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पत्र संपादक के नाम

पाठको की चिट्ठियां
पिछले अंक पर भारत भर से आई प्रतिक्रियाएं

लोकतंत्र के लिए खतरा

चुनाव के इस महासमर में, 15 अप्रैल का अंक बहुत उम्दा है। ‘लोकतंत्र पर फेक का साया’ आवरण कथा पढ़कर लगा कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के चुनाव को डीपफेक से अछूता रखना संभव नहीं दिख रहा। चुनाव किसी धारणा और उम्मीदवार की छवि पर लड़ा जाता है। डीपफेक दोनों ही चीजों को तहस-नहस करने की क्षमता रखता है। भारत में जहां नब्बे करोड़ से ज्यादा मतदाता हैं और लगभग सभी इंटरनेट से लैस मोबाइल फोन रखते हैं वहां एआइ से चुनाव की दिशा आसानी से बदली जा सकती है। ऐसे में किसी उम्मीदवार की छवि को नुकसान पहुंचाने वाले डीपफेक वीडियो चुनाव के दिन या मतदान शुरू होने से कुछ घंटे पहले प्रसारित हो जाएं, तो निश्चित रूप से किसी भी उम्मीदवार को क्षति पहुंचा सकता है। इस तरह के वीडियो से अगर एक वोट भी प्रभावित होता है, तो निश्चित रूप से यह लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं है।

शैलेन्द्र कुमार चतुर्वेदी | फिरोजाबाद, उत्तर प्रदेश

चंदे का धंधा

पिछले कुछ साल से लोकतंत्र मजाक बन कर रह गया है। आउटलुक ने इसे बहुत अच्छे ढंग से उठाया है। 15 अप्रैल के अंक में, ‘फेक तंत्र’ पूरे गड़बड़झाले को सामने रखती है। चुनावी चंदा, चुनावी बॉन्ड, जैसी बातें सरल भाषा में पाठको के सामने है। लेख ने आम लोगों की कई चिंता को शब्द दिए हैं। लोकतंत्र का तकाजा बहुत कुछ कहता है लेकिन मौजूदा सरकार ने सबको ताक पर रख दिया है। आखिर जनता को क्यों पता नहीं चलना चाहिए कि किसने, किसको, कितना चंदा दिया। माना कि ऐसी कोई विश्वसनीय व्यवस्था बनाना आसान नहीं होगा लेकिन पार्टियां कम से कम इसकी पहल तो करें। चुनावी बॉन्ड की व्यवस्था पार्टी जिस इरादे से लाई गई थी वह पूरा हुआ नहीं। अब यह बताने वाला कोई नहीं  है कि चुनावी चंदे की पारदर्शिता क्या होगी। ऐसा क्या हो कि चुनावी चंदे की प्रकिया साफ सुथरी बनी रहे। इस प्रक्रिया के लिए सार्वजनिक रूप से सुझाव मांगे जा सकते हैं। चुनावी चंदे की साफ-सुथरी व्यवस्था बन सके, इससे अच्छा कुछ नहीं हो सकता। सरकार चाहती है कि यह व्यवस्था बनी रहे, तो उसे ही इसकी विश्वसनीयता के लिए कोई कदम उठाना होगा। आरोप है कि इस बहाने सरकार अपने पसंदीदा कारोबारी या कंपनी को नियम-कानूनों में ढील देकर ठेका देती है। कुछ कारोबारी अपने ढंग से चंदे की सुविधा का लाभ उठाते हैं यह बात किसी से छुपी हुई नहीं है। चंदा देने के बाद कंपनियां खूब फलती-फूलती हैं। सरकार को मानना चाहिए कि यह एक समस्या है और इसका समाधान खोजना चाहिए। चुनावी चंदे की पारदर्शी प्रक्रिया की मांग करना आसान है, प्रक्रिया को मूर्त रूप देना कठिन है।

अनंत चतुर्वेदी | रांची, झारखंड

 सत्य बनाम मसाला

15 अप्रैल के अंक में, ‘विवादों का बॉक्स ऑफिस’ पढ़ा। एक जमाना था जब प्रेमी, प्रेमिका और विलेन वाली लगभग हर फिल्म एक ही ढर्रे पर बनती थी। कहानियों में बस उन्नीस-बीस का फर्क होता था। फिर एक दौर आया, जब ढर्रे से हटकर नए विषयों पर फिल्में बनने लगीं। अब वह समय आ गया है, जब किसी सत्य घटना पर आधारित फिल्में बन रही हैं। ये फिल्में दर्शकों को खासकर युवावर्ग को बहुत आकर्षित कर रही हैं। सत्य घटनाओं पर फिल्में बनाना जोखिम भरा है लेकिन दर्शकों के बीच ऐसी फिल्में चल जाती हैं। अब यह काम बड़े पैमाने पर हो रहा है। हमारे देश के इतिहास में ऐसे कई विषय हैं, जिनके बारे में लोग जानना चाहते है। फिल्म ऐसा माध्यम है जिसके जरिये अनेक विषय लोगों के सामने लाये जा सकते हैं। ऐसी फिल्में बनाते समय इस बात का ध्यान रखना जरूरी है कि तथ्यों के साथ छेड़छाड़ न हो और गलत जानकारी न दिखाई जाए। 

विनय मोघे | पुणे, महाराष्ट्र

उपाय खोजने होंगे

15 अप्रैल के अंक में, ‘दिल्ली की हवा खराब है’ अच्छा लेख है। प्रदूषण की समस्या दिन ब दिन बढ़ती जा रही है। यह समस्या अब दिल्ली सहित पूरे देश की समस्या बनती जा रही है। बांग्लादेश और पाकिस्तान के बाद भारत को दुनिया के सबसे प्रदूषित देशों की श्रेणी में रखा है। इसमें दिल्ली को दुनिया की सबसे प्रदूषित राजधानी माना गया है। यह शर्म की बात है कि दुनिया के शीर्ष 10 सबसे प्रदूषित शहरों में नौ भारत के हैं। भारतीय समाज सशक्त मध्यम वर्ग की ओर विकसित हो रहा है और आर्थिक क्षेत्र में नई-नई उपलब्धियां हासिल करता जा रहा है। ऐसे में भारत में प्रदूषण की समस्या भारतीय समाज में और आर्थिक क्षेत्र में विकास के मामले में बहुत बड़ा मुद्दा बन सकता है इसलिए प्रदूषण रोकने के हर संभव उपाय खोजने होंगे। भारत को चाहिए कि संपोषित विकास के अवधारणा को आगे बढ़ाते हुए पर्यावरण प्रदूषण को कम करने के लिए काम करें

विजय किशोर तिवारी | नई दिल्ली

तानाशाही के विरुद्ध

1 अप्रैल के अंक में, ‘बुशनेल, नवलनी और शाशा की कतार में’ आलेख मन को छू गया। आज पूरे विश्व में मानवीय मूल्यों को बचाए रखने की बड़ी चुनौती हमारे सामने हैं। यह आलेख हर नागरिक को सोचने पर मजबूर करता है कि उसका वर्तमान में क्या दायित्व है, बुशनेल, नवलनी और शाशा के प्रसंग हमें अंदर तक झकझोर देते हैं। आखिर विश्व के सभ्य और सज्जन लोग खामोश क्यों हैं। तानाशाही के विरुद्ध हमें विश्व स्तर पर एकजुट होना पड़ेगा। गांधी, मार्टिन लूथर किंग और नेल्सन मंडेला वापस नहीं आएंगे। हममें से ही किसी को गांधी, मार्टिन लूथर किंग और नेल्सन मंडेला बनना पड़ेगा ताकि मानवीयता को बचाया जा सके।

अशोक चौधरी | जोधपुर, राजस्थान

विवाद पुराना

1 अप्रैल के अंक में, ‘कला बनाम कैश’ कला फिल्म या मसाला फिल्म के विवाद को सामने लाती है। यह विवाद काफी पुराना है परंतु इस विवाद में मसाला फिल्में हमेशा ही बाजी मार ले जाती हैं। इनमें केवल संदेश देने का तरीका या समस्या का प्रस्तुतीकरण ही अलग होता है। देखा जाए, तो दोनों के साथ किसी न किसी रूप में बाजार जुड़ा हुआ है और बाजार के साथ करोड़ों पेट भी जुड़े हुए हैं। आज जबकि सिनेमा देखना एक परिवार के लिए काफी महंगा हो चुका है, तो परिवार चाहता है कि फिल्म कम से कम ऐसी तो हो, जो उसे चंद घंटे के लिए सुकून दे। इसलिए कई बार बे सिर पैर की कहानी हमारे सिर पर चढ़कर बोलती है और कई बार बेहतरीन कहानी अपनी बेबसी पर आंसू बहा रही होती है। प्रतियोगिता के इस दौर में सिनेमा हॉल को जिंदा रखने की ताकत केवल मसाला फिल्मों में ही है। मसाला फिल्मों को अपनी कहानी में कला का समावेश करना होगा ताकि लोगों के दिमाग पर दोनों प्रकार की फिल्मों की याद लंबे समय तक बनी रहे।

रवींद्र जोशी | अंबाला, हरियाणा

गरीबी की परिभाषा

1 अप्रैल के अंक में, प्रो. अरुण कुमार का इंटरव्यू, ‘यह चुनावी प्रचार के लिए ज्यादा लगता है’ बेहतरीन है। सरकार कंजप्शन सर्वे के आधार पर करीब 25 करोड़ लोगों को गरीबी से बाहर दिखा रही है। केंद्र सरकार के मंत्री और खुद प्रधानमंत्री चुनावी सभाओं में इसका ढिंढोरा पीट रहे हैं। सरकार इसे अपनी बड़ी उपलब्धि के रूप में दिखा रही है। इससे ऐसा लग रहा है कि अब भारत में गरीबी बची ही नहीं है। जबकि सब जानते हैं कि यह गरीबी मिटाने से जुड़ा वास्तविक डाटा नहीं केवल चुनाव मैदान में दिखाया जाने वाला डाटा है। केंद्र सरकार यह भी नहीं बता पा रही है कि यह आंकड़े उसने किस आधार पर तैयार किए हैं। पहले पता तो चले कि सरकार किसे गरीब मान रही है। और यह भी पता चले कि पहले कुल कितने गरीब थे। 

चंचला श्रीवस्तव | नई दिल्ली

कौन सुनेगा पुकार

1 अप्रैल के अंक में, ‘आखिर क्यों है अनसुनी पुकार’ अच्छा लेख है। लद्दाख के बारे में कम ही सूचनाएं मुख्यधारा में आ पाती है। मीडिया दिल्ली और आसपास के क्षेत्र को ही संपूर्ण भारत समझ बैठता है। पूर्ण राज्य और छठी अनुसूची के लिए लद्दाख अनशन करने वाले सोनम वांगचुक का संघर्ष सामने आना चाहिए। दिल्ली के जंतर-मंतर पर हुई रैली का भी मीडिया में खास जिक्र नहीं था। आखिर क्या वजह है कि सरकार लद्दाख की आवाज नहीं सुन रही है। केंद्र सरकार बातचीत से क्यों बच रही है। जो बातचीत हुई वह भी असफल रही। लद्दाख मुख्य धारा में आना चाहिए और इसलिए जरूरी है कि यहां की आम जनता की आवाज को सुना जाए। 

चंद्रकांत शितोले | नागपुर, महाराष्ट्र

पुरस्कृत पत्रः एआइ का जाल

पूरी दुनिया किस दिशा में जा रही है, इसका अंदाजा लगाना कठिन होता जा रहा है। 15 अप्रैल की आवरण कथा, ‘लोकतंत्र पर फेक का साया’ डराने वाली है। भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है। ऐसे में यदि एआइ इस चुनाव को नियंत्रित कर रहे हैं, तो सोच कर ही डर लगता है कि परिणाम क्या होगा। अब बात पक्ष या विपक्ष की नहीं, बल्कि उससे पहले असली और नकली की है। नकली का साया ऐसे मंडरा रहा है कि असली को साबित करने में पूरी ताकत झोंक देना पड़ रही है। एआइ और डीपफेक ने हर व्यक्ति की जिंदगी में दस्तक दे दी है। अगर चुनाव में भी मतदाता अपने मन का न कर सके, तो फिर ऐसे चुनाव का क्या मतलब रह जाता है।

सायमा अंसारी | रामबन, जम्मू

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