अधूरा सफर
26 जून के अंक में ‘दरकता कवच’ पर विस्तृत रिपोर्ट पढ़ी। रेल मंत्री को भीषण दुर्घटना की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए पद से इस्तीफा देना चाहिए। लोग सफर पर निकले लेकिन घर नहीं पहुंच पाए। हालांकि रेल मंत्रालय ने युद्ध स्तर पर बचाव कार्य किया लेकिन हादसे के बाद बचाव कार्य से लापरवाही पर परदा नहीं डाला जा सकता। प्रधानमंत्री ने कहा जरूर है कि इस भंयकर हादसे के लिए रेल अधिकारियों को बक्शा नहीं जाएगा। लेकिन यदि रेल मंत्री तुरंत अपना इस्तीफा देते, तो जनता के बीच अच्छा संदेश जाता। पूर्व रेल मंत्री लाल बहादुर शास्त्री ऐसा कर चुके हैं। हमेशा की तरह होगा यही कि इस भंयकर हादसे का जिम्मेदार कौन यह पता लगाने के लिए तमाम प्रकार की जांच कमेटी बनेगी और फाइलों का आदान-प्रदान होता रहेगा। कब किसे सजा मिलेगी, यह कौन जानता है।
जसवंत सिंह जनमेजय | दिल्ली
सुविधा से जरूरी सुरक्षा
मोदी सरकार को अपनी उपलब्धियां गिनवाना सबसे अधिक पसंद है। जरा सा काम किया नहीं कि विज्ञापन कर बताने दौड़ जाते हैं कि उन्होंने क्या किया। कुछ मसलों पर ऐसा चल जाता होगा लेकिन रेल में ऐसा नहीं चल सकता। 26 जून की आवरण कथा, ‘दरकता कवच’ कई पहलुओं को दिखाता है। मोदी सरकार के रेल मंत्री अपनी नौ साल की उपलब्धियों को गिनवाते हुए दावा कर रहे थे कि अब रेलवे का कायाकल्प हो गया है। उन्हें क्या पता था कि चंद घंटों बाद ही उन्हें एक भीषण हादसे के बाद रेल में रहने वाली साफ-सफाई के बदले अपनी कमियों की सफाई देनी पड़ेगी। रेलगाड़ियों में विश्वस्तरीय शौचालय सुविधा देना अच्छी बात है, लेकिन सुविधा से ऊपर सुरक्षा है। समय पर चलने वाली रेलगाड़ियां यदि सुरक्षित न पहुंचे, तो ऐसी पाबंदी का क्या करना है। रेलवे जिस तेजी से विद्युतीकरण कर रहा है उसे उतनी ही तेजी सुरक्षा के लिए भी दिखाना चाहिए।
जीशान | दिल्ली
सिर्फ चिंतन नहीं
26 जून की आवरण कथा, ‘दरकता कवच’ कायदे से सरकार के लिए सबक होना चाहिए। लेकिन हम सब जानते हैं कि सरकारें हादसों से सबक लेने के बजाय उन पर बस लीपापोती करती हैं। प्रधानमंत्री भारत की रेल क्षमता जाने बिना बस अपने विजन और महत्वाकांक्षा पर जोर दे रहे हैं। विजन 2047 अच्छी बात है, रेल अधिकारियों से नई तकनीक और बुलेट ट्रेन पर बात करना भी वे करें, तो कोई हर्ज नहीं। लेकिन पहले कम से कम भारत की रेल व्यवस्था को तो पूरी तरह समझ लें। प्रधानमंत्री अफसरों को सलाह दे रहे हैं कि वे रेल नेटवर्क के आधे हिस्से में ट्रेनों की गति को बढ़ाकर 160 किमी प्रतिघंटा करने पर चिंतन करें। लेकिन क्या सिर्फ चिंतन करने से यह काम हो पाएगा। जो ट्रेन पहले से चल रही हैं, उनकी हालत सुधारने के बजाय वे वंदे भारत एक्सप्रेस ट्रेन चलवाने में व्यस्त हैं। बेहतर हो कि वे पहले सामान्य ट्रेनों की सुरक्षा निश्चित करें उसके बाद जितनी मर्जी हो उतनी नई ट्रेन चलाएं।
कृष्णा साहू | बिलासपुर, छत्तीसगढ़
ये कैसी दलील
26 जून के अंक में, ‘पटरियों का सियासी आईना’ अच्छा लेख है। इसमें सिलसिलेवार ढंग से भारत में रेल की पूरी यात्रा का खाका खींचा गया है। आजाद भारत के बाद से रेल परियोजनाओं में बहुत बदलाव आया। गवर्नर जनरल लॉर्ड कर्नवालिस के दौर (1848-1856) से लेकर आज तक भारतीय रेल ने लंबा सफर तय किया है। जाहिर सी बात है, सरकार के अधीन इस सेवा में कुछ राजनीति भी हुई है। लेकिन आज के जैसा माहौल पहले कभी नहीं रहा। 1956 में तूतीकोरण एक्सप्रेस के दुर्घटनाग्रस्त होने पर तत्कालीन रेल मंत्री लालबहादुर शास्त्री ने इस्तीफा दे दिया, माधव राव सिंधिया, नीतीश कुमार जैसे रेल मंत्री भी नैतिक आधार पर पद छोड़ चुके हैं। यहां तक कि दो दुर्घटनाओं के बाद सुरेश प्रभु की भी विदाई हुई। मगर ओडिशा की इतनी बड़ी दुर्घटना के बाद रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव पर कोई दबाव नहीं है। आखिर इसका कारण क्या है। उनके इस्तीफे के बजाय यह दलील दी जा रही है कि इस्तीफों से कुछ नहीं सुधरा। क्या यह रेल मंत्री के राजनीति के बजाय अफसरशाही में रहने का नतीजा है।
पूर्वा जोशी | जयपुर, राजस्थान
क्या होगा सियासी समीकरण
26 जून के अंक में, ‘कड़े मुकाबले का मोर्चा’ औसत रिपोर्ट है। इसमें ऐसा कुछ भी नया नहीं, जो पता न हो। अब खबर हर दिन नहीं हर सेकंड नए रूप में दिखाई दे जाती है। शिवराज सिंह चौहान की कल्याणकारी योजनाओं के बारे में अखबारों में खबरें और खबरनुमा विज्ञापन भरे पड़े हैं। मध्य प्रदेश की राजनीति में क्या उठा-पटक हुई और शिवराज कैसे मुख्यमंत्री बने यह भी सभी जानते हैं। मुद्दे की बात तो यह है कि नवंबर में शिवराज फिर से सत्ता में काबिज होंगे कि नहीं यह भले ही समय के गर्भ में है लेकिन इस लेख में यदि सियासी समीकरण के बारे में कुछ होता तो यह रिपोर्ट ज्यादा अच्छी बन पड़ती।
शांति कुमार जैन | उदयपुर, राजस्थान
गुदड़ी के लाल
आइपीएल के ‘चमकदार चेहरे’ (26 जून) लेख उन प्रतिभाओं से रूबरू कराता है, जो नायक की तरह उभरे हैं। जब तक आइपीएल चलता है, इन खिलाड़ियों की वाह वाही होती है, सब आइपीएल को दिलचस्पी से देखते हैं। लेकिन जैसे ही पारंपरिक क्रिकेट में भारतीय टीम हारती है, वैसे ही सभी लोग हार का ठीकरा आइपीएल पर फोड़ देते हैं। कोई यह नहीं देखता कि ये खिलाड़ी अपनी प्रतिभा से हर किसी को चकित कर रहे हैं। आइपीएल ही क्यों पहले भी पारंपरिक क्रिकेट में कई गुदड़ी के लाल हुए हैं। हर खेल में ऐसा रहा है और इतिहास ऐसी कई कहानियों का गवाह रहा है। आर्थिक संकटों से जूझ कर अपनी जगह बनाने वाले खिलाड़ियों पर बहुत दबाव होता है। लेख में सही लिखा है कि “इन खिलाड़ियों ने उस परंपरा को भी तोड़ा है कि भारतीय क्रिकेट टीम में बड़े शहरों का ही प्रतिनिधित्व होता है।” इन खिलाड़ियों की कामयाबी पूरे भारत के लिए प्रेरणा का कारण है।
प्रतिष्ठा शर्मा | दिल्ली
शर्मसार करती व्यवस्था
ऐसा मजाक भारत में ही हो सकता है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नाम कमाने वाली महिला खिलाड़ियों के साथ दुर्व्यवहार हो। 26 जून के अंक में ‘ये कौन सा निजाम है दोस्तो!’ पढ़ कर जरा भी आश्यर्य नहीं हुआ कि भारतीय कुश्ती संघ के अध्यक्ष पद पर रहते हुए बृजभूषण सिंह ने महिला खिलाड़ियों के साथ शारीरिक छेड़छाड़ की। मौजूदा सरकार चलाने वाली पार्टी के सांसद होने के नाते उन्हें डर भी नहीं था कि उनके खिलाफ कोई कार्रवाई होगी। छह महीने ये खिलाड़ी भटकती रहीं और इनकी कहीं सुनवाई नहीं हुई। हम सभी को शर्मसार करने के लिए इतना काफी है।
शालिनी अवस्थी | कानपुर, उत्तर प्रदेश
बेटियों की किसे चिंता
आउटलुक पत्रिका के 26 जून के अंक में प्रकाशित, ‘बेटी पढ़ाओ कोरा नारा’ आलेख दिल को छू गया। शिक्षा देश के विकास के लिए विभिन्न क्षेत्रों में कई अवसर प्रदान करती है। शिक्षा लोगों को स्वतंत्र बनाती है, आत्मविश्वास और आत्म-सम्मान का निर्माण करती है, जो देश के विकास के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। शिक्षा ही वह साधन है, जो अकेले ही राष्ट्रीय और सांस्कृतिक मूल्यों को मन में बिठा सकती है और लोगों को झूठे पूर्वाग्रहों, अज्ञानता और प्रतिनिधित्व से मुक्त कर सकती है। शिक्षा उन्हें आवश्यक ज्ञान, तकनीक, कौशल और जानकारी प्रदान करती है और उन्हें अपने परिवार, अपने समाज और अपनी मातृभूमि के प्रति अपने अधिकारों और कर्तव्यों को जानने में सक्षम बनाती है। बावजूद इसके हरियाणा में सरकारी स्कूलों में शौचालयों के अभाव में लड़कियां स्कूल नहीं जा रही हैं। भाजपा संचालित राज्य हरियाणा में राज्य के 538 सरकारी स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग शौचालय नहीं हैं जबकि लड़कों के लिए 1047 सरकारी स्कूलों में अलग शौचालय नहीं है। यही नहीं, 236 स्कूलों में बिजली नहीं है। 131 स्कूलों में पेयजल कनेक्शन नहीं है। 2651 स्कूलों के छात्र दूषित पानी पीने को मजबूर हैं क्योंकि यहां नलों में पाइप लाइन के जरिए पेयजल की आपूर्ति नहीं होती और 321 स्कूल बगैर चारदिवारी के चलाए जा रहे हैं। विकसित राष्ट्र की ओर अग्रसर भारत के एक राज्य की यह तस्वीर भविष्य के लिए अच्छी नहीं है। जबकि इसी हरियाणा की मिट्टी से निकली कई बेटियां विश्व पटल पर पहलवानी में सुर्खियां बटोर कर अपने देश के लिए कई पदक लाई हैं। हरियाणा सरकार, तो शायद इस पर शर्म भी न करती हो। उन्हें मूलभूत सुविधाएं भी उपलब्ध न करा पाने का जरा भी एहसास होता, तो छात्राओं की आगे पढ़ने की राह आसान बन पाती।
युगल किशोर राही | छपरा, बिहार
बढ़ा आत्मविश्वास
आवरण कथा, ‘चौपड़ चौबीसी’ (12जून) केंद्रीय सत्ता के लिए एकजुट हो रहे लोगों की अंदरूनी खदबदाहट को बताती है। सबका मकसद एक ही है, किसी भी तरह सत्ता में आना। यह आपसी साझेदारी नहीं बल्कि लालच है। राजनीतिक रंगमंच पर विपक्षी एकता कैसा प्रदर्शन करेगी, यह देखने वाली बात होगी। कर्नाटक में जीत हासिल करने के बाद कांग्रेस का आत्मविश्वास बढ़ा है, इसमें कोई शक नहीं। अगर यही प्रदर्शन वह मध्य प्रदेश में दोहरा दे, तो विपक्ष की एकजुटता को बल मिलेगा।
अरविन्द पुरोहित | रतलाम, मध्यप्रदेश
सिर्फ एजेंडा
12 जून के अंक में, ‘हिंदुत्व की तेजी’ पढ़ा। खुद को समर्पित मुख्यमंत्री कहकर अपना ढिंढोरा पीटने वाले पुष्कर धामी की अब सारी पोल पट्टी खुलने लगी है। काम के बजाय वे सिर्फ हिंदुत्व-हिंदुत्व कर रहे हैं। धर्मांतरण विरोधी कानून लागू करना, केंद्र का मसला होने के बाद भी समान नागरिक संहिता का ड्राफ्ट तैयार करना, मजार जिहाद जैसे काम कर वे सिर्फ अपना एजेंडा चला रहे हैं। और कुछ न कुछ करके केवल खबरों में बने रहना चाहते हैं। लेकिन उनका ध्यान नदियों से हर रोज माफिया गैंग के अवैध खनन और लूट पर ध्यान नहीं है। इस मामले पर वे ऐसे अनजान बने रहते हैं जैसे, कुछ जानते ही न हों। भाजपा ने अपने घोषणा पत्र में खूब भोंपू बजाया कि किसी भी तरह से कोई अवैध खनन नही होगा मगर यह खुल्लम खुल्ला यह खेल चल रहा है।
मुगधा | नई दिल्ली
पुरस्कृत पत्र: तकलीफदेह तस्वीर
यह कहने में ही अच्छा लगता है कि बेटियां रौनक हैं। जब इन्हीं रौनक पर बात आती है, तो हर जगह चुप्पी छा जाती है। 26 जून के अंक में, ये कौन सा निजाम है दोस्तो! पढ़ कर दिल भर आया। पुलिस की गिरफ्त में साक्षी मलिक की तस्वीर देख कर बहुत दुख हुआ। यह तस्वीर इतनी तकलीफदेह है कि आंखें छलछला आईं। पदक विजेता, देश का नाम रोशन करने वाली बेटियों को पुलिस इतने बर्बर तरीके से घसीट रही है जैसे, वे कोई अपराधी हैं। जिन महिला पहलवानों ने दुनिया भर में अपने प्रतिद्वंदंवियों को पटखनी दी, वही लड़कियां यहां के तंत्र से हार गईं। इससे ज्यादा शर्म की स्थिति नहीं हो सकती कि यौनाचार का आरोपी बिना चिंता आराम फरमा रहा और लड़कियां इंसाफ के लिए सड़क पर हैं।
दलजित पुंज | पटियाला, पंजाब