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पाठको की चिट्ठियां
पिछले अंक पर आई प्रतिक्रियाएं

प्रचार से सब मुमकिन

कोरोना में भारतीय फिल्म उद्योग ने बहुत बुरा दौर देखा। 1 अप्रैल की आवरण कथा, ‘तूफानी वापसी’ में आंकड़े बताते हैं कि 2020 और 2021 में नुकसान झेलने वाले बॉक्स ऑफिस ने अब रफ्तार पकड़ ली है। इसमें यह भी बताया गया है कि पठान फिल्म से बॉक्स ऑफिस की रौनक लौटी। लेकिन इस तथ्य पर भी बात की जाना चाहिए कि पठान के प्रचार के लिए शायद फिल्म से भी ज्यादा बजट था। शाहरुख ने फिल्म के प्रचार के लिए पानी की तरह पैसा बहाया। शीर्ष 4 फिल्में जवान, एनिमल, पठान और गदर 2 में से गदर 2 को छोड़ दिया जाए, तो सभी फिल्में औसत थीं। पठान तो औसत से भी नीचे की फिल्म थी। एनिमल को थोड़ा अलग इस मायने में किया जा सकता है कि इसकी हिंसा ने दर्शक वर्ग को अपनी ओर खींचा। इन फिल्मों के मुकाबले मनोज बाजपेयी अभिनीत जोरम की तो तुलना ही बेमानी है। जोरम जैसी फिल्में हर दर्शक के लिए नहीं होतीं। अगर इस फिल्म के पास भी प्रचार का अंतहीन बजट होता, तो इसे हिट करने से कोई नहीं रोक सकता था। 

शिवाशीष झा | पटना, बिहार

व्यवसाय बनाम दर्शक

हमेशा से ही कला और पैसे के बीच बहस होती रही है। 1 अप्रैल की आवरण कथा, ‘कला बनाम कैश’ भी इसी के इर्द-गिर्द बात करती है। लेख में कहा गया है कि अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों समेत फिल्म फेयर पुरस्कारों में वाहवाही बटोरने वाली जोरम को दर्शक नहीं मिले। मनोज बाजपेयी ने भी इस बात पर नाराजगी दिखाई कि फिल्म कम थियेटरों में रिलीज हुई। समझने वाली बात यह है कि जोरम की कहानी वास्तविक कहानी है। अपनी ही मुसीबतों से परेशान जनता स्क्रीन पर भी मुसीबत देखना नहीं चाहती। फिल्म मनोरंजन का माध्यम है। पैसा खर्च करने के बाद भी कौन होगा जो गरीबी, भुखमरी, तंगहाली और संघर्ष की कहानी परदे पर देखने जाएगा। हर दिन अखबारों में भी यही छपता है, टेलीविजन पर यही सब दिखाते हैं तो फिल्मों में भी दर्शक यही सब क्यों देखें।  पहले समानानंतर सिनेमा की अलग पहचान इसलिए थी कि समाज में वर्ग विभाजन की खाई चौड़ी थी। अब ऐसा नहीं है। अब आम और खास में ज्यादा फर्क नहीं है। बहुसंख्यक दर्शक वही देखेंगे, जिससे उन्हें  मनोरंजन हासिल होगा।

चीनू चहल | मंदसौर, मध्य प्रदेश

अति प्रचार

1 अप्रैल की आवरण कथा, ‘तूफानी वापसी’ पढ़ी। ओटीटी आने से बॉलीवुड को फर्क पड़ा है। थिएटर में जाने वाले ज्यादातर कम उम्र के दर्शक हैं। कई दर्शक फिल्म के ओटीटी पर रीलिज होने का इंतजार करते हैं। ओटीटी पर आने के बाद फिल्म के दर्शकों में अप्रत्याशित इजाफा होता है। दरअसल यही फिल्म का असली लिटमस टेस्ट है। इसे फिल्म दिखने का वैकल्पिक नहीं मुख्य माध्यम कहा जाना चाहिए। जब भी कोई दोयम दर्जे की फिल्म की तारीफ की जाती है और फिर इसे ओटीटी पर दिखाया जाता है, तो सोशल मीडिया पर सच्चाई सामने आ जाती है। फिल्म के बारे में झूठे प्रचार की कलई खुल जाती है। पठान ऐसी ही फिल्म है। दरअसल यह छोटे कलाकार वर्सेस सुपर स्टार, कम बजट वर्सेज ज्यादा बजट, कंटेंट वर्सेज दोयम दर्जे की बहस है ही नहीं। बल्कि ये तो अति प्रचार वर्सेस प्रचार की बात है। दोयम दर्जे की कहानियां जिन्हें सुपरस्टार मान लिए गए कुछ औसत कलाकार गढ़ी हुई छवि से चलाते हैं। फिर बॉक्स ऑफिस के हल्ले में अच्छी फिल्में दब जाती हैं।

सोनाली शर्मा | दार्जिलिंग, पश्चिम बंगाल

कला की परिभाषा

यह औसत कहानियों का दौर है। इस दौर में अच्छी कहानियां गुम हो जाने के लिए अभिशप्त हैं। 1 अप्रैल की आवरण कथा, ‘कला बनाम कैश’ में यह बात स्प्ष्ट लिख दी जानी चाहिए थी कि इस दौर में कला का कोई मोल नहीं है। वह तो ओटीटी ही है, जिसने कई अच्छे कलाकारों और अच्छे कथानक वाली फिल्मों को जगह दी और फिल्में ज्यादा से ज्यादा दर्शकों तक पहुंची। विडंबना ही है कि भारत में हर अच्छा माध्यम कुछ दिनों में अपनी चमक खो देता है। ओटीटी के साथ भी यही हो रहा है। अब तक सार्थक देखने के लिए दर्शक इसके भरोसे रहते थे। अब यहां जिनके पास पैसा है, वे यहां भी वही औसत कहानियां बेच रहे हैं। इससे इस माध्यम की विश्वसनीयता घट रही है। नुकसान छोटे बजट की फिल्मों और अच्छे कलाकारों को ही होगा। इस माध्यम पर बड़े कलाकार आने से छोटे कलाकार फिर हाशिये पर धकेल दिए जाएंगे। हाल के दिनों में बड़े या नामी कहे जाने वाले कलाकारों की कई फिल्मों ने ओटीटी पर निराश ही किया। इसलिए, कैश जिसके पास होगा वे ही लोग कला की परिभाषा तय कर लेंगे।

विक्की सूरी | दिल्ली

दर्शकों तक पहुंच

1 अप्रैल की आवरण कथा, सिनेमा की नई दृष्टि को परिभाषित करती है। भारत से स्टार सिस्टम कभी नहीं जा सकता, क्योंकि कलाकार को ईश्वरतुल्य मान लिया जाता है। भारत में मनोरंजन कभी भी विशुद्ध मनोरंजन नहीं रहा। दर्शक भी समझते हैं कि खराब क्या है और अच्छा क्या है। यदि पठान, जवान और एनिमल के मुकाबले जोरम पीछे रह जाती है तो इसका मतलब यह नहीं है कि शाहरुख अच्छे कलाकार हैं और मनोज खराब। इसका कारण यह है कि शाहरुख ने सपने बेचे और मनोज ने वास्तविकता। ओटीटी पर सैकड़ों भाषाओं में हजारों फिल्में हैं, जो कथानक, अभिनय और शिल्प के स्तर पर बेहतरीन हैं। लेकिन फिर क्या वजह है दर्शक विशुद्ध व्यावसायिक फिल्मों को ही गले लगता है, क्योंकि इन फिल्मों के बारे में इतना छपता है, दिखाया जाता है कि सभी को इसके बारे में पता होता है। बड़े सितारों पर जनता की नजर होती है इसलिए सभी लोग एक बार तो फिल्म देख ही लेते हैं। यही उनकी सफलता का राज भी है।

संदेश तोमर | भिवानी, हरियाणा

संदेश पर नजर

आउटलुक के 1 अप्रैल 2024 अंक की आवरण कथा, ‘तूफानी वापसी’ पढ़कर लगा कि हमारे देश के कुछ जागरूक और राष्ट्रवादी फिल्मकार देश की बड़ी से बड़ी समस्या पर निडर होकर और खुलकर बात करते हैं। सभी लोग गहराई से शोध कर सत्य घटना पर आधारित फिल्मों का निर्माण कर रहे हैं। ऐसी कई बालीवुड फिल्में हाल में आईं, जो देश की समस्याओं को उजागर करती हैं। बालीवुड की फिल्में किसी भी तरह की चुनौती के लिए तैयार रहती हैं। फिल्म में विचलित करने वाले दृश्यों पर गौर न किया जाए, बल्कि इन फिल्मों के संदेश पर ध्यान दिया जाए। फिल्में समाज में बदलाव प्रसारित करने का माध्यम भर हैं।

शैलेन्द्र कुमार चतुर्वेदी | फिरोजाबाद, उत्तर प्रदेश

अर्थव्यवस्था को बल

1 अप्रैल के अंक में ‘अयोध्या बनी आकर्षण का केंद्र’ ऐतिहासिक अयोध्या नगरी की पूरी जानकारी देती है। इसमें जरा संदेह नहीं कि अब अयोध्या दुनिया में सबसे पसंदीदा पर्यटन स्थल बनने जा रही है। हर देश-दुनिया से लोग यहां दर्शन के लिए आ रहे हैं। आने वाले श्रद्धालुओं के आंकड़े भी इस बात के संकेत दे रहे हैं कि अयोध्या राम की नगरी के रूप में विश्वविख्यात सबसे बड़ा धार्मिक पर्यटक स्थल होगा। राम की नगरी अयोध्या, लाखों राम भक्तों को व्यवसाय और रोजगार के भी अवसर देगी। इससे स्थानीय अर्थव्यवस्था को बहुत बढ़ावा मिलेगा। यह सिर्फ मंदिर नहीं समाजिक बदलाव है।

मीना धानिया | दिल्ली

संस्कृति का जुड़ाव

18 मार्च के अंक में, ‘कूटनीति के बुद्ध’, लेख में एकदम ठीक लिखा है कि संस्कृति हमें एक-दूसरे से जुड़ने का मौका देती है और हमारे संबंधों को गाढ़ा करती है। बुद्ध के जरिए हम दुनिया के 40 देश, खासकर पूर्वी एशिया के साथ हमारे प्राचीन संबंधों को मजबूत कर सकते हैं। इससे हमें आर्थिक और सामरिक मजबूती मिल सकती है। संस्कृति का जुड़ाव हमेशा बहुत मजबूत होता है। दो देशों की जनता को जोड़ने का यह सबसे अच्छा साधन है। यह आम लोगों को आकर्षित भी करता है।

डॉ. चमन माहेश्वरी | सूरत, गुजरात

जीवन की झलक

18 मार्च के अंक में ‘स्मृति’ के अंतर्गत दो ऐसे व्यक्तियों के जीवन की झलक मिली, जिन्होंने अपने काम से, विशेषज्ञता और हुनर से आम जन को परिचित कराया। चाहे अमीन सायानी हो या कानून के विद्वान, फली एस. नरीमन। नरीमन जी सदैव आम जन की आवाज रहे। वहीं दूसरी ओर ‘बिनाका गीतमाला’ के प्रस्तुतकर्ता की आवाज की बेहतरीन जादूगरी आज भी यूट्यूब एवं कारवां जैसे आधुनिक श्रवण माध्यमों के जरिये संगीत प्रेमियों के मन को रिझा रही है।

यति बाल्मीकि | अहमदाबाद, गुजरात

पुरस्कृत पत्र: निकला वह दौर

आउटलुक की आवरण कथा, ‘तूफानी वापसी’ (1 अप्रैल) कोरोना के बाद के भारतीय फिल्म उद्योग की अच्छी पड़ताल करती है। एक दौर में जब खान तिकड़ी सुपर हिट नहीं दे पा रही थी, लगने लगा था कि स्टार सिस्टम खत्म हो गया है। उसके बाद फिल्म उद्योग ने कोरोना काल में बहुत खराब समय देखा। कंटेंट प्रधान फिल्मों ने सफलता भी पाई और व्यवसाय भी अच्छा किया। लेकिन अब फिर बड़े बजट की फिल्मों के धुआंधार कमाई करने से लग रहा है कि वह केवल अस्थाई बदलाव था। कंटेंट का दौर बीत गया, ऐसा स्पष्ट नहीं कहा जा सकता। जब दर्शकों को दोबारा महंगे सेट और सितारे देखने को मिलने लगे, तो उन्होंने छोटे बजट और छोटे कलाकारों की फिल्म को देखना कम कर दिया।

नीतेश माहेश्वरी|उदयपुर, राजस्थान

 

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