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पाठको की चिट्ठियां
पिछले अंक पर आई प्रतिक्रियाएं

कड़े कानून पर्याप्त नहीं

कोलकाता की घटना ने दिल तोड़ कर रख दिया। 16 सितंबर की आवरण कथा, ‘यौन हिंसा की कुकथा’ भले ही कितनी भी व्याख्या कर ले लेकिन यह तय है कि अब पानी सिर से ऊपर गुजर गया है। महिलाएं कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं। जो कहते हैं कड़े कानून बनें, उन्हें नहीं मालूम कि अभी भी कानून आसान नहीं हैं। केवल कानून बनाने से अगर सब कुछ हो सकता, तो दुनिया जन्नत होती। अब वक्त आ गया है कि ऐसे जघन्य अपराधों को रोकने के लिए पुरुष आगे आएं। पुरुषों की अगुआई के बिना ऐसे अपराध नहीं रुकने वाले। स्त्रियों को नैतिक शिक्षा का पाठ पढ़ाने के बजाय पुरुषों के लिए ऐसी तालीम की जरूरत है, जो उन्हें इंसान बनाए। हर राज्य, हर शहर का पुरुष सड़क पर निकले और कोलकाता के आरोपी को जब तक सजा न हो जाए आंदोलन करे। अपने आसपास के पुरुषों को संवेदनशील होना सिखाए। कुछ पुरुष भले ही यौन हिंसा न करें लेकिन वे महिलाओं के प्रति दूसरे तरीके से उन्हें असुरक्षित महसूस कराते हैं। अभी भी दफ्तरों में पुरुषों की संख्या ज्यादा होती है। जब भी अपने कार्यस्थल में कोई ऐसा पुरुष देखें, उसे तुरंत टोकें, उसकी गलती का एहसास कराएं। महिलाओं के लिए सुरक्षित दुनिया बनाने की पूरी जिम्मेदारी पुरुषों की है, जिसे उन्हें पूरी ईमानदारी से निभाना चाहिए।

जफर अंसारी | मेरठ उत्तर प्रदेश

 

मोबाइल का कहर

कोलकाता मामले में जितना समझा उससे यही लगता है कि मोबाइल के रूप में हर हाथ में चलता-फिरता बम है। मोबाइल पर पोर्न देख कर सनकी पुरुष महिलाओं को अपनी हवस का शिकार बना रहे हैं। मोबाइल से एक पूरी पीढ़ी बर्बाद हो रही है। मोबाइल के कारण अपराध की दर बढ़ रही है। यह सुनने में भले ही संभव न लगे लेकिन सरकार को ऑनलाइन पेमेंट्स गेटवे के अलावा रात को मोबाइल पर यूट्यूब, ह्वॉट्सऐप जैसी बातें बैन कर देना चाहिए। तकनीकी रूप से ऐसी सेटिंग करना चाहिए कि रात को किसी भी तरह के वीडियो न चल सकें। रात आठ से सुबह आठ तक इस तरह का बैन रहे, तो लोग किसी भी तरह के वीडियो नहीं देख पाएंगे, क्योंकि कंटेंट पर तो कोई रोक नहीं लग सकती। सरकार एक पोर्न वेबसाइट रोकती है, तो दूसरे नाम से या थोड़ी अलग यूआरएल से नई वेबसाइट बन जाती है। ऐसी सामग्री को पूरी तरह से बैन करना असंभव है। इसलिए उस नेटवर्क को ही बंद कर दिया जाए, जिस पर ये चलती है। (आवरण कथा, ‘यौन हिंसा की कुकथा’, 16 सितंबर)।

कनक तिवारी | सोनभद्र, उत्तर प्रदेश

 

कितनी निर्भया

आउटलुक का 16 सितंबर का अंक झकझोर गया। ‘और कितनी निर्भया’ पूरे भारत की लड़कियां, महिलाएं, छोटी बच्चियां की चिंता करती है। लेकिन अब भारत में लड़के भी असुरक्षित हैं। कोलकाता ट्रेनी डॉक्टर, तो घटनाओं की कड़ी में एक और संख्या है। पूरा देश इस घटना से स्तब्ध है। दिल्ली के निर्भया-कांड से भी किसी ने कुछ सबक नहीं लिए। अब कोई इसे निर्भया-2 कहे या कुछ और लेकिन यह तय है कि अगर इसके बाद भी कुछ नहीं किया गया, तो निर्भया के आगे 2-3-4 लगाते रहिए, अपराधियों को क्या फर्क पड़ना है। बहुत हुआ तो सरकारें, जांच सीबीआइ को सौंप देती हैं। लेकिन इससे पहले के मामलों में ही कुछ नहीं हुआ, तो अब क्या होगा। भारत में इतने लंबे-लंबे ट्रायल चलते हैं कि जब तक दोषियों को सजा मिले, ऐसे पांच-सात और मामले दर्ज हो जाते हैं। ममता सरकार तो खैर शुरू से ही इसके कठघरे में है। इससे ज्यादा अमानवीय क्या होगा कि एक मेहनती डॉक्टर अपनी आबरू और जान दोनों अपने ही कार्यस्थल पर गंवा देती है और पुलिस उस मामले को आत्महत्या बताने में जुट जाती है। वे कौन लोग हैं, जो आरोपी संजय रॉय को बचाने की कोशिश कर रहे हैं। किसी की न मानी जाए, तो कम से पोस्टमार्टम रिपोर्ट का ही मानना चाहिए कि जिससे पता चलता है कि पीड़िता के साथ बर्बरता हुई है। ममता बनर्जी यदि कुछ नहीं कर सकतीं, तो कम से कम जांच में ही सहयोग कर दें।

पारुल शाह | आणंद, गुजरात

 

दोयम स्थिति

आउटलुक की 16 सितंबर की आवरण कथा, ‘यौन हिंसा की कुकथा’ पढ़ कर लगा कि किसी भी मजहब में स्त्री की अस्मत से खिलवाड़ करना नहीं सिखाया जाता, फिर ही हर मजहब की स्त्री के साथ दुर्वव्यवहार होता है। पुरुष अब मासूम बच्चियों को अपनी हवस का शिकार बना रहे हैं। पुरुष ये दुस्साहस इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि किसी को कड़ी सजा नहीं हुई है। सजा इतनी देर से मिलती है कि कभी-कभी तो अपराधी अपने जीवन के अंतिम चरण में आ जाता है। सदियों से महिलाओं को शिक्षा से वंचित रखा गया कम उम्र में विवाह के बाद उन्हें जनसंख्या बढ़ाने की मशीन बना दिया। अब जब वे घर से बाहर निकल रही हैं, तो पुरुष अपनी गलत हरकतों से उन्हें इस तरह डरा रहे हैं। समाज की यह कैसी मानसिकता है, जो स्त्रियों को आगे बढ़ने से रोकती है। कई बार बाहर के बिगड़ते माहौल की वजह से महिलाओं को स्थिति दोयम दर्जे की बनकर रह गई है। यदि हम गौर करें तो देखेंगे कि आजकल मीडिया और टीवी में किस प्रकार से महिलाओं की छवि को प्रस्तुत किया जाता है। ऐसे अजीबोगरीब तरीके से रिश्तों का उलझाव दिखाया जाता है जो प्रायः परिवारों में बमुशिकल ही देखने को मिलता है। हर धारावाहिक में महिलाओं को अनपढ़, गंवार, घर के कामों में उलझी हुई पति और सास द्वारा दमित और अपनी पहचान के लिए संघर्ष करते हुए दिखाया जाता है। क्या इस प्रकार की छवि गढ़ना जरूरी है।

शैलेंद्र कुमार चतुर्वेदी | फीरोजाबाद उत्तर प्रदेश

 

संभव नहीं छेड़छाड़            

2 सिंतबर अंक में, ‘संविधान गया, तो लोकतंत्र नहीं बचेगा’ अच्छी आवरण कथा है। संविधान के 75 साल के बदलाव के बारे में इसमें बहुत-सी बातें लिखी गई हैं। हर आलेख बहुत मजबूती से संविधान की बारिकियों को बताता है। संविधान हमेशा से सर्वोपरि रहा है और रहेगा। पचहत्तर वर्षों की तमाम राजनीतिक कवायदों के बावजूद राष्ट्र धर्मनिरपेक्षता, अखंडता और समाजवाद के साथ आज भी मजबूती से खड़ा है। अंखडता को चुनौती देती हर लालसा को रौंद देने की निरपेक्ष दृढ़ता ही राष्ट्रीयता है। बेशक, हम भारतीयों में तमाम विविधताओं के बावजूद राष्ट्रीयता को महफूज रखने की अदम्य मौलिक लालसा है, जो किसी भी राजनीतिक दल की कार्यशाला का उत्पाद नहीं। कभी राष्ट्रीयता का पर्याय रही कांग्रेस आज खुद क्षत्रपों के खेमे में शरणागत है। कभी राजनीति में अछूत कही जाने वाली भाजपा आज राष्ट्रवाद का बाना पहन अगुआ है। लेकिन वह भी आर्थिक समाजवाद पर कुछ नहीं कर पा रही। अब भाजपा का जुलूस भी बिखरने लगा है। संविधान से छेड़छाड़ तो दूर ऐसी बात करने वाले लोगों का हश्र क्या होगा यह सभी को पता चल चुका है।

अरविन्द पुरोहित | रतलाम, मध्य प्रदेश

 

सर्वोपरि संविधान

आउटलुक के 2 सितंबर अंक में, ‘संविधान 75 साल’ एक समीक्षावादी विश्लेषण था। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने संविधान सभा का जो ‘उद्देश्य प्रस्ताव’ प्रस्तुत किया था, उससे ही भारतीय संविधान की प्रतिष्ठा और गरिमा का ज्ञान होने लगता है। भारतीय संविधान के इस 75वें साल में हमें संविधान की गरिमा को समझना होगा। भारत ने राजनीतिक रूप (दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र), आर्थिक रूप (पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था) से जो भी उपलब्धि हासिल की उसमें सबसे बड़ा योगदान भारतीय संविधान का ही है। सामाजिक रूप से भारतीय संविधान ने यह साबित कर दिया है कि राजनीतिक आजादी तब तक कोई मायने नहीं रखती, जब तक सामाजिक आजादी न हो। भारतीय संविधान सिर्फ नियमों और कानून का संग्रह नहीं बल्कि भारतीय गणतंत्र, समता, अधिकार और न्याय का प्रतीक भी है। आज कोई भी सत्ताधारी पक्ष हो या विपक्ष शासन का आधार भारतीय संविधान ही रहा है। इसलिए इसे सिर्फ नियमों का समूह समझने के बजाय भारतीय जनमानस के आकांक्षाओं और उम्मीदों का संग्रह समझा जाए तो गलत नहीं होगा।

विजय किशोर तिवारी | नई दिल्ली

 

कैसे हों, सब खुशहाल

2 सिंतबर अंक में, ‘संविधान गया, तो लोकतंत्र नहीं बचेगा’ आउटलुक की अनूठी पहल है। भारतीय संविधान 75 वर्षों के बावजूद ऐसी स्थितियां पैदा नहीं कर पाया, जो गरीबों के लिए भी मददगार साबित हो। विश्व बैंक का कहना है कि गरीबों के हालात और सुधरने के लिए अभी भी और 75 साल चाहिए। इसमे दो और प्रावधान जोड़े जाने चाहिए। पहला नौकरी का अधिकार, दूसरा नौकरी के अभाव में न्यूनतम आय का अधिकार। लेकिन इन दोनों पर अमल कैसे करना है, यह मूल प्रश्न है। सभी राज्य सरकारों को ऐसी कंपनियों का गठन करना होगा जिन्हें प्लेसमेंट एजेंसी कहते हैं। ये कंपनियां स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय श्रम बाजार में निजी नियोक्ताओं से काम लेकर गरीबों को रोजगार प्रदान करेगी। इससे जो आय होगी उससे नियोजित गरीब को वेतन, बेरोजगार को न्यूनतम आय और प्रशासनिक खर्चों की व्यवस्था होगी। इस प्रकार तीन से पांच साल के अंदर न केवल गरीबी पूरी तरह खत्म हो पाएगी, बल्कि नई तस्वीर उभरेगी।

प्रवीण शरण | बेंगलूरू, कर्नाटक

 

पुरस्कृत पत्र : बदलेगी सिर्फ तारीख

अंक 16 सितंबर का, आवरण कथा, ‘यौन हिंसा की कुकथा।’ आने वाले वर्षों में सिर्फ अंक की तारीख बदलेगी, आवरण कथा का शीर्षक बदलेगा। जो नहीं बदलेंगे, वे होंगे हालात। लड़कियां वैसे ही असुरक्षित रहेंगी। हम देश में अच्छे डॉक्टरों का रोना रोते हैं, अच्छे इंजीनियरों का रोना रोते हैं। बड़ी मुश्किल से इस बेरहम दुनिया से लड़कर लड़कियां डॉक्टर-इंजीनियर बनती हैं और नौकरी का फर्ज निभाते हुए गंदे दिमाग वालों के हमलों का शिकार होती हैं। कोई भी राज्य हो, कोई भी सरकार हो, कोई भी जगह हो, कोई भी धर्म हो, लड़कियां हमेशा भारी कीमत चुकाती हैं। उनका सिर्फ लड़की होना ही सबसे बड़ा अपराध है। वे किसी भी उम्र की हों, यौन कुंठित उन्हें अपना शिकार बना लेते हैं। पता नहीं लड़कियां कब तक ऐसे असुरक्षित रहेंगी।

सलिल भट्टाचार्य|नैनीताल, उत्तराखंड

 

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