हर छवि में अलग
देव आनंद उस दौर के नायक रहे, जब भारत में कई बातें बदल रही थीं। समाज बदल रहा था। आधुनिक हो रहे समाज में भी कहीं न कहीं परंपरा धड़क रही थी। इस बीच दिलीप कुमार और राज कपूर अपने किस्म की फिल्मों में गंभीर विषयों के साथ परदे पर मौजूदगी दर्ज करा रहे थे। इन सबसे अलग देव आनंद ने अपनी अलग छवि गढ़ी और राज कपूर के खिलंदड़पन और दिलीप कुमार की गंभीरता का ऐसा मिश्रण बनाया, जो आज तक दर्शकों के दिमाग पर हावी है। 16 अक्टूबर की आवरण कथा, ‘मायानगरी की देव कथा’ उनकी अभिनय प्रतिभा को खूबसूरत ढंग से उभारती है। देव आनंद जब राजू गाइड बन कर परदे पर आए, तो गाइड लगे, फिल्म के दूसरे भाग में संन्यासी बन कर उन्होंने दर्शकों के मन में स्थायी छवि बना ली। गाइड उनके करिअर की सबसे बेहतरीन फिल्मों में से एक है। देव आनंद की जगह कोई और इस फिल्म में यह भूमिका नहीं निभा सकता था। वह हर रूप में अद्भुत थे।
स्वर्णा मल्होत्रा | पटियाला, पंजाब
कलाकार का मान
आउटलुक के नए अंक में देव आनंद पर आवरण कथा, (16 अक्टूबर, ‘एक सदी का आनंद’) देना अलग सोच का परिणाम है, क्योंकि इसमें एक जोखिम पत्रिका के बिकने पर असर का भी है। नए दौर में जब हर दूसरे दिन एक नया कलाकार परदे पर दिख रहा है, उस दौर में देव आनंद को याद करना दिल को छू गया। नेताओं के जन्मशती वर्ष पर हमारे यहां खूब धूमधाम करने का रिवाज है लेकिन किसी कलाकार को याद करना वाकई मायने रखता है। उनकी फिल्मों को भी थियेटर में दिखाया गया। इसी तरह कलाकार सदियों तक जिंदा रहते हैं। नई उम्र के नौजवान इसी तरह के लेखों, दोबारा दिखाई गई उनकी फिल्मों और आवरण कथाओं से ही जानेंगे कि जब इंटरनेट नहीं था, प्रचार के माध्यम सीमित थे, तब कलाकार अपने काम के दम पर फिल्मों को चला ले जाते थे।
मीनाक्षी राठौर | मथुरा, उत्तर प्रदेश
समर्पण का नाम देव
आउटलुक के 16 अक्टूबर के अंक में, देव आनंद जन्मशती पर ‘हर फिक्र का बोझ उठाता गया’ लेख पसंद आया। देव आनंद ने हमारी पीढ़ी को बहुत प्रभावित किया था। तब तक सिर्फ उनके अभिनय के कायल थे। इस लेख से पता चला कि वे 80 वर्ष की उम्र तक भी फिल्म निर्माण में सक्रिय थे। न सिर्फ सक्रिय थे बल्कि उनमें फिल्म बनाने के लिए ऊर्जा भी नए लोगों की तरह थी। इससे तो सभी सहमत होंगे कि उनकी फिल्म के विषय हमेशा नए होते थे। फॉर्मूला फिल्मों से लगाव का उनका अपना कारण हो सकता है लेकिन यह जोखिम उठाना भी कम बड़ी बात नहीं है। आजकल की ज्यादातर फिल्में बॉक्स ऑफिस पर अच्छी कमाई के लिए ही बनती हैं। उनके बारे में यह जानकर अच्छा लगा कि बॉक्स ऑफिस के बजाय अच्छी फिल्म फिल्म बनाने पर उनका जोर था। यह भी आश्चर्य की बात है कि वे केवल तीन से चार करोड़ रुपये का बजट अपनी फिल्म के लिए रखते थे। उनकी कोशिश नए कलाकारों को मौका देने की होती थी। इन सभी बातों का ज्यादा से ज्यादा प्रचार प्रसार होना चाहिए, ताकि फिल्म उद्योग से जुड़े दूसरे लोग भी उनसे प्रेरणा ले सकें।
सत्यव्रत कादियान | हिसार, हरियाणा
कलाकार की जिम्मेदारी
आउटलुक के 16 अक्टूबर अंक में, ‘हर फिक्र का बोझ उठाता गया’ लेख से पता चला कि एक कलाकार के स्टार बनने की प्रक्रिया क्या होती है। अगर वे इतने लंबे समय तक स्टार रहे, तो यह उनकी प्रतिभा के साथ-साथ व्यक्तित्व भी होगा, जिसने उन्हें इस मुकाम पर पहुंचाया। एक कलाकार को अपनी जिम्मेदारी का एहसास हो इससे बेहतर कुछ नहीं हो सकता। ऐसे ही कलाकार सिनेमा उद्योग को आगे बढ़ाते हैं। सिनेमा की क्षमता को जानना और फिर उस क्षमता में अपनी प्रतिभा मिला देना ही दरअसल असली कलाकार का काम होता है। प्रासंगिक विषयों पर फिल्म बनाना उनका सिर्फ शौक ही नहीं था बल्कि वे समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी भी समझते थे। एक समर्पित कलाकार ही ऐसा कर सकता है कि वह पैसा कमाने के लिए फिल्म न बनाए। वरना हर जगह सिर्फ पैसा कमाने की होड़ है और सब इसी के लिए दौड़ रहे हैं। जब शिक्षा और चिकित्सा जैसे क्षेत्र में भी लोग सिर्फ पैसा बनाने का ख्वाब देखते हैं, ऐसे में देव साहब का पैसों के लिए फिल्में न बनाना आश्चर्य में डाल देता है। काश हिंदी फिल्म उद्योग को ऐसे ज्यादा से ज्यादा कलाकार मिल जाएं, तो यहां भी सार्थक फिल्मों की संख्या बढ़ जाएगी। इसी लेख से पता चला कि उन्हें स्टारडम के बावजूद अपनी फिल्म रिलीज करने में दिक्कत आती थी। आज तो हम यह सोच भी नहीं सकते कि किसी स्टार को अपनी फिल्म रिलीज कराने के लिए परेशानी उठानी पड़े। वह दौर ही अलग था इसलिए तब के कलाकार भी अलग थे। इसके बाद भी उनमें फिल्म बनाने का जज्बा खत्म नहीं हुआ तो यह उनका कला के प्रति प्रेम ही था। ऐसे कलाकार बिरले ही होते हैं। उन पर अंक निकालना उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि है।
सुरेखा रवींद्रन | अंबाला, हरियाणा
गांधी से बड़ा कोई नहीं
आउटलुक के 16 अक्टूबर के अंक में ‘गांधी की स्त्री पलटन’ सराहनीय लेख है। गांधी एक विचार है, यह बहुत बार सुना। लेकिन ऐसा क्यों है यह लेख को पढ़ कर जाना। नारी सशक्तीकरण की बात और बहस के बीच यह जानना बहुत दिलचस्प है कि गांधी ने उस वक्त सार्वजनिक जीवन में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को बढ़ाने में कोई कसर नहीं रखी, जब कोई इसके बारे में सोचता भी नहीं था। आजादी के संघर्ष के साथ ही वह बड़े पैमाने पर महिलाओं को सार्वजनिक जीवन में आगे लाए। महिलाओं को आगे बढ़ाने की ऐसी मिसाल शायद ही कहीं और मिलती हो। 1925 में गुजरात के सोजित्र गांव में महिला सम्मेलन में उन्होंने कहा था, “जब तक देश की स्त्रियां सार्वजनिक जीवन में भाग नहीं लेतीं, देश का उद्धार नहीं हो सकता।” यह क्रांतिकारी वाक्य ही गांधी को सबसे अलग बनाता है। आज का कोई नेता उनके पासंग नहीं बैठता। उनकी प्रेरणा से सार्वजनिक जीवन में आईं महिलाओं में चर्चित नामों की संख्या हजारों में है। देश ही नहीं, यूरोप की कई महिलाएं भी गांधी की दीवानी बनीं और भारत को अपना सब कुछ मान लिया। देश का तो शायद ही कोई इलाका अछूता हो, जहां से गांधी की महिला फौज नहीं उभरी। आजादी के बाद भी देश में संस्थाओं के निर्माण और राजनीति में आमजन को ऊपर रखने में उनका योगदान बेमिसाल है। जिन महिलाओं के बारे में आपने लिखा है, वह गांधी की प्रेरणा और उनकी सोच की व्यापकता को दर्शाते हैं। आज जो भी लोग उन्हें खारिज करते हैं या खारिज करने की कोशिश में लगे रहते हैं उन्हें इन महिलाओं के किस्सों को एक बार जरूर पढ़ना चाहिए। तभी ऐसे लोग जान पाएंगे कि गांधी की हस्ती को मिटाना इतना आसान नहीं।
सुचेता मेघानी | जयपुर, राजस्थान
हिंद स्वराज की प्रासंगिकता
आउटलुक के 16 अक्टूबर अंक में प्रकाशित, ‘हिंद स्वराज में आर्थिक तानाशाही’ से मनुष्य को बचाने के नुस्खे समीक्षावादी लेख था। लेख के माध्यम से आज के संदर्भ में महात्मा गांधी द्वारा लिखित पुस्तक हिंद स्वराज की प्रासंगिकता को दर्शाया गया है। किस तरह महात्मा गांधी ने इस पुस्तक में आधुनिकता और औद्योगिककरण के आज के संदर्भ में प्रस्तुति दी थी। आज के युग में भी जब वैश्वीकरण और भौतिकवादी आधारों को मजबूती देते हुए पूंजीवादी व्यवस्था को आधार माना जा रहा है, ऐसे में महात्मा गांधी की पुस्तक हिंद स्वराज्य का महत्व और भी बढ़ जाता है। महात्मा गांधी का दिया हुआ स्वदेशी और आत्मनिर्भरता का सिद्धांत कहीं न कहीं पूंजीवादी व्यवस्था के विकल्प के तौर पर देखा जा सकता है। आज विश्व के सामने पर्यावरण बड़ी चुनौती बन कर उभरा है। ऐसे में गांधीवादी सिद्धांत कहीं न कहीं पर्यावरण के संरक्षण और उससे जुड़े मुद्दों को परिभाषित करता है। आजकल गांधी को अप्रासंगिक करने की जो कवायदें चल रही हैं, उन लोगों को यह लेख पढ़ कर गांधी के विचारों की रेंज को समझना चाहिए।
विजय किशोर तिवारी | नई दिल्ली
उम्दा संदेश
16 अक्टूबर के अंक में, ‘शिक्षक शाहरुख खान’ लेख अच्छा लगा। जवान फिल्म भारतीय सेना से लेकर देश के किसानों तक की बात करती है। इसलिए इस फिल्म को कर मुक्त होना चाहिए था, लेकिन शायद सियासत ने ऐसा होने नहीं दिया। फिल्म में समाज के उत्थान की सकारात्मक बातें हैं और साथ ही शाहरुख का हर अंदाज लाजवाब है। कहानी एकदम भारतीय है और इसके हर मोड़ पर दर्शक तालियां पीटने को मजबूर हो जाते हैं। इस फिल्म में शाहरुख खान ने और भी बहुत कुछ कहा है। देश की मौजूदा राजनीति पर सजग निर्माता, बेहतरीन निर्देशक और सुलझे हुए अभिनेता ने शानदार समाज बनाने का जो सुझाव दिया है, उस पर अमल हो तो कुछ बात बने।
डॉ. पूनम पांडे | अजमेर, राजस्थान
पुरस्कृत पत्र: आनंद का मतलब
देव आनंद होने का मतलब वही समझ सकता है, जिसने उस जादू को परदे पर उतरते देखा हो। यह बहुत अच्छा रहा कि नई पीढ़ी के लिए उनकी फिल्मों का फिर प्रदर्शन हुआ। उनकी अदा में भी सादगी थी और यही सादगी उनकी शैली बन गई। न मुंह बना कर संवाद बोलना, न कोई तकिया कलाम। बस कैमरे के आगे आना और सबको अपना बना लेना। यह देव आनंद ही कर सकते थे कि परदे पर भी राज कर लें और अपना स्टैंड कायम कर लोगों के दिल पर भी। इमरजेंसी के दौर में उनके बोलने में भी स्पष्ट संदेश था। एक कलाकार को इतना ही ईमानदार और संवेदनशील होना चाहिए, जो कि वे थे और आजीवन वे वैसे ही बने रहे (16 अक्टूबर, ‘मायानगरी की देव कथा’)।
कशिश मेहरा | नई दिल्ली
आपकी यादों का शहर
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