Advertisement
5 फरवरी 2024 · FEB 05 , 2024

पत्र संपादक के नाम

पाठको की चिट्ठियां
पिछले अंक पर आई प्रतिक्रियाएं

मुकदमे से क्या सुलझेगा

22 जनवरी की आवरण कथा, ‘लाइक्स की लत’ हमेशा ही प्रासंगिक रहेगी। दुनिया का हर देश इस संकट से जूझ रहा है। पहले जिसे विज्ञान का चमत्कार माना गया, वही आज अभिशाप बन कर लोगों को डरा रहा है। सोशल मीडिया खबरों की दुनिया में भी आतंक मचा रहा है। इस लेख से ही पता चला कि अमेरिका में 30 से ज्यादा प्रांतों ने इंस्टाग्राम और उसकी मूल निर्माता कंपनी मेटा के खिलाफ मुकदमा दर्ज करवाया है। सोशल मीडिया मंचों ने किशोरों को उसकी लत लगा दी है, यह कोई नई बात नहीं है। ये माध्यम युवाओं की मानसिक सेहत पर भी नकारात्मक असर डाल रहा है। लेकिन देखा जाए, तो इसके लिए अभिभावक भी जिम्मेदार हैं। माता-पिता खुद मोबाइल में व्यस्त रहते हैं तो फिर वे बच्चों से कैसे उम्मीद करते हैं कि वे इस लत से दूर रहें। फोन का उपयोग इतना बढ़ गया है कि लोग बिना काम के भी एक-दूसरे से घंटों बतियाते रहते हैं। बाकी बचे समय में फेसबुक, इंस्टाग्राम, वॉट्स ऐप, टिंडर जैसी बीमारियां तो हैं ही। कैलिफोर्निया के ओकलैंड में भले ही ऐसा पहला मुकदमा दर्ज हुआ हो लेकिन इससे मेटा और उसकी कंपनी फेसबुक की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ने वाला है। जब तक लोग खुद ही इससे दूरी नहीं बनाएंगे, सोशल मीडिया ऐसे ही दिमाग पर हावी रहेगा। इस माध्यम पर हर तरह की अति है, जिससे लोगों को इसकी जल्दी आदत पड़ जाती है।

जया तिवारी | डाला, उत्तर प्रदेश

 

हर दिमाग में कचरा

22 जनवरी की आवरण कथा, ‘लाइक्स की लत’ पढ़ी। लत का मतलब ही है कि हम इसकी गिरफ्त में आ चुके हैं। पहले हमारे देश के में शराब, सिगरेट, ड्रग्स की लत पर बात होती थी अब सोशल मीडिया की लत पर बात होती है। सोचिए क्या तरक्की की है हम लोगों ने! यह लत ऐसी भी नहीं कि छोड़ी न जा सके। दरअसल अब लोगों ने कुछ भी रचनात्मक करना बंद कर दिया है। इस लत के पीछे भारी ज्ञान अर्जित करने और उसे बांटने की जल्दबाजी भी है। सब कुछ रेडिमेड है। बस एक फॉर्वर्ड का बटन दबाओ और दुनिया के किसी भी कोने में कचरा फेंक दो। इस लत को छोड़ने के लिए स्मार्ट फोन को बस फोन की तरह इस्तेमाल करना होगा। अपने फोन से ऐसे सारे ऐप्स को हटा कर बहुत हद तक इस पर काबू पाया जा सकता है। लेकिन अब बात बहुत आगे जा चुकी है। हर वर्ग के लिए यहां मनोरंजन के लिए कुछ न कुछ है। जनता इससे मनोरंजन कर रही है और राजनीतिक दल इस मनोरंजन में सेंध लगाकर इसी माध्यम से लोगों के दिमाग को कब्जे में ले रहे हैं। 

आर.एस.अग्निहोत्री | शाहजहांपुर, उत्तर प्रदेश

 

छूटना आसान नहीं

आउटलुक की आवरण कथा पढ़ कर एक बात समझ आई कि यहां बात सिर्फ लत की नहीं है। बात समय खराब करने की है। आज की पीढ़ी का प्रिय शगल समय खराब करना है। 22 जनवरी की आवरण कथा में हालांकि राजनैतिक कारणों, इतिहास, इस माध्यम से देशों के राष्ट्राध्यक्षों द्वारा दुरुपयोग की जानकारी भी दी गई है लेकिन मूल रूप से यह व्यक्तिगत अनुशासन का मसला ज्यादा है। हर हाथ मोबाइल देख कर कभी-कभी तो लगता है कि इससे छुटकारा पाने के लिए एक बड़े आंदोलन की जरूरत है। इसमें बुद्धिजीवी, धार्मिक गुरु, तरह-तरह के ज्ञान बांटने वाले मोटिवेशनल स्पीकर सभी को जोर लगाकर एक मंच पर आना होगा।

कमलेश श्रीवास्तव | लखनऊ, उत्तर प्रदेश

 

लाइलाज बीमारी

आउटलुक की 22 जनवरी की आवरण कथा, ‘लाइक्स की लत’ बहुत ही ज्वलंत मुद्दे पर है। यह ऐसा नशा है, जिससे वाकिफ तो सभी लोग हैं लेकिन इसे छोड़ने का तरीका किसी को भी नहीं मालूम है। सोशल मीडिया की लत सभी को लग चुकी है। इस लत में हर उम्र के लोग शामिल हैं। सोशल मीडिया से समय तो खराब हो ही रहा है, साथ ही इसके माध्यम से कई सामाजिक बुराइयां भी हमारे समाज में आ रही हैं। सोशल मीडिया मौजूदा समय में संचार तकनीक की बड़ी उपलब्धि है लेकिन इसे समझदारी से इस्तेमाल न करने की वजह से इस माध्यम से हमारे व्यक्तिगत जीवन में काफी हस्तक्षेप बढ़ता जा रहा है। इसकी वजह से कई पारिवारिक समस्याएं होने से भी कोई इनकार नहीं कर सकता। कई मुसीबतों के पीछे इसकी भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। सोशल मीडिया से जुड़े रहना गलत नहीं है लेकिन इसकी लत गलत है। इसे सभी को समझना होगा।

विजय किशोर तिवारी | नई दिल्ली

 

खतरनाक व्यवस्था

22 जनवरी के अंक में, ‘लोकतंत्र पर नियंत्रण’ लेख बड़ी चिंता की ओर इशारा करता है। यह स्थिति ही कितनी डरावनी है कि चंद वेबसाइट्स या सोशल मीडिया के माध्यम से न केवल व्यक्ति बल्कि पूरा देश नियंत्रण में आ जाए। किसी का दिमाग नियंत्रण में आ जाए, तो क्या नहीं किया जा सकता। कैलिफोर्निया स्थित अमेरिकन इंस्टिट्यूट फॉर बिहेवियरल रिसर्च ऐंड टेक्नोलॉजी में सीनियर रिसर्च साइकोलॉजिस्ट रॉबर्ट एप्सटीन 2014 के आम चुनाव में वह एक सर्वे भारत आकर कर चुके हैं। शोधकर्ताओं की एक टीम लेकर भारत आए एप्सटीन ने सर्च इंजन की मार्फत लोगों की पसंद बदल दी। यह कितना खतरनाक है। इस बात का क्या भरोसा कि उसके बाद चुनावों में ऐसा प्रयोग नहीं किया गया होगा या लोगों के दिमाग पर नियंत्रण कर चुनाव के परिणाम नहीं बदले गए होंगे। सरकार इस तरह से बनने लगेंगी, तो वैसे मतदाता कहां जाएंगे, जो सरकार बदलने और एक ही व्यक्ति द्वारा हाइजैक कर लिए गए तंत्र में बदलाव की बाट जोह रहा है। मूल प्रश्न तो यह है कि जब सरकारें ही इस खेल में शामिल हैं, तो फिर ऐसी खतरनाक प्रक्रिया पर रोक कौन लगाएगा। भारत में तो कई बार आशंका जताई जा चुकी है कि चुनाव नियंत्रित हैं।

के. मूर्ति | मुंबई, महाराष्ट्र

 

सब कुछ नियंत्रण में

22 जनवरी के अंक में, ‘लोकतंत्र पर नियंत्रण’ से सर्च इंजन मैनिपुलेशन एफेक्ट (एसईएमई या सीम) का पता चला। भारत सहित कुल पांच देशों के चुनावों से ठीक पहले इसके मार्फत प्रयोग किए गए थे। बाकायदा इन प्रयोगों के बारे में प्रोसीडिंग्स‍ ऑफ द नेशनल अकेडमी ऑफ साइंसेज में छपा भी है। यह पढ़ कर ही डर लगता है कि सर्च इंजन को मैनिपुलेट कर पैदा किया जाने वाला प्रभाव सबमिनिमल स्टिमुली (संक्षिप्त संदेशों का कम अवधि के लिए प्रसार) के मुकाबले कहीं ज्यादा घातक और व्यापक होता है। अब कहीं भी कुछ भी वास्तविक नहीं है। सब कुछ मशीनों के नियंत्रण में है। यह सब हो रहा है, रोज हो रहा है, हमें इसका अंदेशा भी है लेकिन हम कुछ नहीं कर सकते। इन खेलों में कई देशों की सरकारी मशीनरी लगी हुई है, तो शिकायत किससे की जाए। गूगल का सर्च इंजन पर अब निर्भरता इतनी बढ़ गई है कि इसके बिना काम ही नहीं चलता। हर मर्ज की दवा यह सर्च इंजन बन गया है। खाने से लेकर कपड़ों तक, किताबों से लेकर किसी व्यक्ति की जानकारी तक, हर चीज हम गूगल पर ही खोज रहे हैं। ऐसे में हमारी पसंद, नापसंद के बारे में भला इससे ज्यादा और किसे मालूम होगा। सोचिए जब पूरी दुनिया में 90 फीसदी ऑनलाइन सर्च गूगल पर ही किया जाता हो, तो उनके पास मौजूद डेटा का अंदाजा लगाया जा सकता है। लगता है, अब गूगल ही हमारा भविष्य तय करेगा।

मोनिका यादव | सासाराम, बिहार

 

करदाता के पैसे का दुरुपयोग

आउटलुक के 8 जनवरी के अंक में, ‘धीरज का कारू खजाना’ पढ़ कर विस्मित ही हुआ जा सकता है। भारत जैसे देश में जहां, गरीबी का रोना रोया जाता है, वहां किसी नेता के घर से 350 करोड़ रुपये से अधिक बरामद होते हैं। अगर भारत में भ्रष्टाचार खत्म हो जाए, तो कई विकास के कार्य सुचारु और तेज गति से चल सकते हैं। लेकिन जब भ्रष्टाचार के ऐसे मामले खुलते हैं, तो मन बुझ जाता है। इतना भी क्या धन रखना कि नकद की गिनती के वक्त मशीन ही बंद हो जाए। झारखंड से कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य धीरज साहू पर पार्टी ने एक शब्द भी नहीं बोला और अपना पल्ला झाड़ लिया। यही कांग्रेस ईडी को लेकर हमेशा हमलावर होती रही है। यह किसी भी पार्टी को नहीं भूलना चाहिए कि कोई भी नेता या जनप्रतिनिधि यदि किसी दल से जुड़ा है, तो पार्टी के खाते में ही वह भ्रष्टाचार गिना जाता है। आरोप-प्रत्यारोप तो चलते रहते हैं, लेकिन जनता के पैसे का ऐसा दुरपयोग बंद होना चाहिए।

मीना धानिया | नई दिल्ली

 

उचित मूल्यांकन

आउटलुक की 8 जनवरी की आवरण कथा, ‘इन नायकों को गैर-बराबरी की सुरंग से कौन निकालेगा?’ संपादकीय दायित्व की आभा लिए थी । अन्यथा मजदूरों को मुखपृष्ठ पर कौन जगह देता है। इन 12 योद्धाओं ने जिस तरह 41 मजदूरों का जीवन बचाया, वह अद्भुत है। ये लोग सच्चे अर्थ में नायक हैं। इन लोगों को ‘रैट माइनर्स’ कहना कितना गलत है। हर समझदार व्यक्ति को इस शब्द पर आपत्ति होना चाहिए। उनके साहस का ऐसा आकलन सर्वथा अनुचित है। लेकिन आउटलुक की संपादीकय टीम ने उनकी शौर्य कथा कहकर, उन्हें जो अमरत्व प्रदान किया वह बहुत ही सराहनीय है। काश! उनकी वीरता का उचित मूल्यांकन होता।

राजू मेहता | जोधपुर, राजस्थान

 

पुरस्कृत पत्र: हर नशा बेकार

लाइक के नशे के आगे सब कुछ बेकार है। 22 जनवरी की आवरण कथा, ‘लाइक्स की लत’ के बारे में हर बार विशेषज्ञ चेता रहे हैं लेकिन इससे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता है। हर दिन तकनीक नया रूप ले लेती है। हर दिन कोई सोशल मीडिया पर कोई नया प्लेटफॉर्म आ जाता है और वह पहले वाले से भी ज्यादा लोकप्रिय हो जाता है। इसके आगे हर तरह का नशा बेकार है। एक पोस्ट या फोटो डालने के बाद लाइक और कमेंट्स देखने की इतनी आतुरता रहती है कि उसके आगे प्रेमी या प्रेमिका को देखने की ललक भी फीकी लगती है। इसके चक्कर में लोग अच्छी खासी चल रही अपनी जिंदगी को भी बेकार समझने लगते हैं। इन ‘नशे’ ने हर उम्र के लोगों को गिरफ्त में ले रखा है।

प्रेरणा देसाई | मुंबई, महाराष्ट्र

Advertisement
Advertisement
Advertisement