपरा, बिहार
असली स्रोत
9 जनवरी की आवरण कथा अच्छी लगी। इसी अंक में कविता में ‘पितृ-ऋण’ आलेख भी पढ़ा। लेख में निदा फाजली के शब्दों को नाभि से निकला हुआ बताया गया है। हिंदू दर्शन में नाभि को ऊर्जा का असली स्रोत माना जाता है। सामान्यतः हम दिमाग को सब कुछ समझने की भूल कर बैठे हैं। जबकि रचनात्मकता तो असली स्रोत से ही उपजती है। अब्राहम लिंकन का उनके पुत्र के प्रधानाध्यापक को लिखा पत्र विश्वविख्यात है। पिता की यादों को संजोता यह आलेख पठनीय है। मां की चर्चाएं तो बहुत हुई हैं, पिता को नए सिरे से बीच बहस में लाने के लिए पत्रिका वाकई सराहना की पात्र है। ऐसे अछूते विषय ही आउटलुक को एक अलग स्थान दिलाते हैं।
निखिल शर्मा | जयपुर, राजस्थान
मातृत्व का महिमामंडन
आउटलुक के 9 जनवरी अंक में बच्चों की परवरिश में पिता की भूमिका की अच्छी विवेचना की गई है। आम तौर पर पिता बाहरी काम में व्यस्त रहते हैं जिसकी वजह से बच्चे की परवरिश की पूरी जिम्मेदारी मां पर पड़ जाती है। ‘छतनार बरगद-सा पिता’ और ‘पिता की जगह’ (संपादकीय) में यही बताया गया है। जहां मां-बाप दोनों नौकरी करते हों, वहां दोनों की बराबर भूमिका बन जाती है। भारत जैसे परंपरावादी देश में मातृत्व को इतना महिमामंडित किया जाता है कि पितृत्व गौण हो जाता है। देश की एकमात्र महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जिस हिम्मत से लगभग दो दशक तक देश की बागडोर संभाली उसमें पिता नेहरू की भूमिका को ‘बचपन से ही वे पिता से बढ़ कर साथी जैसे रहे’ में रेखांकित किया गया है। अब जरूरत है कि पिता बेटियों को भी बेटों की तरह कमाने वाला बनाएं और उन्हें भी पैतृक संपत्ति में बेटों के बराबर हिस्सा दें। यह बदलाव धीरे आएगा, मगर कोशिश जारी रहे। दरअसल यही बदलाव समरस समाज की नींव रख सकता है।
सुरेश प्रसाद | दार्जीलिंग, पश्चिम बंगाल
पुरस्कृत पत्र : जो रुचेगा, वही बचेगा
आउटलुक की आवरण कथा, ‘सुहाना साल’ (23 जनवरी) मुंबइया फिल्म उद्योग का विस्तार है। नई पीढ़ी को देखने की उत्सुकता क्या नेताओं के बच्चों, बिजनेसमैन के बच्चों की नहीं होती। फिर बॉलीवुड पर ही ये तोहमत क्यों कि यहां भाई-भतीजावाद है। क्या अदाणी, अंबानी, बिड़ला या ऐसे बड़े व्यापारिक घराने अपने बच्चों के अलावा किसी और को बागडोर सौंपते हैं। नहीं न। दरअसल अब बॉलीवुड मनोरंजन से ज्यादा वैचारिक अखाड़े का मंच बना दिया गया है। एक खास विचारधारा के लोग इस उद्योग को बर्बाद कर देना चाहते हैं। अगर कोई फिल्मी परिवार से आ रहा है, तो आने दीजिए। असल में, उसके लिए बस आना ही तो आसान होगा, टिकना नहीं। लेकिन उंगली उठाने वालें में इतना धैर्य कहां।
कोमल श्रीवत्स | रांची, झारखंड