Advertisement

संपादक के नाम पत्र

भारत भर से आई पाठको की चिट्ठियां
पिछले अंक पर आई प्रतिक्रियाएं

आसान हथियार

महिलाओं के प्रति बढ़ती हिंसा के कई कारण हैं। 21 अगस्त की आवरण कथा ‘जमीन की लूट में पहला शिकार’ इसके हर पहलू पर बात करती है। मणिपुर में जो हुआ उसके बाद भी सरकार ने घटना के दोषियों को सजा दिलाने के लिए कोई संज्ञान नहीं लिया। महिलाओं के प्रति हिंसा में भी राजनीति किस कदर समाई हुई है, यह इसी से समझ में आता है कि घटना के ढाई महीने बाद बाहर के लोगों ने जाना कि हजारों की भीड़ में दिनदहाड़े एक युवती और एक अधेड़ महिला को निर्वस्त्र घुमाया गया। जनता मूक दर्शक बनी वीडियो बनाती रही, जो बाद में लीक हुआ। मणिपुर में चली आ रही हिंसा में यह पहली बार नहीं है, जब महिलाओं को बदला लेने के हथियार के रूप में शामिल किया गया। मामले की जांच के खानापूर्ति आदेश से क्या कुछ होगा यह सभी जानते हैं। सरकार को चाहिए कि महिलाओं को बदले का हथियार बनाने वालों को फांसी की सजा दे, ताकि भविष्य में कोई इस तरह की हरकत करने से पहले कम से कम सौ बार सोचे।

देवानंद राही | उदयपुर, राजस्थान

मिले इंसाफ

आउटलुक की 21 अगस्त की आवरण कथा, ‘जमीन की लूट में पहला शिकार’ में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े डरावने हैं। यकीन ही नहीं होता कि हम ऐसे देश में रह रहे हैं, जहां औरतों को देवी का दर्जा दिया जाता है। अनुसूचित जनजाति की महिलाओं पर जुल्म की घटनाओं में 6.4 फीसदी की वृद्धि बहुत चिंताजनक है। ऐसी बढ़ोतरी उस शासनकाल में हो रही है, जो खुद को आदिवासी हितैषी कहती है। लेख में उल्लेख किया गया है कि ऐसा हर मामला थाने में दर्ज नहीं होता। यह भी एक अलग ही लेख का विषय है क्योंकि भारत के थाने आरोपियों को काबू करने, पीड़ित को इंसाफ दिलाने के नहीं बल्कि खुद शोषण के अड्डे हैं। आदिवासियों से सब कुछ छीन कर उद्योगपतियों को देने की मंशा ने ऐसे अपराधों को और हवा दी है। उनकी जमीन पर विकास के नाम उद्योग लगाने से आदिवासियों की लड़ाई कमजोर पड़ती है। जमीन के कब्जे में औरतों के साथ अत्याचार को औजार की तरह इस्तेमाल करने का सिलसिला देश के दूसरे हिस्सों में भी बढ़ता जा रहा है। क्या कोई इसकी सुध लेगा?

शांति त्रिवेदी | रांची, झारखंड

पूरा देश चपेट में

मणिपुर तो सिर्फ बहाना है। औरतों के साथ दुर्व्यवहार की आग पूरे भारत में फैल रही है। 21 अगस्त की आवरण कथा, ‘जमीन की लूट में पहला शिकार’ में आदिवासी महिलाओं पर हमले की जो बातें कही गई हैं, वह मीडिया में सिरे से गायब रहती हैं। कोई घटना होती है, जिसका हल्ला मचता है, संसद में बहस होती है, आरोप-प्रत्यारोप लगते हैं और सदन का सत्र खत्म होते ही सब अगली किसी बड़ी घटना तक पिछली को भूल जाते हैं। मणिपुर ने पूरे देश को झकझोरा, लेकिन उसके बाद क्या हुआ- विपक्षी दलों के 21 सांसदों ने वहां का दौरा किया और अब सब कुछ शांत है। इन महिलाओं के लिए देश के किसी हिस्से में आंदोलन नहीं हुआ। पीड़ित औरतों ने बताया कि पुलिस ने उन्हें बचाने के लिए कुछ नहीं किया। विडंबना पुलिस ही उन लोगों को खोज रही है, जिन्होंने इस काम को अंजाम दिया, लेकिन पुलिस को पकड़ने वाला कौन है? क्या राज्य सरकार को सबसे पहले उन पुलिसवालों पर सख्ती नहीं बरतनी चाहिए? सबसे पहली सजा तो उन पुलिस वालों को ही मिलनी चाहिए। कब तक ऐसी हिंसा होती रहेगी?

प्रेरणा सेठी | मुंबई, महाराष्ट्र

कौन दिलाए न्याय

आज के दौर में भारतीय नारी की दुर्दशा देखकर किसी का भी मन व्यथित हो सकता है। एक तरफ देश में आजादी का अमृत उत्सव मनाया जा रहा है, दूसरी तरफ औरतें रूढ़ियों, कुरीतियों, बंदिशों की उन्हीं पुरानी जंजीरों में जकड़ी हुई हैं। आउटलुक के 21 अगस्त अंक में आवरण कथा, ‘जोर-जुलुम से जंग’ झकझोर गई। अशिक्षा, गरीबी, अंधविश्वास, टोने-टोटके उनकी तरक्की रोक रहे हैं, उनसे मनुष्य होने की हैसियत तक छीन ली गई है। इक्कीसवीं सदी में भी औरत शोषण का शिकार है। हैरत तो तब होती है जब किसी समूह में किसी नारी के साथ अन्याय होता है और सोशल मीडिया पर पूरा गुस्सा निकलता है। कोई सड़क पर नहीं उतरता, न पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए आगे आता है। यही वजह है कि अन्याय करने वाले किसी से नहीं डरते और यह सिलसिला चलता रहता है।

डॉ. पूनम पांडे | अजमेर, राजस्थान

स्वायत्तता मिले

आउटलुक के 21 अगस्त के अंक में प्रकाशित लेख ‘उच्च शिक्षा संस्थानों में स्वायत्तता’ की ओर कदम रचनात्मक और सकारात्मक लेख था। इस लेख से उन छात्रों को बहुत मदद मिलेगी, जो उच्च शिक्षा के लिए सार्वजनिक और उच्च कोटि के निजी शिक्षण संस्थान से जुड़ी जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं। इस समय जब सीयूईटी का परिणाम आ चुका है और छात्र अच्छे कॉलेजों की तलाश कर रहे हैं ऐसे में आउटलुक का यह लेख छात्रों के लिए उपयोगी एवं सहायक सिद्ध होगा। नई शिक्षा नीति (एनईपी) के तहत इन तीन साल में उच्च शिक्षा में कई बदलाव देखने को मिले हैं। शिक्षा को रोजगारपरक, उच्च शिक्षा डेटा संग्रह, भीतरी स्वायत्तता और संचार से जोड़ने की कोशिश की गई है। ऐसे समय में छात्रों के लिए जरूरी हो जाता है कि वह उच्च गुणवत्ता वाले शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश ले, जो उच्च गुणवत्ता के साथ-साथ आंतरिक स्वायतता के साथ भी जुड़े हों। इस क्षेत्र में कई उच्च शिक्षण संस्थानों ने कदम आगे बढ़ा दिए हैं।

विजय किशोर तिवारी | नई दिल्ली

पहाड़ों की दुर्दशा

आउटलुक के 7 अगस्त के अंक में, ‘अंधाधुंध विकास का अभिशाप’ लेख पढ़ा। पहाड़ों पर विनाशकारी बारिश के कारण कई जानें चली गईं। पहाड़ों की इस दुर्दशा का दोषी आखिर कौन है? यह सिर्फ मौसम के बदलाव के कारण नहीं है। इसे सिर्फ ग्लोबल वार्मिंग या क्लाइमेट चेंज कह कर खारिज नहीं किया जा सकता। दरअसल मनुष्य के लालच ने इस विनाश को जन्म दिया है। पहाड़ों पर जहां देखो अवैध निर्माण हैं। बिना यह देखे कि यहां मकान टिकेगा या नहीं लोग अंधाधुंध मकान, होटल, रिसॉर्ट बनाए जा रहे हैं। पहाड़ों की स्थिति जाने बिना मनुष्य ने जो किया उसी का परिणाम है कि पर्यटकों के पसंदीदा स्थल मनाली में तबाही का मंजर है। इन खूबसूरत जगहों को कौन विनाश के मुहाने पर खड़ा कर रहा है, उसे पहचानना होगा, वर्ना वो दिन दूर नहीं जब पहाड़ की आबादी को हमेशा के लिए अपना घर छोड़ना पड़ेगा।

सौम्या रावत | देहरादून, उत्तारखंड

नष्ट होते पहाड़

7 अगस्त के अंक में ‘अंधाधुंध विकास का अभिशाप’ डराने वाला है। रिकॉर्डतोड़ बारिश ने पहाड़ों में प्रलय ला दी। कुल्लू और मंडी जिलों में जो हुआ वह आगे के लिए चेतावनी है। यदि इसे भुलाया गया, तो भविष्य में इससे बड़े संकट के लिए तैयार रहना होगा। विकास के नाम पर बिना वजह बनती सड़कें, पर्यटकों को हर सुख-सुविधा देने के लिए जगह-जगह बन रहे होटल पहाड़ के संकट को और बढ़ा रहे हैं। सरकार को चेतावनी दे कर ही नहीं रुक जाना चाहिए, बल्कि उन लोगों की पहचान करनी चाहिए जो निर्माण की मंजूरी दे रहे हैं। राज्य सरकार को चाहिए कि बारिश का अलर्ट सिस्टम विकसित करे, ताकि समय रहते लोगों को चेताया जा सके। इससे कुल्लू जैसे हादसे रोकने में मदद मिलेगी। इस तरह की आपदा से जिन लोगों का नुकसान होता है, वे सालोसाल इससे उबर नहीं पाते हैं। मैदानी इलाकों में रहने वालों को भी समझना होगा कि पहाड़ मौज-मस्ती के लिए नहीं हैं।

गीतिका विज | चंडीगढ़

पीड़ा की पहचान

आउटलुक में 7 अगस्त को प्रकाशित लेख, ‘हिमालयी जन की पीड़ा’ वहां की तकनीकी और भौगोलिक स्थिति के बारे में बताता है। तराई या मैदानी इलाकों में रहने वाले पहाड़ों की समस्याओं को इतने अच्छे से कभी नहीं समझ सकते, जितने अच्छे ढंग से इस लेख में समझाया गया है। कई साल से ऐसी चेतावनियां जारी की जा रही हैं, लेकिन इसका कोई असर नहीं हो रहा। केदारनाथ में महाप्रलय के बाद फिर वही ढाक के तीन पात। आखिर हम कब समझेंगे कि पहाड़ों से खेलना भयानक हो सकता है? हिमालय का पारिस्थितिकी तंत्र बहुत नाजुक है। इसे समझ कर ही वहां पर बुनियादी ढांचे को विकसित करना होगा। विकास के नाम पर पहाड़ों से खिलवाड़ सभी को महंगा पड़ेगा। पहले वहां समझा जाए कि किस तरह के निर्माण की जरूरत है, उसके बाद ही कोई कदम उठाए जाएं। पहाड़ तबाह होंगे, तो उसका असर सभी पर होगा। बेहतर है, समझदारी से हर संसाधन का दोहन हो। विकास के नाम पर पहाड़ों को बर्बाद करने वालों को सख्त सजा का प्रावधान होना चाहिए। इसी से बिना मतलब के निर्माण कार्य पर रोक लगेगी। आजकल जो पहाड़ को नहीं समझता वह भी दिल्ली में बैठकर पहाड़ों की योजना बनाता है।

कीर्ति दुबे | रीवा, मध्य प्रदेश

पुरस्कृत पत्र: देवियों का देश

इस बार (21 अगस्त) की आवरण कथा, ‘जमीन की लूट में पहला शिकार’ बहुत ही संवेदनशील मुद्दे पर है। इस तरह की घटनाओं के बारे में पढ़ कर लगता है कि हम अभी भी सभ्य समाज के नागरिक होने के बजाय बर्बर ही हैं। साक्षरता का प्रतिशत बढ़ने के बाद भी, पश्चिमी देशों के साथ तरक्की की तुलना के बीच किसी महिला को डायन बता कर मार देना, दंगों में महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार करना, परिवार में किसी सदस्य से बदला लेने के लिए उस परिवार की महिलाओं पर अत्याचार करना बताता है कि हमें सभ्य होने में अभी बहुत समय लगेगा। किसी कन्या को भोजना कराना और स्‍त्री को देवी मान लेना एकदम अलग तरह की बातें हैं। स्त्री को मनुष्य मानना हम सभी का पहला कर्तव्य होना चाहिए।

रामाधार बैरवा | रोहतक, हरियाणा

Advertisement
Advertisement
Advertisement