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21 अगस्त 2023 · AUG 21 , 2023

पत्र संपादक के नाम

भारत भर से आई पाठको की चिट्ठियां
पिछले अंक पर आई प्रतिक्रियाएं

हिमालय में तांडव

मानसून आते ही हिमालयी राज्यों में एक बार फिर तांडव मच गया है। 7 अगस्त की आवरण कथा, ‘तरक्की का भुलावा तबाही को बुलावा’ इस पर विस्तार से रोशनी डालती है। भारी वर्षा के चलते हिमाचल और उत्तराखंड में नदियां खतरे के निशान से ऊपर बह रही हैं। बांधों से मजबूरन पानी छोड़ा जा रहा है। हिमाचल ने इससे पहले न जाने कब जीवनदायिनी नदियों का ऐसा रौद्र रूप देखा था। उत्तराखंड के उत्तरकाशी, टिहरी, पौड़ी आदि तमाम जिलों की हालत बेहद खराब है। मैदानी इलाकों का भी कमोबेश यही हाल है। सतपुली, दुगड्डा, रुद्रप्रयाग आदि से जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं, तमाम जगहों पर कई सौ मीटर तक सड़क ही गायब है। पहाड़ भरभराकर गिर रहे हैं। ऐसी खतरनाक स्थितियों में भी लोग केदारनाथ और बद्रीनाथ की यात्रा को टाल नहीं रहे। बरसात हमेशा से ही पहाड़ों के लिए परेशानी का सबब रही हैं। लेकिन इन परेशानियों से कभी कोई सबक नहीं सीखा गया। क्या सरकार किसी बड़ी आपदा का इंतजार कर रही है कि आने वाले सालों में कुछ भयंकर घटे और फिर वह चेते।

गौरव शर्मा बडोला | मुंबई, महाराष्ट्र

 

प्रकृति का प्रतिशोध

इस समय पूरा उत्तर-पश्चिम भारत बाढ़ तथा जलभराव का सदमा झेल रहा है। कई जगहों पर बरसात थमने का नाम ही नहीं ले रही है। आउटलुक का नया अंक (पहाड़ का प्रतिशोध, 7 अगस्त) बताता है कि हमने नदियों और पहाड़ों के साथ जो कुछ किया, अब वे इसका बदला ले रहे हैं। बांध बना कर नदी के बहाव को रोकने की कोशिश कर पानी की निकासी के लिए मामूली रास्ते बना कर हमने उम्मीद की कि प्रकृति फिर भी हमसे प्रेम करेगी। यह प्रकृति को ललकारने के समान था और उसी का नतीजा आज अधिकांश राज्यों में बाढ़ की विभीषिका के रूप में दिख रहा है। वैज्ञानिकों को भी पता था कि तकनीकी दृष्टि से उन्होंने जो कुछ किया है उसका अवांछित परिणाम हमें भोगना होगा। लेकिन उस पर सरकार ने कभी सोच विचार नहीं किया। अब समय आ गया है कि सरकार वैज्ञानिकों के साथ नदियों को कैसे नियंत्रित किया जाए इस पर विस्तृत चर्चा करे और एक राज्य बांध से जब पानी छोड़े तो दूसरे राज्यों के गांव और शहरों की चिंता को इसमें शामिल करे। मिल बैठकर ही इसका समाधान निकलेगा।

शैलेन्द्र कुमार चतुर्वेदी | फिरोजाबाद, उत्तर प्रदेश

 

रौद्र रूप

पहाड़ कुदरती संपदा है। यह किसी के भोग-विलास या मनोरंजन की जगह नहीं है। न ही ये लडडू-मिठाई है, जो इसे कहीं से भी कुतरा या छीला जा सकता है। पहाड़ क्या कर सकते हैं यह ‘पहाड़ का प्रतिशोध’ (7 अगस्त) लेख में सभी को पता चल ही गया है। इंसान ने प्रकृति के साथ जो अति की है, उसी का परिणाम इस बार देखने को मिल रहा है। सरकार जानती है कि हर साल बारिश में पहाड़ पर परेशानी पैदा होती है लेकिन समय रहते सरकार न चेतावनी जारी करती है न लोगों को सही समय पर सुरक्षित स्थान पर पहुंचाती है। चाहे इसे ग्लोबल वार्मिंग कहा जाए या कुछ और लेकिन इतना तो तय है कि पहाड़ अब और इंसानी अत्याचार नहीं सहेंगे। इनसे की गई छेड़छाड़ ऐसे ही रौद्र रूप में हमारे सामने आती रहेगी।

डॉ. पूनम पांडे | अजमेर, राजस्थान

 

मैं मां हूं

आउटलुक की आवरण कथा, ‘पहाड़ का प्रतिशोध’, 7 अगस्त पढ़ कर यही कहा जा सकता है कि पहाड़ शांति का प्रतीक होते हैं। मैं पहाड़ हूं, शांति, प्रेम और अपनेपन की जननी। वर्षों से ठुकराई हुई मैं तो केवल मां हूं और मां प्रतिशोध नहीं ले सकती। प्रतिशोध किससे, अपने बच्चों से, समाज से और अपने देश से? प्रतिशोध लेने से मैं मां नहीं रहूंगी। मैं तो केवल चेतावनी देती हूं, कभी बादल फटने के रूप में कि मुझ पर अवैध कब्जा मत करो, कभी भूस्खलन के रूप में कि मेरी छाती को अब और घाव न दो, कभी बाढ़ के रूप में कि कम से कम मेरी धारा का रास्ता तो न रोको, कभी सूखे के रूप में कि मेरी हरियाली मुझसे मत छीनो, कभी बीमारी के रूप में कि मुझे ज्यादा भीड़ से न डराओ, कभी धरती धंसने के रूप में कि अंधाधुंध खनन बंद करो। मैं तो बहुत शांत हूं। परंतु कई बार अपनी भावनाओं का ज्वार नहीं रोक पाती और वह ज्वार फट जाता है। मैं तो यही कहती हूं कि अपनी मां की भावनाओं को समझो ताकि भावनाओं का ज्वार फिर करवट न ले।

रवींद्र जोशी | अंबाला, पंजाब

 

दोषी कौन

आउटलुक के 7 अगस्त के अंक में, ‘अंधाधुंध विकास का अभिशाप’ लेख पढ़ा। 10 जुलाई को ब्यास नदी में आई विनाशकारी बाढ़ के पीछे आखिर क्या कारण है, यह सवाल महत्वपूर्ण है। आखिर में किसी की तो जवाबदेही तय करना ही होगी, जिससे पता चले कि कभी शांत सुरम्य हिल स्टेशन मनाली आज तबाही का गवाह क्यों बन गया है। गर्मियों में पर्यटकों से भरे रहने वाले मनाली की ऐसी दुर्दशा क्यों हो गई है। अगर कोई जीवंत शहर भूतिया शहर में तब्दील हो गया है, तो उसका जिम्मेदार कौन है। और तबाही भी ऐसी जिसकी किसी ने कल्पना तक नहीं की थी। यह विनाशलीला और लोगों का दुख-दर्द प्रलय के पूर्वाभास जैसा है। जो भी लोग इस तरह की लापरवाही के लिए जिम्मेदार हैं उन्हें सख्त से सख्त सजा होनी चाहिए।

आर.के. दुआ | मंडी, हिमाचल प्रदेश

 

पहाड़ों की बर्बादी

इस बार पहाड़ों पर अब तक की सबसे अधिक रिकॉर्ड तोड़ बारिश हुई है। इस बारिश ने अभूतपूर्व बाढ़ पैदा की तबाही का सबब बनी। 7 अगस्त के अंक में प्रकाशित लेख, अंधाधुंध विकास का अभिशाप वहां की बिलकुल सही स्थिति को बताता है। इस बाढ़ से सिर्फ मनाली में नहीं, बल्कि ब्यास और उसकी सहायक नदियों के प्रकोप से कुल्लू और मंडी जिलों में जो कहर बरपा वह भुलाया नहीं जा सकेगा। आखिर भारत में कब ऐसा सिस्टम विकसित होगा, जो भारी बारिश की चेतावनी दे सके। इसके बाद राज्य सरकार मुस्तैदी से इस पर अमल करे और जान और माल का कम से कम नुकसान हो। बारिश का यह कहर भयावह है। इस छोटे पहाड़ी राज्य में वैसे ही सुविधाओं की कमी है। ऐसी भयानक आपदाओं से राज्य की कमर ही टूट जाती है।

पंकज नेगी | गोपेश्वर, उत्तराखंड

 

संसाधनों का दुरपयोग

आउटलुक में 7 अगस्त को प्रकाशित लेख, हिमालयी जन की पीड़ा बहुत सारगर्भित है। यह तकनीकी रूप से और वहां की भौगोलिक स्थिति के रूप में भी बताता है कि हिमालय के पहाड़ों से किसी भी प्रकार का खिलवाड़ करना ठीक नहीं है। लेख में सही लिखा है कि हिमालय का पारिस्थितिकी तंत्र बहुत नाजुक है। “हिमालय की भू-विवर्तनिक (जियो-टेक्‍टोनिक) प्रकृति अच्छी तरह से ज्ञात है लेकिन उसे स्वीकार तो किया जाता है लेकिन ठीक से समझा नहीं जाता।” यह तो सच है कि हर जगह को बुनियादी ढांचे की जरूरत है। लेकिन इसकी कीमत क्या होगी यह भी देखने की जरूरत है। हिमालय के पहाड़ ऐसे नहीं है, जिन पर विकास का बोझ डाला जाए। सरकार को चाहिए कि वह वहां के संसाधनों के दुरपयोग की मंशा छोड़ कर सिर्फ ऐसी व्यवस्था बनाए, जिससे जनजीवन सामान्य और सुचारू ढंग से चल सके। सरकारी एजेंसियों के मानदंडों का खुलेआम उल्लंघन हो रहा है। इसका सबसे बुरा पक्ष है ऐसे बुनियादी ढांचे का निर्माण, जिसकी कोई जरूरत नहीं है। आखिर सरकार पहले ठीक तरह से सर्वेक्षण कर यह पता क्यों नहीं लगाती कि पहाड़ों पर किस तरह की सुविधाएं चाहिए और पहाड़ों से कम से कम छेड़छाड़ कर इन्हें आम जनता तक कैसे पहुंचाया जा सकता है। समझदारी भरा रवैया न अपनाया गया, तो इससे भी भीषण तबाही के लिए हमें तैयार रहना होगा।

कुलभूषण जायसवाल | दिल्ली

 

लीला ही न्यारी

7 अगस्त के अंक में, ‘बाढ़ में राजनीति लीला’ की राजनीति हर साल का फैशन है। हर साल कहीं न कहीं बाढ़ आती है और नेता ‘हवाई दौरा’ कर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। जब तक चुनाव आते हैं, मौसम की तरह लोग भी अपना मन बदल लेते हैं और फिर उन्हीं लोगों को वोट दे देते हैं, जिन्होंने उनके लिए कभी कुछ नहीं सोचा। आखिर यह कब तक चलेगा। लोग बाढ़ में अपना सब कुछ खो देते हैं और नेताओं को कोई चिंता ही नहीं रहती।

चंदन शर्मा | वाराणसी, उत्तर प्रदेश

 

पुरस्कृत पत्र: समझदारीपूर्ण विकास

इस बार की आवरण कथा (तरक्की का भुलावा तबाही को बुलावा, 7 अगस्त) का शीर्षक तरक्की से तबाही की बात करता है। क्या पहाड़ को तरक्की नहीं चाहिए, क्या वहां के लोगों को बिजली, स्कूल, अस्पताल, सड़क की सुविधा नहीं चाहिए? क्या इन सारे संसाधनों पर सिर्फ और सिर्फ तराई में रहने वाले लोगों का ही हक है? पहाड़ को भी यह सब चाहिए लेकिन समझदारी के साथ। इसलिए सिर्फ यह कहना कि निर्माण कार्य या विकास की वजह से यहां परेशानी पैदा होती यहां की तरक्की को रोकता है। कहना यह होगा कि सरकार अवैध निर्माण पर सख्ती करे। विकास से तबाही लिखने से लगता है कि यह तबाही सिर्फ विकास की वजह से है, जबकि सही मायनों में ऐसा बिलकुल नहीं है।

कुसुमलता दीवान | देहरादून, उत्तराखंड

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