Advertisement

पत्र संपादक के नाम

पाठको की चिट्ठियां
पिछले अंक पर आई प्रतिक्रियाएं

सब एक जैसे

18 मार्च के अंक में आवरण कथा, ‘बॉन्डनामा’ पढ़ी। चुनावी बॉन्ड को लेकर जैसे सवाल उठ रहे थे, उसे देखते हुए इस पर आश्चर्य नहीं कि सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने इस योजना को असंवैधानिक करार दिया। इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा कि जब सुप्रीम कोर्ट में पारदर्शिता को लेकर सवाल उठता था तो सरकार की ओर से यह विचित्र तर्क दिया गया कि नागरिकों को राजनीतिक चंदे का स्रोत जानने का अधिकार नहीं। आखिर इस जरूरी जानकारी को सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर रखने का क्या औचित्य है? सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद यह कहना कठिन है कि चुनावी चंदे की कोई पारदर्शी व्यवस्था बन पाए। लेकिन यह समय की मांग है कि जनता को यह पता चले कि राजनीतिक दलों को कौन कितना चंदा दे रहा है। देश के छोटे-बड़े उद्योगपति जाने कब से राजनीतिक दलों को चंदा देते आ रहे हैं। यह मानने का कोई कारण नहीं कि उद्योगपति गोपनीय तरीके से ही चुनावी चंदा देना पसंद करते हैं। भारतीय लोकतंत्र की भलाई के लिए चुनावी चंदे की प्रक्रिया को साफ-सुथरा बनाना और राजनीति में कालेधन का इस्तेमाल रोकना आवश्यक है। इसमें विपक्ष को भी सहयोग देना होगा। विपक्ष यह कहकर अपनी पीठ नहीं थपथपा सकता कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले से उसकी जीत हुई, क्योंकि एक तथ्य यह भी है कि केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा की तरह राज्यों में शासन कर रहे  अन्य दल भी चुनावी बॉन्ड हासिल करने के मामले में साफ-सुथरे नहीं हैं।

शैलेन्द्र कुमार चतुर्वेदी | फिरोजाबाद, उत्तर प्रदेश

 

चंदे में शुचिता

18 मार्च के अंक में, आवरण कथा ‘बॉन्डनामा' पढ़ी। चुनाव में काले धन का प्रयोग रोकने के नाम पर बनी गोपनीय चुनावी बॉन्ड योजना शुरू से ही विवादास्पद थी। योजना पर चुनाव आयोग और आरबीआइ की चिंताओं को दरकिनार करते हुए सरकार ने इसे लागू किया। सबसे ज्यादा इसका फायदा भाजपा ने उठाया। वैसे, चुनावी बॉन्ड शुरू से ही शक के दायरे में रहा है। किसी को पता नहीं चलता कि कौन व्यक्ति किस पार्टी में कितना चंदा दे रहा है। ये योजना पूरी तौर पर राजनीतिक फंडिंग है और इसका दुरुपयोग ही होता है। कांग्रेस ने 2019 के घोषणा पत्र में चुनावी बॉन्ड योजना खत्म करने का वादा भी किया था। अब सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बॉन्ड योजना को असंवैधानिक घोषित कर दिया है तो सरकार चाहे तो इसे अधिक पारदर्शी बना कर राजनीतिक चंदे में शुचिता लाने की कोशिश कर सकती है।

बृजेश माथुर | गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश

 

गोपनीय माननीय

चुनावी बॉन्ड के आने और सुप्रीम कोर्ट द्वारा इसे रद्द करने के बीच चुनावी बॉन्ड ने लंबी यात्रा की है। (आवरण कथा, बॉन्डनामा, 18 मार्च) इस बीच भारतीय जनता पार्टी ने इसके जरिये अच्छा-खासा पैसा कमा लिया है, जो उसे हर चुनाव में काम आता है। बड़े चुनाव सुधार की तरह पेश की गई इस योजना का हश्र बहुत बुरा हुआ है। पारदर्शिता तो इससे कितनी आई, यह सभी को पता है। लेकिन जब अरुण जेटली ने इसे राजनीति में काले धन का प्रवाह रोकने का भी साधन बताया था, तब भी इस दावे पर सवाल उठे थे। अब देखना यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसले में जिस चुनावी बॉन्ड योजना को ‘असंवैधानिक’ करार दिया है, उसके बाद सरकार क्या कदम उठाती है। पैसे देने वाले इतनी गोपनीयता आखिर चाहते क्यों हैं।

जी. के. सारस्वत | टोंक, राजस्‍थान

 

आइए कि स्वागत है

जिस तरह से हर पार्टी के नेता भारतीय जनता पार्टी में समाते जा रहे हैं, उससे लगता है कि भाजपा को अपनी टैग लाइन, ‘कुछ दिन तो गुजारिए भाजपा में’ कर देना चाहिए। 18 मार्च के अंक में, ‘गए, गए, नहीं गए नाथ’ लोकतंत्र में दल-बदल के तमाशे को बखूबी जाहिर करता है। अब जिस पार्टी के नेता को देखो, भाजपा में डुबकी लगाने को तैयार है। कमलनाथ इतने पुराने कांग्रेसी नेता हैं लेकिन सत्ता में बने रहने का लोभ उनसे भी नहीं संभला। यह अलग बात है कि किसी कारण से उनकी वहां बात नहीं बनी, लेकिन जाने की खबर से ही उनकी भद तो पिटी ही। कांग्रेस अपने वरिष्ठ नेताओं के प्रति इतनी उदासीन बनी रहती है कि नेताओं को भी लगने लगा है कि पार्टी से दूरी बना लेने में ही भलाई है। पता नहीं कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व अपने नेताओं का मूल्य कब समझेगा।

कोमल चौधरी | जींद, हरियाणा

 

वरिष्ठों को संभालो

18 मार्च के अंक में, ‘गए, गए, नहीं गए नाथ’ कांग्रेस की कमजोरी को दिखाता है। कांग्रेस अपने वरिष्ठ नेताओं को असंतुष्ट रहने का पूरा इंतजाम करती है। कभी-कभी तो लगता है कि पार्टी खुद ही चाहती है कि सभी वरिष्ठ खुद ही पार्टी छोड़ दें। मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद कितने ही कांग्रेस नेता हैं, जिन्होंने पार्टी छोड़ दी है। आखिर पार्टी चाहती क्या है, किसी को कुछ पता नहीं चलता। अगर कमलनाथ भी पार्टी छोड़ देते हैं, तो यह पार्टी से जुड़े हर कार्यकर्ता की हार होगी।

सुंदर आहूजा | ग्वालियर, मध्य प्रदेश

 

यशगाथा

आउटलुक के 18 मार्च अंक में, ‘बल्ले का यश’ अच्छा लेख है। यशस्वी जायसवाल सच में भारतीय क्रिकेट के भविष्य के सितारे हैं। आइपीएल से लेकर टेस्ट मैचों तक यशस्वी जायसवाल की प्रतिभा सभी टूर्नामेंट में दिखाई दी है। उनको खेलते हुए देखकर ऐसा लगता है मानो वे सहवाग और विराट का मिश्रण हों। यशस्वी जायसवाल ने अपने खेल के माध्यम से क्रिकेट प्रेमियों को एक तरह की आश्वस्ति दी है। मौजूदा समय में वे सिर्फ एक क्रिकेट सितारे के रूप में ही नहीं बल्कि ऐसे खिलाड़ी के रूप में उभर कर सामने आए हैं जिन्होंने, जीवन के संघर्ष रूपी बाउंसर पर छक्का लगाया है। उनका खेल और संघर्ष दूसरे खिलाड़ियों के लिए किसी प्रेरणा से कम नही है।

विजय किशोर तिवारी | नई दिल्ली

 

बदली पहचान

‘वर्दी वाले माटसाब’ (आवरण कथा, 4 मार्च) इसलिए महत्वपूर्ण लगा क्योंकि शिक्षकों का काम पुलिस कर रही है। पहली नजर से यह अजीब सा लगता है कि पुलिस पढ़ाने का काम कर रही है। क्योंकि अगर शिक्षक का काम पुलिस करेगी तो क्या पुलिस का काम शिक्षक करेंगे? यह आवरण कथा पुलिस के जीवन के कई पहलुओं को छूती है। लेख में मौजूद सभी पुलिसवालों की बात पढ़कर लगा कि अगर दिल में जूनून हो, तो आप समाज सेवा के किसी भी पहलू को छू सकते हैं। पुलिस को यह काम करने की नौबत शायद इसलिए आई होगी कि या तो शिक्षकों की संख्या पर्याप्त नहीं है या फिर शिक्षक अपनी जिम्मेदारी ठीक से अदा नहीं कर रहे हैं। जो भी हो, यह अंक वाकई एक नया विषय लेकर आया जिसमें शिक्षा की बातें थीं शिक्षकों के मार्फत नहीं बल्कि पुलिस के मार्फत।

डॉ. विजय मनु पटेल | सूरत, गुजरात

 

सख्त कार्रवाई हो

आउटलुक के 4 मार्च अंक में, ‘दहल उठा हरदा’ ने मन को झकझोर दिया। हरदा हादसे के महज 18 दिनों के बाद 25 फरवरी को सुबह कौशांबी की नई बस्ती भरवारी के निकट स्थित एक पटाखा फैक्ट्री में आग लगने से एक साथ कई विस्फोट हुए और पांच किलोमीटर दूर तक का हिस्सा थर्रा गया। पटाखा फैक्ट्री में इस तरह के हादसे नई बात नहीं है। थोड़े-थोड़े समय के अंतराल में ऐसी घटनाएं होती रहती हैं। फिर भी आश्चर्य कि राज्य सरकारें ऐसी फैक्ट्रियों पर कोई कदम नहीं उठातीं। इस तरह की फैक्ट्रियां लाइसेंस किसी और चीज का लेती हैं और काम कुछ और करती हैं। यह जानकर आश्चर्य हुआ कि हरदा फैक्ट्री अनियमितताओं के कारण बंद कर दी गई थी लेकिन दोबारा वह कैसे शुरू हुई इसकी किसी को जानकारी नहीं है। इन हादसों के बाद केवल मुआवजा बांटना ही सरकार का काम नहीं है। बल्कि पहले से ही सावधानी रखना काम है। मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में हुए हृदयविदारक इन घटनाओं से फैक्ट्री संचालकों और प्रशासनिक अधिकारियों को कड़ी से कड़ी सजा मिलना चाहिए। सख्त कार्रवाई से ही भविष्य में ऐसी घटनाएं नहीं होंगी।

युगल किशोर राही | छपरा, बिहार

 

समानता पर संदेह

आउटलुक के 4 मार्च के अंक में, ‘समान संहिता पर संदेह’ पढ़ा। इसके माध्यम से सरकार ने काम तो अच्छा करने का प्रयास किया है, लेकिन नतीजे ठीक वैसे ही होंगे या नहीं इसमें वाकई संदेह है। बेहतर हो सरकार अभी समान संहिता के बजाय हल्द्वानी जैसी घटनाएं दोबारा न हो, इस पर ध्यान दे, क्योंकि समान संहिता को लाने से पहले सरकार को नागरिकों के साथ संवाद करने, योजनाओं को सकारात्मक रूप से अमल में लाने और प्रशासनिक क्षमता को मजबूत करने की आवश्यकता है। साथ ही सरकार को यह साबित करना होगा की उत्तराखंड में लागू समान संहिता किसी विशेष वर्ग को लक्ष्य कर नहीं बनाया गया है। इस तरह के कानून, जनता में विभेद पैदा करते हैं। लिव इन रिलेशनशिप में रहने वालों को पंजीयन कराना भी समझ से परे है। इससे तो इस तरह के रिश्तों को कानून के दायरे में लाया जा रहा है, जबकि होना यह चाहिए कि ऐसे रिश्तों को तवज्जो ही न दी जाए।  

सुजीत कुमार | पटना, बिहार

 

सिर्फ संख्या

4 मार्च के अंक में, ‘उम्र '43' नहीं लेवल '43' कहो’ प्रेरणादाई लेख है। एक खिलाड़ी के लिए किसी खिताब को जीतना कैसा अनुभव होता है इसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। भारतीय टेनिस स्टार रोहन बोपन्ना ने वाकई उम्र को केवल संख्या तक सीमित कर दिया है। उन्होंने युगल किताब जीत कर दिखा दिया कि अगर जज्बा हो तो क्या नहीं किया जा सकता। दरअसल किसी भी खेल को युवाओं तक सीमित कर दिया जाता है। जिस उम्र में रोहन ने खिताब जीता वह रिटायर हो जाने की उम्र है। लेकिन उनकी मेहनत से यह संदेश गया कि खिलाड़ी चाहें, तो फिर चुनौती ले सकते हैं। ऑस्ट्रेलियाई ओपन पुरुष  युगल खिताब जीत कर वह दूसरे खिलाड़ियों के लिए एक तरह से आदर्श बन गए हैं।

सलिल जैन | इंदौर, मध्य प्रदेश

 

पुरस्कृत पत्र: बहुत बड़ा संदेश

18 मार्च के अंक में, ‘चुनाव छोटा संदेश बड़ा’ उम्दा लेख है। इसे लेख कम, सत्ता के घमंड में चूर पार्टी के लिए स्पष्ट संदेश जरूर कह सकते हैं। चुनाव भी खेल की तरह हैं, जहां एक जीतेगा तो दूसरा हारेगा ही। आश्चर्य होता है कि खेल या कहीं और जीत को अपने हक में करने को बेईमानी कहा जाता है। कई बार इस कारण खिलाड़ी का पूरा करिअर खत्म हो जाता है लेकिन मजाल है कि ऐसा करने पर किसी नेता पर कोई आंच आए। यह हमारी दोहरी मानसिकता का ही नतीजा है कि हमें नेता की बेईमानी, बेईमानी नहीं लगती। हम मान कर चलते हैं कि चुनाव में तो यह सब चलता ही है। तभी गलत को गलत कहने से भी हम डर जाते हैं। चुनाव में ईमानदारी अब दूसरी दुनिया की बातें लगती हैं।

अनाहिता बद्रू | पुंछ, जम्मू

 

Advertisement
Advertisement
Advertisement