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18 मार्च 2023 · MAR 18 , 2024

पत्र संपादक के नाम

पाठको की चिट्ठियां
पिछले अंक पर आई प्रतिक्रियाएं

वर्दीधारी मास्टर

4 मार्च की आवरण कथा, ‘तालीम के सिपाही’ पुलिस की अलग छवि पेश करती है। यह कितनी सकारात्मक बात है कि जिन जगहों पर लोग शिक्षा के प्रति उदासीन हैं, वहां वर्दीधारी शिक्षा का अलख जगा रहे हैं। दिल्ली के कॉन्स्टेबल थान सिंह, राजस्थान के धर्मवीर जाखड़ और मध्य प्रदेश के सब इंस्पेक्टर भखत सिंह ठाकुर के बारे में जान कर बहुत अच्छा लगा। कॉन्सटेबल स्तर पर काम और कम वेतन को लेकर इन लोगों में इतनी कुंठा भर जाती है कि ये कुछ भी अच्छा नहीं करना चाहते। लेकिन यदि इस स्तर के पुलिसवाले शिक्षा का महत्व समझ रहे हैं, तो इससे अच्छा कुछ नहीं हो सकता। इस लेख को पढ़ कर लगा कि यदि पिछड़े क्षेत्रों में पुलिस वाकई थोड़ा सामाजिक काम कर ले या जिम्मेदारी ले ले, तो अपराध में भी कमी आ सकती है। मध्य प्रदेश के पन्ना जिले के सब-इंस्पेक्टर भखत सिंह ने अपना पहला पेशा याद रखा यह भी प्रशंसनीय है। वरना अच्छे-पढ़े लिखे लोग भी पढ़ाने के काम को दोयम दर्जे का मानते हैं। लेकिन भखत को अपने पहले पेशे से कितना प्यार रहा होगा कि पुलिस में भर्ती होने के बाद भी वे दंबगई करने के बजाय छात्रों की मदद करने लगे।

प्रवेश शुक्ला | जोधपुर, राजस्थान

अनूठी पत्रिका

आउटलुक ने एक बार फिर साबित किया कि यह पत्रिका अन्य पत्रिकाओं से कितनी अलग है। आउटलुक विषभरी राजनीतिक खबरों, ऊलजलूल नेताओं के भाषण के बजाय सार्थक रिपोर्ट छापती है। इस बार के अंक (4 मार्च, ‘तालीम के सिपाही’) को पढ़ कर लगा कि संपादकीय विवेक हो, तो ऐसी आवरण कथाएं भी बन सकती हैं। पुलिस की छवि के लिए ऐसे लेख कितने जरूरी हैं, यह वही जानता है, जिसे पुलिस बस भ्रष्ट ही दिखाई देती है। खाकी वर्दी का ऐसा खौफ रहता है कि एकबारगी तो पढ़ कर यकीन ही नहीं हुआ कि मददगार आइपीएस अफसरों के निजी अनुभवों ने इस लेख की विश्वसनीयता को और बढ़ाया।

सुमन महंत | देवास, मध्य प्रदेश

नई राह

आउटलुक की 4 मार्च की आवरण कथा, ‘तालीम के सिपाही’ असली मार्गदर्शकों की कथा है। हर बच्चे को ऐसे ‘मास्टर’ मिलने चाहिए, जो उनकी राह आसान कर दें। यह भी विडंबना है कि अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज और शोधकर्ता परन अमिताभ एक रिपोर्ट तैयार करते हैं और उससे पता चलता है कि झारखंड के अधिकांश स्कूल शिक्षकों की गंभीर कमी का सामना कर रहे हैं। इस पर न राज्य सरकार का ध्यान जाता है, न केंद्र का। और इस कमी को पूरा कौन कर रहा है, ऐसे लोग जिनका काम पढ़ाना है ही नहीं। भारत के अधिकतर स्कूलों में शौचालय, बिजली और पानी नहीं होता। लड़कियां शौचालय की कमी के कारण स्कूल जाना छोड़ देती हैं। लेकिन भारत में छात्रों की संख्या में गिरावट को भी सामान्य ढंग से लिया जाता है। ऐसे में चंद पुलिसवाले वाकई आशा की किरण हैं। पर सबसे पड़ा प्रश्न तो बच्चों की प्राथमिक शिक्षा का है, क्योंकि दसवीं बारहवीं के बच्चों को पढ़ाने का जिम्मा इन पुलिस वालों ने लिया है। लेकिन कई बच्चे होंगे, जो अभाव के कारण प्राथमिक शिक्षा के दायरे से ही बाहर हो गए होंगे। बिहार में तो सरकारी प्राथमिक स्कूलों की हालत वाकई खराब है। बिहार की शिक्षिका की बात भी गौर करने लायक है कि पहले राज्य में प्राइमरी एजुकेशन अच्छी स्थिति में थी, लेकिन कॉन्ट्रैक्ट सिस्टम लागू होने से यह नष्ट हो गया है। जबकि प्राइमरी एजुकेशन सबसे ज्यादा जरूरी है। अगर ऐसे ही कुछ और पुलिसवाले प्रायमरी एजुकेशन पर भी ध्यान दें, तो बहुत अच्छा हो।

साधना | दरभंगा, बिहार

प्रावधान स्पष्ट नहीं

4 मार्च के अंक में, ‘समान संहिता पर संदेह’ पूरी तरह राजनीतिक स्टंट है। सवाल यह है कि इसे लागू कर किसे फायदा हो रहा है। इसे उत्तराखंड में लागू कर सरकार क्या साबित करना चाहती है। वहां पर भी लागू होने के बाद संशय की स्थिति है। कहीं भी कुछ भी साफ नहीं है। सभी बड़े राजनीतिक विश्लेषक मान रहे हैं कि यह वोट की राजनीति से ज्यादा कुछ नहीं है। उत्तराखंड में भी समान संहिता के कई प्रावधान स्पष्ट नहीं हैं। सीधे-सीधे तौर पर यह एक वर्ग को लक्ष्य करने के लिए लाया गया है और इसका मंतव्य अंतर धार्मिक जोड़ो की गिनती और उनकी निगरानी करना है।

चारू पटवारी | जबलपुर, मध्य प्रदेश

क्रिकेट की राजनीति

आउटलुक के 19 फरवरी अंक में, ‘पैसे, पॉलिटिक्स की फिरकी’ क्रिकेट से जुड़ा अच्छा लेख था। क्रिकेट को जेंटलमैन का खेल कहा जाता है लेकिन भारतीय क्रिकेट में खिलाड़ियों के चयन में सज्जनता नहीं चलती। कई बार बिना किसी नियम के खिलाड़ी को ले लिया जाता है। यह जानकर आश्चर्य हुआ कि आराम का नियम सभी खिलाड़ियों के लिए एक जैसे नहीं हैं। विराट कोहली और रोहित शर्मा जैसे खिलाड़ी अगर आराम के लिए कुछ मैचों में न खेलें, तो कोई फर्क नहीं पड़ता। न खेलने पर भी बीसीसीआइ और चयनकर्ताओं का आशीर्वाद उन पर बना रहता है। लेकिन यदि ईशान किशन जैसे उभरते खिलाड़ी एक मैच में आराम करना चाहें, तो उसे टीम से गायब ही कर दिया जाता है। खेल में राजनीति हो तो इससे खेल भी खराब होता है और खिलाड़ी भी। सीनियर खिलाड़ियों को इसके खिलाफ बोलना ही चाहिए। यही अच्छे खिलाड़ी की निशानी है।

विजय किशोर तिवारी | नई दिल्ली

दूरदर्शी नेता

19 फरवरी की आवरण कथा, ‘नीतीश का पंछी मन’ में सूरदास की पंक्तियां “मेरा मन अनत कहां सुख पावै, जैसे उड़ि जहाज कौ पंछी पुनि जहाज पै आवै” के माध्यम से नीतीश के चरित्र का अच्छी तरह निरूपण किया है। नीतीश को हम भले ही पलटूराम जैसे संबोधनों से पुकारें पर यह तो मानना पड़ेगा कि वे हैं बड़े दूरदर्शी। वे वक्त की चाल भी बखूबी पहचानते हैं इसलिए ठीक समय पर पाला बदल लेते हैं। नौंवी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेना कोई हंसी-खेल नहीं है। एक बार फिर भाजपा के पाले में जाकर उन्होंने सच में लालू कुनबे के लिए ‘खेला होबे’ कर डाला।

रावेल पुष्प | कोलकाता, पश्चिम बंगाल

बहुसंख्यक की आस्था

आउटलुक के 5 फरवरी अंक की आवरण कथा, ‘अयोध्या राम राजनीति लीला’ पढ़कर लगा कि राम मंदिर को लेकर एक वर्ग अभी भी मानने को तैयार नहीं है कि मंदिर बन गया है। जन जन के नायक, आराध्य, प्रेरक मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम बाल रूप में विराजमान हो गए हैं। लेकिन देश में कुछ ऐसे लोग भी हैं जिन्हें भव्यता के साथ यह सब होना रास नहीं आ रहा है और वे अनर्गल प्रलाप कर रहे है। वोट के लालच में कुछ पार्टियां बेकार की बयानबाजी कर रही हैं, इससे उन्हें बचना चाहिए। उन्हें मान लेना चाहिए कि बहुसंख्यक जनता की आस्था राम के साथ है। बेहतर हो ऐसी पार्टियां और नेता जल्द से जल्द वास्तविकता स्वीकार कर लें।

शैलेंद्र कुमार चतुर्वेदी | फिरोजाबाद, उत्तर प्रदेश

पुरस्कृत पत्र: सच्चे मार्गदर्शक

4 मार्च की आवरण कथा, ‘तालीम के सिपाही’ पढ़कर मन पुरानी यादों में खो गया। मेरे बचपन में खाकी वर्दी डराने के लिए काम आती थी। यह डर मेरे अंदर इतना गहरा बैठा कि बरसों बरस मन में छाया रहा। यह लेख पढ़कर मन में बहुत सुकून हुआ कि पुलिस वाले शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रहे हैं। दूसरे देशों का तो नहीं पता लेकिन भारत में पुलिस वालों पर भरोसा करना बहुत कठिन होता है। ऐसे और लेख आते रहना चाहिए, ताकि पुलिस वालों की छवि बदले और लोगों के मन में भरोसा जागे कि वर्दीवाले वास्तव में उनके रखवाले हैं। आइपीएस बन जाने के बाद इन लोगों में जरा घमंड नहीं है, बल्कि ये बच्चों की पढ़ाई के लिए दृढ़ संकल्पित हैं, यह बात उन्हें अलग बनाती है।

चंदन दास | चाईबासा, झारखंड

 

 

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