झुक कर चलना होगा
8 जुलाई की आवरण कथा, ‘चौतरफा चुनौतियां’ मोदी सरकार के संकट को बेहतर ढंग से समझाती है। सरकार चलाने के लिए मोदी को सहयोगी दलों की भरपूर जरूरत पड़ेगी। ऐसे में पुराने सदस्यों को एनडीए के साथ जोड़कर रखना और अन्य दलों से भी बना कर रखना उनके लिए चुनौती होगी। चाणक्य कही जाने वाली मोदी-शाह की जोड़ी को इस बार जनता ने पटखनी दे दी और अब यह जोड़ी इन चुनौतियों से कैसे पार पाएगी, यह देखने वाली बात होगी। सरकार पर जब सहयोगी दलों का दबाव होता है, तब कई बार अच्छे फैसलों को भी ठंडे बस्ते में डाल देना पड़ता है। दबाव में भी सहयोगी दलों को खुश रखते हुए सरकार चलाना मोदी को आता नहीं है। सभी जानते हैं कि मोदी दबाव में काम करना पसंद नहीं करते, लेकिन अब जब टीडीपी और जनता दल-यूनाइटेड के सदस्य अपनी बात मनवाएंगे, तो मोदी क्या कर पाएंगे। गठबंधन में नई रणनीति के लिए वैसे भी गुंजाइश कम ही रहती है। सहयोगी दल जब चाहें, मोदी के साथ खेल कर सकते हैं। यही कारण है कि प्रधानमंत्री जो काम इस बार करना चाहते थे, कुछ दिनों के लिए उन्हें स्थगित करना पड़ेगा। जैसे जनसंख्या कानून, समान नागरिकता कानून, वक्फ कानून में परिवर्तन, भ्रष्टाचारियों पर कार्रवाई करना। इन सब कार्यों के लिए सहयोगी दलों से बार-बार बात करना होगी। चंद्रबाबू और नीतीश कुमार बिना सहमति के ऐसे बड़े कानून के लिए एकदम सहमत नहीं होंगे। अगर मोदी को बार-बार किसी की चिरौरी करनी पड़ी, तो क्या पता उनके लिए उससे निपटना आसान न हो और मजबूरी में सरकार छोड़नी पड़े।
मनमोहन राजावत राज | शाजापुर, मध्य प्रदेश
ईवीएम की विश्वसनीयता
8 जुलाई का संपादकीय पढ़ा। संपादकीय में ठीक ही लिखा है कि बिना किसी ठोस आधार के चुनाव प्रक्रिया पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करना उचित नहीं है। लेकिन हमारे देश में संविधान, लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की दुहाई देकर बच निकलना बहुत आसान है। वास्तव में हमारे देश में विपक्ष के पास मुद्दा तो कई हैं, लेकिन उनमें एकमत नहीं है। यह अवश्य है कि मजबूरन ही सही एकजुटता (वोट बिखराव रोकने के लिए) तथा भाजपा के अति आत्मविश्वास, साथ ही कुछ नेताओं के बड़बोलेपन के कारण संविधान, आरक्षण आदि पर कुछ राज्यों की जनता (विशेषकर ग्रामीणों) में विपक्षी दल अपने मुद्दों का असर पैदा करने में सफल हो गए और ईवीएम पर भांडा फूटने से बच गया। लेकिन एलॉन मस्क के बयान के बाद फिर विपक्ष ने गैर जिम्मेदाराना रवैया अपनाया। ऐसे ही हर छोटे-छोटे महत्वहीन मुद्दे को राष्ट्रीय स्तर पर उठाकर माहौल खराब करना अशोभनीय है। इसी अंक में, ‘मोदी से मोहभंग’ लेख में 10 वर्षों तक रिमोट संचालित गठबंधन सरकार चलाने वाली पार्टी के कथित लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुने गए प्रमुख द्वारा चुनाव पूर्व गठबंधन कर बनाई गई पूर्ण बहुमत की सरकार को अल्पमत की सरकार कहना हास्यास्पद है। पुण्य प्रसून वाजपेयी जी को जानकारी नहीं है कि सरसंघचालक जी के प्रवास दो वर्ष पहले तय हो जाते हैं। अत: उनको तत्कालीन राजनीति से जोड़कर देखना लेखन विलास हो सकता है, वास्तविकता नहीं। इसी तरह मल्लिकार्जुन खड़गे जी वाले साक्षात्कार में तीसरे प्रश्न में त्रुटि है। संविधान संशोधन 1/3 से नहीं होता है।
राकेश कुमार | जयपुर, राजस्थान
ढीला रवैया
8 जुलाई के अंक में, ‘नई सरकार पुरानी लीक’ नीट के गस्से को समझने का प्रयास करती है। लोकसभा चुनाव परिणाम के साथ आए इस परीक्षा के परिणाम ने देश को फिलहाल झकझोर कर रखा हुआ है। लोकसभा चुनाव अब पुरानी बात हो गई है लेकिन नीट के घाव अभी भी ताजे हैं। पेपर लीक के मामले में सरकार का रवैया बहुत ढीला है। इससे लगता है कि सरकार किसी शक्तिशाली आदमी को बचाने की कोशिश में लगी हुई है। पिछले कुछ साल से पेपर लीक होना सामान्य घटना बनती जा रही है। परीक्षा चाहे कोई भी हो, पेपर लीक होना शाश्वत नियम बन चुका है। पेपरलीक से जुड़े माफियाओं के बारे में सभी को पता है लेकिन उन्हें कोई नहीं पकड़ता। कई राज्यों में इनका नेटवर्क फैला हुआ है और सिस्टम पूरी तरह लाचार है।
प्रतिष्ठा नेगी | हमीरपुर, उत्तराखंड
जवाबदेही तय हो
8 जुलाई के अंक में, ‘नई सरकार पुरानी लीक’ लेख भारत में परीक्षा व्यवस्था की बदहाली को बखूबी दर्शाता है। नीट जैसी प्रतिष्ठित परीक्षा को ठीक से न करा पाना सरकार की विफलता है। कायदे से शिक्षा मंत्री को इस पर इस्तीफा देना चाहिए था। इससे उनकी नैतिक प्रतिष्ठा में इजाफा ही होता। पेपर-लीक होने से कितने बच्चों का भविष्य बर्बाद होता है, इसका अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता। उनके साथ उनके माता-पिता की भी मेहनत, तपस्या व्यर्थ जो जाती है। पेपर की धांधली नई बात नहीं है। लेकिन अब इसने व्यापक रूप ले लिया है, जिससे लाखों बच्चों का भविष्य बर्बाद हो रहा है। लाखों युवाओं के भविष्य से खिलवाड़ हो रहा है और सरकार के माथे पर शिकन तक नहीं है। सख्त सजा न होने के, लचर कानूनी प्रक्रिया के कारण पेपर लीक माफिया खुले आम ऐसे काम को अंजाम देते हैं। सरकार को इसके लिए अधिकारियों की जवाबदेही तय करना चाहिए।
सुकेश चौधरी | नई दिल्ली
पलटी बाजी
8 जुलाई के अंक में, ‘नई सियासी पौध’ लेख एकदम मौजू है। लोकसभा का जो मौजूदा परिणाम आया है, वो इन्हीं युवा नेताओं की बदौलत आया है। अगर इन तीनों युवाओं ने मिल कर कंधे से कंधा मिलाकर कोशिश न की होती, तो मोदी फिर धमक के साथ लोकसभा में मौजूद रहते। इस बार मोदी का कद छोटा करना बहुत महत्वपूर्ण था। ये तीनों नेता यह करने में कामयाब रहे। परिणाम सभी को चौंकाने वाले थे। लेकिन इन युवा तुर्कों अखिलेश यादव, प्रियंका गांधी, तेजस्वी यादव और राहुल गांधी ने बाजी ही पलट दी। चिराग पासवान ने भी पिता के नाम की लाज रखी और बहुत अच्छा प्रदर्शन किया। देश को इन सभी से बहुत उम्मीद है।
सरस शर्मा | चंपावत, उत्तराखंड
सिंहासन खाली करो
8 जुलाई के अंक में, ‘नई सियासी पौध’ अच्छा लेख है। इस बार का जनादेश एकदम संतुलित आया है। देश की राजनीति की बागडोर बुजुर्ग के हाथ से निकल कर युवाओं के हाथ में चली गई है। आंशिक तौर पर ही सही लेकिन राहुल, प्रियंका और अखिलेख ने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया है। इन लोगों ने अपनी मेहनत से सिद्ध कर दिया कि मोदी अजेय नहीं हैं। अगर थोड़ी सी मेहनत की जाए, तो मोदी को सत्ता से बाहर किया जा सकता है। लोकसभा के परिणाम मोदी के लिए भी अप्रत्याशित थे। अखिलेश यादव ने दिखा दिया कि वह अपने पिता की विरासत को संभालने के लिए योग्य हैं।
मीनाक्षी पुरंदरे | कोल्हापुर, महाराष्ट्र
नए उत्तराधिकारी
8 जुलाई के अंक में, ‘नई सियासी पौध’ उम्मीदों से भरा लेख है। नए नेता आएंगे, तो देश अपने आप तरक्की करेगा। क्योंकि नया खून अपने साथ नई सोच भी लेकर आता है। भारतीय राजनीति को ऐसे नेताओं की जरूरत है, जो दिशा और दशा दोनों को तय करने में सक्षम हो। जो नए नेता उभरकर सामने आए हैं, उन्होंने एक तरह से मोदी के सामने कौन का भी जवाब दे दिया है। आगे चलकर इनमें से कोई भी प्रधानमंत्री बन सकता है। देश की बागडोर युवाओं के हाथ में ही होनी चाहिए। रही बात राजनीतिक परिपक्वता की तो यह अनुभव से धीरे-धीरे आ ही जाती है। हम बस कहते भर हैं कि भारत दुनिया में सबसे ज्यादा युवा हैं, लेकिन नेतृत्व देते वक्त हम बुजुर्गों को ही तरजीह देते हैं। राजनीति में 60 साल तक नेता युवा ही बने रहते हैं। ऐसे में वास्तव में जो युवा हैं, वे कहां जाएं। नए और युवा नेताओं का आना भारतीय लोकतंत्र के लिए भी शुभ संकेत है।
कला पासी | दुमका, झारखंड
स्पष्ट उत्तर
24 जून के अंक में, ‘मैं उत्तर नहीं प्रश्न हूं’ लेख में, लोकसभा चुनाव के परिणाम के लिए उत्तर-प्रदेश की भूमिका की अच्छी समीक्षा है। जिस उत्तर प्रदेश ने 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में मोदी सरकार को बहुमत दिलाकर सत्ता के शिखर तक पहुंचाया, उसी उत्तर प्रदेश ने इस लोकसभा चुनाव में मोदी को बहुमत से दूर कर दिया। तरकश में मोदी, योगी और अयोध्या जैसे बेहतरीन वाण होने के बावजूद भाजपा आधी सीटें भी नहीं ला पाई। यह परिणाम भाजपा के साथ उसके समर्थकों के लिए भी बड़ा प्रश्न है। प्रदेश ने अपने अपने ‘उत्तर’ से बता दिया कि यहां सिर्फ ‘विकास’ का धोखा और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद नहीं चलेगा। बल्कि यहां की सामाजिक-इंजीनियरिंग को भी समझना होगा। भाजपा के यहां पिछड़ने का एक और कारण अति आत्मविश्वास भी रहा। उम्मीदवारों ने अपने काम के आधार पर वोट न मांगकर मोदी के चेहरे के आधार पर वोट मांगा।
विजय तिवारी | नई दिल्ली
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पुरस्कृत पत्र: नियंत्रण की चाभी
जैसा कि लग रहा था, मोदी सरकार को 400 सीटें नहीं मिलेंगी। लेकिन भाजपा को बहुमत भी नहीं मिला यह आश्चर्य की बात है। 8 जुलाई की आवरण कथा, ‘मिलीजुली चुनौती’ मोदी सरकार की गठबंधन की चुनौतियों की बात करती है। इस पूरे घटनाक्रम में सबसे अच्छी बात यह है कि इससे मोदी थोड़ा नियंत्रित रहेंगे। हालांकि उनकी आदत किसी की बात मानने की नहीं है, जिससे टकराव के आसार अक्सर रहेंगे। होंगे, क्योंकि उन्होंने मुख्यमंत्री और बाद में प्रधानमंत्री बनने के गठबंधन की सरकार चलाना आसान नहीं है। मोदी इस बात को नहीं समझते बाद से ही स्वतंत्र रूप से सरकार चलाई है। विपक्ष नियंत्रण की चाभी अपने पास रखे, लेकिन ताले को जाम न करे इसका ध्यान रखना होगा।
अंशुल श्रीवास्तव|ग्वालियर, मध्य प्रदेश