वाकई लाजवाब
आज के दौर में भी होता है कि किसी भूमिका को निभाने के लिए कोई और सितारा मना कर देता है, बाद में वही फिल्म किसी का भाग्य बना देती है। नई आवरण कथा, (उसने फेंके पैसे नहीं उठाए..., 29 मई) बताती है कि हर दौर में ऐसा होता रहा है। उस दौर के चार बड़े नायकों का इनकार अमिताभ बच्चन के लिए कामयाबी लेकर आया। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि आज तक अमिताभ बच्चन अपनी प्रतिभा साबित कर रहे हैं। उनका निजी जीवन या राजनैतिक संबंधों को छोड़ कर बात की जाए, तो वे वाकई बॉलीवुड के प्रतिभावान कलाकार हैं। वे जिस भूमिका को निभाते हैं, उसी के जैसे लगने लगते हैं। लंबे अरसे बाद उनकी फिल्म गुलाबो सिताबो देखी, फिल्म की कहानी या सफलता-असफलता को अलग रख दें, तो अमिताभ ने मिर्जा का किरदार जैसे जीवंत कर दिया। उन्हें देख कर कोई नहीं कह सकता था कि वह अमिताभ हैं। इस उम्र में भी उनकी ऊर्जा से सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि वे अपने किरदारों पर कितनी मेहनत करते रहे होंगे। वे वाकई लाजवाब हैं।
डी.के. घोष | जबलपुर, मध्य प्रदेश
भरोसे से कामयाबी
29 मई की आवरण कथा, ‘उसने फेंके पैसे नहीं उठाए...’ उम्दा है। पुरानी गलियों से गुजरना हमेशा ही सुखद होता है। इस लेख में जो बात सबसे अच्छी लगी वह है प्रकाश मेहरा का विश्वास। उनका यह कहना कि “फिल्म तो इसी स्क्रिप्ट पर बनाऊंगा,” कहानी और लेखकों पर भरोसे को दिखाता है। यह भरोसा ही था, जिसकी वजह से फिल्म ने इतनी कामयाबी हासिल की। सलीम-जावेद ने कहानी में कोई कमी नहीं छोड़ी थी। दोनों ने उस दौर की नब्ज पकड़ी और प्रकाश मेहरा ने फिल्मांकन में कोई कसर नहीं छोड़ी। यह एक टीम का सामूहिक प्रयास था, जिसका नतीजा उस दौर से लेकर आज तक दिखाई दे रहा है। नई फिल्मों में वह बात अभी भी नहीं बन पाई। जंजीर की मेहनत बताती है कि सच्चे कलाकार ऐसे होते हैं।
वनश्री ठक्कर | अहमदाबाद, गुजरात
नया इतिहास
नए अंक (29 मई) में एंग्री यंग मैन की बात हुई। इसे पढ़ते हुए एक सच्चा और अच्छा एंग्री यंग मैन का आज का सार्थक रूप युवा नेता राहुल गांधी पर सटीक बैठता है जिन्होंने, तेज हवा, तीखी ठंड और बरसते पानी में भी पैदल चलकर विलासप्रिय तथा सुविधाभोगी नेताओं के वर्चस्व को चुनौती दी। वे जनमानस की सोच बदलने में कामयाब भी हुए। कर्नाटक में उन्हें इसका परिणाम भी मिला। अवाम की आवाज सुनकर तो यही लग रहा है कि केवल सिनेमा ही नहीं, समाज में भी एंग्री यंगमैन की जरूरत है। यानी अब फेंके हुए पैसे अर्थात जनादेश नहीं गले लगाकर दिए गए वोट पाने वाले एंग्री यंग मैन नया इतिहास रचने जा रहे हैं।
डॉ. पूनम पांडे | अजमेर, राजस्थान
खलनायक ही नायक
29 मई के अंक में, ‘एंग्री यंग मैन जिंदा है’ अच्छा लेख है। पचास बरस बाद भी यह फिल्म प्रासंगिक लगती है, तो समझा ही जा सकता है कि देश के हालत अब तक नहीं बदले हैं। अब हमारे लिए सामाजिक और राजनैतिक हालात और खराब होते जा रहे हैं। इस बीच और भी कई ऐसी फिल्में बनीं, जो सिस्टम की विफलता और नायकों के आक्रोश को दिखाती थीं। लेकिन जंजीर ने जो लकीर खींची उसे कोई नायक छोटा नहीं कर पाया। लेखक ने सही लिखा है, “जिन हालात में एंग्री यंग मैन के किरदार के बारे में सोचा जा सकता था वे हालात समाज में जस के तस हैं, बल्कि पचास साल पहले रचा गया किरदार फिर भी कुछ उसूलों पर चलता और सभ्यतापूर्ण व्यवहार करता नजर आता था।” यह सच है कि आज उसूल जैसा शब्द विलुप्ति की कगार पर है। आज के नायक बेवजह असहनशील, हिंसक और पूरी तरह बेमकसद हैं। बिना काम के हिंसा के कारण ही आज युवाओं में भी हिंसा की प्रवृत्ति देखने को मिल रही है। लेख पढ़ कर सोचा तो लगा कि हां यह सच है कि हम धीरे-धीरे एंग्री यंग मैन के बाद एंटी हीरो यानी खलनायक को ही अपना नायक मान रहे हैं। नायकों को खलनायक बनाने की जो मुहिम शुरू हुई, उसने हिंसा का अलग रोमांस पैदा किया जिससे समाज को नुकसान हो रहा है।
राजन हासीजा | मुंबई, महाराष्ट्र
सफलता का बिंब
एंग्री यंग मैन एक रूपक था, जो सफल हुआ। 29 मई के अंक में लेख, ‘एंग्री यंग मैन जिंदा है’ का किरदार बताता है कि समाज में आक्रोश या नाराजगी की भी अपनी जगह है। लेकिन यह आक्रोश या गुस्सा इतना हल्का होना चाहिए जिससे न समाज को नुकसान पहुंचे न खुद को। बस व्यवस्था को नाराजगी से डरना चाहिए। एंग्री यंग मैन का सफर आज भी जारी है। मगर इस किरदार को हमेशा ऐसा नहीं होना चाहिए कि इसमें गरीब की अमीर पर जीत हो। क्योंकि जो अमीर है उसने कहीं न कहीं मेहनत तो की होती है। ऐसा नहीं है कि गरीब मेहनत नहीं करता लेकिन मेहनत की भी एक श्रेणी होती है। यह श्रेणी गरीब को अवसर से मिलेगी इसलिए इस तबके को वह अवसर मुहैया कराए जाने चाहिए। इसलिए आज के लेखकों को ध्यान में रखना चाहिए कि वे इंस्पेक्टर विजय जैसा हूबहू किरदार बनाने के बजाय आज के दौर की पुलिस दिखाए, जिसके ऊपर कई अन्य तरह के दबाव हैं। भारतीय सिनेमा जंजीर से पहले भी था और बाद में भी रहा। लेकिन दोनों लेखकों ने जिस तरह अपने किरदारों की आवाज बुलंद की वह मानीखेज था। उन किरदारों का इतनी मजबूती के साथ हम पर प्रभाव छोड़ने में यही उनका सबसे बड़ा योगदान है। दोनों ने हमारे समाज की सोच को आईना दिखाया। फिर बाद में एंटी हीरो आने लगे, जिसने समाज को अलग धारा दी। एंटी हीरो का हीरो बनना वाकई चिंताजनक है। यदि ऐसे लोग युवाओं के आदर्श बनने लगेंगे, तो बताइए कि समाज को क्या दशा मिलेगी। फिल्मों का असर व्यापक होता है, हम जंजीर के मसले में देख ही रहे हैं। इसलिए जरूरी है कि नायक सावधानी से गढ़े जाएं।
प्रीति जोशी | रतलाम, मध्य प्रदेश
आत्मविश्वासी जोड़ी
29 मई के अंक में, लेखक कैसा हो, इसका एहसास सलीम-जावेद ने कराया अच्छा लेख है। निस्संदेह सलीम-जावेद का नाम हिंदी फिल्म जगत के सबसे उम्दा स्क्रिप्ट और डायलॉग लेखकों के रूप में लिया जाता है। इसके पीछे एक ही कारण है कि यह लेखकों की ऐसी पहली जोड़ी थी, जिन्होंने फिल्म निर्माताओं को विवश किया की फिल्म के पोस्टर पर उन दोनों का भी नाम आना चाहिए, क्योंकि इनसे पहले लेखकों को तरजीह नहीं दी जाती थी। इसके अलावा यह भी बड़ी बात थी कि 750 रुपये मेहनताना कमाने वाले लेखकों को हाथी मेरे साथी फिल्म के लिए उस समय के मेहनताने से 10 गुना ज्यादा पैसा मिला। यह उनके लेखन की ही ताकत थी या कहें खुद पर इतना भरोसा था कि उन्होंने फिल्म दोस्ताना में अमिताभ बच्चन से ज्यादा पैसा लिया था। इसी से इनकी दमदार प्रतिभा और कौशल का पता चलता है। उन्होंने ही सिखाया कि अपने मेहनताने को कैसे लिया जाए। अमिताभ बच्चन के करिअर को अलग दिशा देने में इन दोनों का ही बहुत बड़ा हाथ है।
बाल गोविंद | नोएडा, उत्तर प्रदेश
वैश्विक भूमिका पर प्रश्नचिन्ह
आउटलुक के 29 मई के अंक में प्रकाशित ‘शाही विरासत के ताज की मुश्किलें’ आलेख में लोकतंत्र की दुहाई देने वाले देश ब्रिटेन की राजशाही की कलई खुल गई। मत-पंथ और राज्य को मिलाना आपत्तिजनक है और यह सामाजिक विभाजन, अलगाव एवं असहिष्णुता को जन्म दे सकता है। ब्रिटेन और ब्रिटेन के लोग आज के दौर में भी राजशाही के मोहपाश से मुक्त नहीं हुए हैं। दुनिया भर में परंपरा और रिवायतें पीछे छूट रही हैं लेकिन ब्रिटेन में आज भी बड़ा तबका उन लोगों का है, जो राजशाही को लेकर उत्साह में हैं। जिस आर्थिक-सामाजिक हालात में सदियों पुरानी इन रीतियों को निभाया जा रहा है वहां न सिर्फ राजशाही की प्रासंगिकता सवालों के घेरे में है बल्कि ब्रेक्जिट के बाद खुद ब्रिटेन की वैश्विक भूमिका पर प्रश्नचिन्ह लगा हुआ है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा और जीवंत लोकतंत्र है, मगर पश्चिमी मीडिया में टिप्पणीकार आम तौर पर उसे निंदा भाव से देखते हुए अक्सर अनावश्यक सलाह देते रहते हैं। वे भारत में राजनीतिक एवं सामाजिक तनावों का छिद्रान्वेषण कर उदारवाद, पंथनिरपेक्षता और लोकतंत्र को लेकर भारतीयों की प्रतिबद्धता पर प्रश्न उठाते हैं। हालांकि वे इस तथ्य पर ध्यान देकर कभी भारत की सराहना नहीं करते कि ब्रिटेन और कई यूरोपीय देशों के उलट भारत एक परिपूर्ण लोकतंत्र है, जिसमें इन मूल्यों का समावेश होने के साथ ही गणतंत्रवाद, विधि के समक्ष समानता और राज्य एवं धर्म के मध्य स्पष्ट अंतर जैसे तत्व समाहित हैं। ये मूल्य भारतीय संविधान में गहराई से समाए हैं और भारतीय राज्य की बुनियाद रखते हैं।
युगल किशोर राही | छपरा, बिहार
शायरी की चर्चा
आउटलुक का 1 मई 2023 का अंक पढ़ा। सबसे पहले आप बधाई के पात्र हैं कि आपने पत्रिका में शायरी की चर्चा की। इसी तरह समय-समय पर साहित्यिक सामग्री प्रकाशित करते रहिए। जनाब शीन काफ़ निज़ाम साहब ने मुशायरों में आए बदलाव, भारत विभाजन के बाद की स्थिति, उर्दू शायरी की गहराई और छंद की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हुए, विषय को गहराई से छुआ है। उनके विचार असरदार हैं। जौन एलिया पर ‘जवां दिलों की धड़कन’, ‘लोकप्रिय बनाम अदबी शायरी’ और ‘जो वायरल है उसकी गारंटी नहीं’ भी अच्छे लेख हैं। संजीव सराफ ने ईमानदारी से इंटरव्यू दिया है। जावेद अख़्तर साहब और भी कुछ बातें कहते तो अच्छा था। अंक में फ़िराक गोरखपुरी साहब का भी जिक्र न होना खला।
प्रमोद शाह नफ़ीस | कोलकाता, पश्चिम बंगाल
अच्छा अंक
17 अप्रैल के अंक में संपादकीय ‘पंच परमेश्वर’ पसंद आया। इसी अंक में कवि, उपन्यासकार विनोद कुमार शुक्ल का साक्षात्कार अच्छा लगा। यह पूरा अंक मंडल-कमंडल जाति जनगणना पर केंद्रित है। इस अंक की पुस्तक समीक्षाएं भी जाति का चक्रव्यूह और आरक्षण पर हैं। मध्यकाल में इस जाति व्यवस्था के विरुद्ध एक रचनात्मक आंदोलन भी मझोली और निचली जातियों से आए संत कवियों ने चलाया। कबीर, तुकाराम, रैदास, हरिराम व्यास ऐसे कवि हैं जिनके लेखन में इन सबकी सख्त आलोचना मिलती है। कबीर ने तो अपनी रचनाओं में जाति व्यवस्था और इसके अन्तर्विरोधों पर तीखा प्रहार किया है। आधुनिक युग में भी समाजवादी विचारक डॉ. राम मनोहर लोहिया ने कहा था, जाति तोड़ो, समाज जोड़ो। निवेदन है कि आउटलुक में पहले की तरह कविता और कहानी को भी स्थान दिया करें।
विवेक सत्यांशु | इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश
पुरस्कृत पत्र: बैचेनी का प्रतीक
आउटलुक की आवरण कथा, ‘एंग्री यंग मैन@50’ (29 मई) ने पुरानी यादें ताजा कर दीं। प्रकाश मेहरा और अमिताभ बच्चन दोनों की मेहनत का नतीजा है जंजीर। यह फिल्म उस दौर में आई जब युवाओं में सिस्टम के प्रति आक्रोश दिखने लगा था। उससे पहले नायकों का सामाजिक व्यवस्था पर सवाल उठाना कम ही दिखाया जाता था। प्रकाश मेहरा की तारीफ की जानी चाहिए कि उन्होंने उस दौर में कमोबेश नए नायक अमिताभ बच्चन पर दांव खेला और वे सफल रहे। तकरीबन एक दर्जन फ्लॉप फिल्मों के बाद अमिताभ ने जंजीर के किरदार को संवारने में वाकई मेहनत की थी। जंजीर बनने की कहानी को इतने विस्तार से बताने के लिए धन्यवाद, क्योंकि नई पीढ़ी नहीं जानती कि पहले सुपर सितारे कैसे बनाए जाते थे।
देवांशु सत्य | पटना, बिहार