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11 नवंबर 2024 · NOV 11 , 2024

पत्र संपादक के नाम

पाठको की चिट्ठियां
पिछले अंक पर आई प्रतिक्रियाएं

बड़ा नुकसान

आउटलुक 28 अक्टूबर के अंक में, ‘कुर्सी महा ठगिनी हम जानी’ भारतीय राजनीति का चरित्र बताता है। दिल्ली के मुख्यमंत्री रहे अरविंद केजरीवाल ने इतिहास से सबक सीखा है। राजनीति वैसे भी बहुत निर्मम होती है। वे यह बात बहुत अच्छे से जानते हैं। तभी उन्होंने मनीष सिसौदिया की जगह आतिशी को कमान सौंपी। तिहाड़ जेल में रह कर उन्हें दुनिया और ज्यादा समझ आने लगी होगी। केजरीवाल को लगता होगा कि आतिशी से एक कुर्सी खाली छुड़वा देने से वे राम हो जाएंगे। उनका तो नहीं पता लेकिन आतिशी न भरत बन सकी हैं, न मुख्यमंत्री। लालू प्रसाद यादव ने पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बना कर अपना पद और पार्टी दोनों बचा ली थी। लेकिन जीतनराम मांझी ऐसे नहीं निकले। फिर उन्हीं के नक्शे कदम पर चलकर चंपाई सोरेन ने भी भाजपा का दामन थाम लिया है। हेमंत सोरेन का चंपाई से कुर्सी वापस लेना झामुमो को भारी पड़ेगा। हालांकि पहले भी ऐसा होता रहा है। लेकिन दिल्ली के पूर्व मख्यमंत्री ने परिवार के किसी सदस्य को कुर्सी न सौंप कर चापलूस सदस्य को कुर्सी सौंप दी, यह जनता का बड़ा नुकसान है।

मीना धानिया | नई दिल्ली

 

व्यक्ति पूजा

28 अक्टूबर के अंक में, संपादकीय ‘खड़ाऊं या खंजर’ वर्तमान राजनीति का असली चेहरा दिखाता है। हमारे नेता रंग बदलने में गिरगिट को भी मात देते हैं। जिसकी ताकत उसकी चापलूसी। राजनीति में व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा मायने रखती है लेकिन अपनी आत्मा गिरवी रख कर आजकल नेता राजनीति कर रहे हैं। यह सही है कि कोई सा भी क्षेत्र हो, आला अधिकारी वफादारी की उम्मीद करता है। सियासत में वफादारी की मांग कुछ ज्यादा ही है। लेकिन आतिशी ने जो किया वह बहुत ही गलत है। मुख्यमंत्री किसी पार्टी का नहीं बल्कि जनता का होता है। अरविंद केजरीवाल की ऐसी भी क्या चापलूसी करना कि बगल में खाली कुर्सी रखी जाए। लोकतंत्र में इससे भद्दा मजाक कुछ नहीं हो सकता। बात किसी पार्टी की नहीं बल्कि व्यक्ति की है। जो व्यक्ति संवैधानिक पद पर बैठ कर सार्वजनिक रूप से अपने आका का पिट्ठू होने का प्रदर्शन करेगा, वह जनता की भलाई के लिए भला क्या कर पाएगा। किसी की इज्जत करना अलग बात है और चरणों में लोट जाना अलग। आतिशी जैसी पढ़ी-लिखी महिला ने ऐसा किया, इसका दुख ज्यादा है।

अरविन्द पुरोहित | रतलाम, मध्यप्रदेश

 

पादुका मुख्यमंत्री

28 अक्टूबर के अंक में, प्रथम दृष्टि, ‘खड़ाऊं या खंजर’ बहुत ही सारगर्भित है। सत्ता और निष्ठा दो विरोधी स्वर हैं। लेकिन जब सत्ता मिल जाए, तो उसकी थोड़ी सी गरिमा रखना भी जरूरी है। मुख्यमंत्री बनने के बाद आतिशी ने जो किया उसकी जितनी निंदा की जाए कम है। ये लोग बातें बड़ी-बड़ी करते हैं और जब खुद कुछ करने की बारी आती है तो विरोधी पार्टी से भी ज्यादा नीचे उतर कर काम करते हैं। भाजपा वालों के लिए ये लोग कहते हैं कि उस पार्टी में सभी मोदी की चाटुकारिता करते हैं। कोई आतिशी से पूछे कि खाली कुर्सी बगल में रख कर वह क्या कर रही हैं। कुर्सी किसी नेता या पार्टी विशेष की नहीं, यह भी विदेश में पढ़ी आतिशी को समझाना होगी क्या। सियासत में आगे बढ़ने के लिए लोग क्या कुछ नहीं करते। केजरीवाल की गुड लिस्ट में बने रहने के लिए आतिशी ने सार्वजनिक रूप से खुद की इज्जत को मटियामेट होने से भी नहीं रोका। अरविंद केजरीवाल की छत्रछाया में रहकर वे इतना तो सीख ही गई हैं कि दूसरों को पछाड़ कर कैसे आगे रहा जाता है। पहले उनकी बहुत इज्जत थी लेकिन शीर्ष पर पहुंच कर उन्होंने जिस तरह का आचरण किया है, इतिहास उसे कभी नहीं भूलेगा। जनता इनसे इतनी उम्मीद लगा कर बैठी है और इन्हें खड़ाऊं नेता बनने से ही फुर्सत नहीं है।

अदिति निगम | बरनाला, पंजाब

 

मौका गंवाया

28 अक्टूबर के अंक में, ‘नायाब कामयाबी’ लेख बहुत पसंद आया। हुड्डा के आगे नतमस्तक कांग्रेस ने हरियाणा गंवा दिया। आखिरकार कांग्रेस के असंतुष्टों ने पार्टी की लुटिया डुबो दी। लोकतंत्र विकल्प पर चलता है और चुनाव में उपलब्ध विकल्पों में से किसी एक को चुनना होता है। हरियाणा के मतदाताओं को दस साल की एंटी इन्कंबेंसी मंजूर थी पर हुड्डा नहीं। हुड्डा ने एकला चलो वाला, जो तानाशाही रवैया अपनाया वह जनता को पसंद नहीं आया। हुड्डा ने पूरे 10 साल जनता से कोई संवाद नहीं रखा। ऐसे में ऐन चुनाव के मौके पर निकलना भी उन्हें फायदा नहीं पहुंचा सका। अगर कांग्रेस कुमारी शैलजा को मुख्यमंत्री घोषित कर देती, तो भाजपा बेहतर विकल्प की सूची से बाहर हो जाती। जातिवाद, तुष्टिकरण, अवसरवादिता, विचारधारा तब मायने रखती है, जब दूसरी बार कोई पार्टी चुनाव लड़ रही होती है। तीसरी बार में, तो सभी बदलाव चाहते हैं। लेकिन कांग्रेस यह मौका चूक गई।

बृजेश माथुर | गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश

 

उमर से उम्मीदें

आउटलुक का 28 अक्टूबर अंक पढ़ने को मिला। संपादकीय बेहद पसंद आया। मिलाजुला जनादेश जम्मू-कश्मीर में क्या रंग दिखाएगा इसका इंतजार है। वहां भाजपा की दाल नहीं गल पाई। फारूक अबदुल्ला की पार्टी नेशनल कांग्रेस को 42 सीटें मिल गई यह अति खुशी की बात है। कांग्रेस को 6 सीट मिलना सुखद नहीं रहा। जम्मू-कश्मीर की जनता ने कांग्रेस पार्टी को बहुत निराश किया। महबूबा मुफ्ती की पार्टी को मात्र तीन सीट मिलना दुखद लगा। अन्य का प्रदर्शन बेहतर रहा। उनका 10 सीट जीतना मायने रखता है। भाजपा को उम्मीद थी कि उसकी सरकार बनेगी मगर उसकी खिचड़ी नहीं पकी। जनता ने भाजपा से दूरी बनाकर दिखा दिया कि हर जगह उसके विचार नहीं चल सकते। चुनाव के बाद जम्मू-कश्मीर में शांति, तरक्की, आतंकवाद का खात्मा और बेरोजगारी दूर करना प्रमुख मुद्दा रहेगा। आशा है कि मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर की जनता की आकांक्षाओं को जरूर पूरा करेंगे। वैसे भाजपा खेल बिगाड़ने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ेगी। उमर भाजपा के हर कदम पर बारीक नजर रखें।

बद्री प्रसाद वर्मा अनजान | गोरखपुर, उत्तर प्रदेश

 

विश्वगुरु की हालत

आउटलुक की 14 अक्टूबर की आवरण कथा, ‘फूटा पैकेज का गुब्बारा’ ने पूरी स्थिति का बहुत अच्छे ढंग से जायजा लिया है। इन दिनों बहुराष्ट्रीय कंपनियां शैक्षणिक योग्यता और डिग्री की तुलना में अनुभव और कौशल को तरजीह दे रही हैं। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल, तो यही उठता है कि क्या आइआइटी छात्रों के पास बाजार के हिसाब से पर्याप्त कौशल नहीं है? हकीकत भी यही है कि इंजीनियरिंग के मौजूदा पाठ्यक्रम और बाजार की मांग में बहुत बड़ा अंतर है। सवाल शिक्षकों के ज्ञान और अनुभव का भी है। अच्छे शिक्षकों का आइआइटी में भी अकाल है। वे बस ज्ञान बांट रहे हैं, अपने छात्रों को दुनिया के हिसाब से तैयार नहीं कर रहे। इन्फोसिस के चेयरमैन नारायणमूर्ति भी आइआइटी इंजीनियरों की गुणवत्ता पर सवाल उठा चुके हैं। आज सौ में से महज 22.44 फीसदी आइआइटी युवाओं का प्लेसमेंट होना या नौकरी लगना, विश्व गुरु कहलाने वाले देश के लिए बेहद शर्मनाक एवं चिंताजनक है।

डॉ. हर्षवर्द्धन | पटना, बिहार

 

जनगणना का गणित

30 सितंबर के अंक में, ‘जाति जनगणना के दस अर्धसत्य’ बहुत जानकारीपूर्ण लगा। जाती जनगणना पर विवाद फिजूल है। केवल जनगणना से कुछ भी हासिल होने से रहा। देश में गरीबी चरम पर है। सिर्फ आरक्षण का ढोल पीटने से कुछ नहीं होगा। बल्कि जाति जनगणना से वैमनस्य ही फैलेगा। किस जाति के कितने लोग हैं, यह जानकर क्या होगा। बेहतर है सरकार अपने संसाधनों का सावधानी और समझदारी से उपयोग करे। अब तक अनुसूचित जाति और जनजाति की गणना नहीं मालूम है, तो भी उनके लिए सरकारें काम कर ही रही हैं। बेहतर हो कि आरक्षण की समीक्षा हो। इसके लिए जाति की गणना बिलकुल जरूरी नहीं है। दरअसल हर जाति में क्रीमी लेयर है। देखा जाए, तो यही क्रीमी लेयर वास्तविक गरीबों, वंचितों को आगे नहीं आने दे रही है। अगर हर जाति की क्रीमी लेयर आरक्षण का लोभ छोड़ दे, तो जो वास्तविक पिछड़े हैं, उन्हें बहुत मदद मिलेगी। भारत में कई पिछड़ी जातियां हैं, कुछ जातियां बहुत गरीब हैं, उन्हें मदद की दरकार है। जो भी आर्थिक रूप से कमजोर है, उसे ही आरक्षण मिलना चाहिए, फिर चाहे वह किसी भी जाति का हो। जाति जनगणना पर कोई आपत्ति नहीं है लेकिन परिवार की आर्थिक स्थिति का आकलन करने का भी उपाय हो, तो ही इस प्रक्रिया का लाभ होगा। आरक्षण को हमेशा लागू रखने से भारत कभी तरक्की नहीं कर पाएगा।

अरविन्द पुरोहित | रतलाम, मध्य प्रदेश

 

पुरस्कृत पत्र: कुर्सी का मोह

किसी से कोई चीज छीन ली जाए, तो दुख होना लाजमी है। ये चीज अगर मुख्यमंत्री की कुर्सी हो, तो दुख की कोई सीमा नहीं होगी। साधारण ताकत जब मनुष्य को बौरा देती है, तो सोच कर देखिए, मुख्यमंत्री का पद जाने पर कितनी पीड़ा होती होगी। चुनाव में हार कर सीट गंवाना अलग बात है लेकिन किसी आरोप के चलते कुर्सी छोड़ देना अलग। पहले बिहार में, फिर झारखंड में अब दिल्ली में दरअसल यही हुआ है। जो लोग राजनीति में आने से पहले बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, बुद्धिजीवी बने फिरते हैं वे भी दरअसल कुर्सी के मोह से बंधे रहते हैं। फिर चाहे वो लालू हों, हेमंत हों या केजरीवाल। सभी उस ताकत को छोड़ना नहीं चाहते, जो कुर्सी से उन्हें मिलती है। (28 अक्टूबर, कुर्सी न छूटो जाए)

कीर्ति धनवानी|जयपुर, राजस्थान

 

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