दिलचस्प होंगे नतीजे
‘मराठी महाभारत’, 25 नवंबर के अंक में महाराष्ट्र की राजनीति को विस्तार से समझाती है। पवार और उद्धव ठाकरे दोनों के लिए यह चुनाव करो या मरो का प्रश्न है। हालांकि यदि शरद पवार की पार्टी यदि बहुत अच्छा नहीं भी कर पाती है, तो उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ेगा। वे अपनी राजनीतिक उम्र जी चुके हैं। उन्हें जो हासिल करना था उन्होंने किया और अपने दम पर किया। लेकिन उद्धव के लिए अभी राजनीति का सफर लंबा है। महाराष्ट्र की 288 सदस्यीय विधानसभा में उद्धव का हिस्सा बड़ा न हुआ तो वह हो सकता है खेल से बाहर हो जाएं। सत्ता जिसे विरासत में मिलती है उसकी जिम्मेदारी भी बड़ी हो जाती है। इसलिए यह उद्धव की निजी लड़ाई भी है। अगर उद्धव अच्छा नहीं कर पाते, तो उनके पिता के नाम पर भी दाग लग जाएगा। हालांकि अब जोड़तोड़ की राजनीति में यह कहना भी कठिन है कि जो जीतेगा वही सरकार बनाएगा। फिर भी नतीजों को देखना दिलचस्प होगा।
अस्तित्व भारद्वाज | बीकानेर, राजस्थान
जोड़तोड़ की राजनीति
25 नवंबर के अंक में, ‘मराठी महाभारत’ में महाराष्ट्र की राजनीति का हर पहलू आया है। यह यदि उद्धव ठाकरे, शरद पवार की अग्निपरीक्षा है, तो यह नरेंद्र मोदी की भी अग्निपरीक्षा है। यदि वे महाराष्ट्र हारते हैं, तो यह उनका भी बड़ा नुकसान होगा। वे लोग कितनी भी जोड़तोड़ की रणनीति अपना लें, लेकिन मतदाता के आगे इन लोगों की एक नहीं चलेगी। भाजपा का कहने भर को जो राष्ट्रवाद है, उसकी हवा इस बार निकल जाएगी। जनता भी जानती है कि भाजपा क्या कर रही है। क्षेत्रीय राजनीति इस बार नई पहचान के साथ सामने आएगी। अगर यह क्षेत्रीय पार्टियों के लिए अस्तित्व बचाने की लड़ाई है, तो सत्तारूढ़ पार्टी भी इससे अछूती नहीं है। पिछले साल राकांपा दो धड़ों में बंट गई थी। लेकिन जनता इस बार धोखेबाज अजित पवार को सबक सिखा कर रहेगी। वे विधायकों को लेकर भले ही भाजपा के बगल में जाकर बैठ गए हैं लेकिन धोखा देने वाला कभी नहीं जीतते। सत्ता के लिए वे एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाले शिवसेना के गठबंधन महायुति की सरकार में शामिल हो गए थे। जो सत्ता के लिए अपने घर वालों को धोखा दे सकता है, वह जनता के साथ क्या विश्वास करेगा। अभी भले ही शरद पवार के पास सिर्फ 14 विधायक बचे हों लेकिन वे किंग मेकर थे और रहेंगे। अजीत के पार्टी छोड़ देने से भी शरद पवार का न कद कम हुआ है न उनके करिअर पर कोई असर हुआ है। उनके राजनैतिक करियर को खत्म होता देखने का सपना संजोए लोग इस बार फिर खाली हाथ रहेंगे। उन्हें ‘भटकती आत्मा’ कह कर उनकी हंसी उड़ाने वाले इस चुनाव में खुद हंसी का पात्र बन जाएंगे। नरेन्द्र मोदी ने उन्हें भाजपा में आने का सुझाव दिया था, कहीं ऐसा न हो कि मोदी को ही रांकपा में आना पड़े। शरद पवार को कमतर आंकना मोदी की सबसे बड़ी भूल साबित होगी।
दत्तात्रेय कुलकर्णी | मुंबई, महाराष्ट्र
लोकलुभावन वायदे
आउटलुक के 25 नवंबर अंक की आवरण कथा, ‘दांव पर विरासत’, पढ़कर लगा कि सत्ता के दावेदारों को अपने दम पर भरोसा नहीं रहा तभी चुनाव में जोड़-तोड़ गठजोड़ से लेकर लोकलुभावन वायदों पर जोर दिया जा रहा है। नेताओं को अपने काम पर विश्वास क्यों नहीं है। महाराष्ट्र और झारखंड दोनों ही राज्यों में येन-केन प्रकारेण सत्ता हासिल करने के लिए जोड़-तोड़ गठजोड़ से लेकर मुफ्त की रेवड़ियों तक हर संभव तरीका आजमाना पड़ा है। सत्ता के इस खेल में इस बात की परवाह किसी ने नहीं की कि इन राज्यों की पहले से खराब अर्थव्यवस्था के लिए उनकी चुनावी चालें कितनी घातक साबित होंगी। दरअसल सत्ता के खेल में सब कुछ जायज मान लिया गया है और इस काम में कोई पार्टी किसी से पीछे नहीं है। झारखंड के विधानसभा के चुनाव बता रहे हैं कि वहां विचारधारा से ज्यादा सत्ता की लालसा है। जब जिस दल को मौका मिल रहा है वह सत्ता हथियाने के लिए हर हथकंडा अपना रहा है। चुनाव पूर्व दलबदल अब भारतीय राजनीति का स्थाई चरित्र बन गया है। लोकसभा के दोनों राज्यों के चुनाव परिणाम इस बार शायद समीकरण बदल सकें।
शैलेन्द्र कुमार चतुर्वेदी | फीरोजाबाद, उत्तर प्रदेश
सत्ता लोलुपता
प्रथम दृष्टि में, ‘क्षेत्रीय दलों की भूमिका’ (25 नवंबर) अच्छा लगा। विपक्ष के कुनबे में विविधता में भी वैचारिक एकता नहीं रही। देश की एकता-अखंडता की रक्षक रही कांग्रेस अगर धारा तीन सौ सत्तर की समाप्ति का विरोध करे, कश्मीर के अब्दुल्ला वंश का समर्थन करे, शिवसेना अपनी मूल विचारधारा तजकर सत्ता मोह में कांग्रेसी कुनबे में जा बैठे, तो यह सत्ता लोलुपता है। हां, सैद्धांतिक वैचारिक विकल्प प्रस्तुत कर जनता से मत मांगे, तो अनुचित नहीं। केवल भाजपा हटाओ कहना तो सिर्फ राजनीतिक महत्वाकांक्षा है, सैद्धांतिकता नहीं। भारत में भावनात्मक ज्वार से बनी विपक्षी कुनबे की जनता पार्टी मात्र अठारह माह में बिखर गई। वीपी. सिंह सरकार जीत के बाद भी टूट गई। विपक्ष के एकता के कुनबे क्यों बिखर जाते हैं, सर्वविदीत है। अब राष्ट्रवाद के नाम पर केवल भाजपा है। बाकि दलों की वैचारिकता में राष्ट्र बाद में है। अंतरराष्ट्रीय राजनीति के परिप्रेक्ष्य में राष्ट्र हेतु कर्मठ नेतृत्व की जरूरत जो भाजपा पूरी कर रही है क्या शेष दल ऐसा कर पा रहे हैं?
अरविन्द पुरोहित | रतलाम, मध्य प्रदेश
चिंतन रहित
आउटलुक के 25 नवंबर के अंक में भारतीय क्रिकेट दल की अनपेक्षित पराजय पर आलेख पढ़ा। लेख सिर्फ विवरणात्मक वृत्तांत मात्र था। तर्कसम्मत विश्लेषण से विरत और चिंतन रहित। आखिर सशक्त भारतीय दल क्यों परास्त हुआ इस पर समग्र विचार नहीं था। क्या भारतीय दल ने आवश्यक रक्षण के स्थान पर अनियंत्रित आक्रमण नहीं किया? उन्होंने क्यों ऐसी वृत्ति दिखाई? उन पर अपेक्षित प्रदर्शन की बाध्यता न थी। बोर्ड से वे अचिंतित थे। क्या उन पर प्रतिस्थापन का अंकुश नहीं होना था? साथ ही उम्रदराज खिलाड़ियों की निवृत्ति भी होनी चाहिए। अन्यथा आशाजन्य परिणाम नहीं मिलेंगे। अच्छा तो यह है कि कुछ वय प्राप्त खिलाड़ी स्वेच्छा से निवृत्त हो जाएं। अंत में यह अभ्यर्थना है कि खिलाड़ी प्रतिपक्ष को कदापि अशक्त न समझें।
राजू मेहता | जोधपुर, राजस्थान
आसान जुड़ाव
25 नवंबर के अंक में, ‘इन्फ्लुएंसरों के भरोसे बॉलीवुड’ में बॉलीवुड के बढ़ते दायरे के बारे में बात की गई है। लेकिन यह दायरा नहीं विचारों की तंगी है। बॉलीवुड कभी नया नहीं खोज पाया है। उसे अपनी कहानियां कहने के लिए हमेशा से ही किसी न किसी सहारे की जरूरत रही है। पुरानी फिल्मों पर नजर डालें, तो वहां अखबार, संपादक और पत्रकार दिखाई देंगे। कुछ फिल्मों में किसी लेखक को किताब लिख कर प्रसिद्धि पाते दिखाया जाता है। फिर एक दौर टीवी का आया और कुछ वास्तविक टीवी चैनल और उनके एंकर भी फिल्मों में नजर आए। अब इन सबकी जगह सोशल मीडिया ने ले ली है। क्योंकि अब यह सभी माध्यमों से ऊपर है और ताकतवर बन कर उभरा है। खो गए हम कहां, कॉल मी बे या कंट्रोल से पहले भी बॉलीवुड कई जगहों पर सोशल मीडिया की ताकत को दिखा चुका है। सोशल मीडिया के जाल में फंस चुके हर उम्र के लोगों को ऐसे दृश्य या कहानियां बहुत पसंद आती हैं। क्योंकि वे लोग इसी दुनिया में गाफिल रहते हैं, तो आसानी से कहानियों के साथ खुद को जुड़ा हुआ पाते हैं। हां चिंता की बात यह है कि इन्फ्लुएंसरों को स्टीरियोटाइप दिखाना गलत है।
ऋतु नरूला | दिल्ली
प्रभावशाली किरदार
इस बार फिल्म पर आलेख, ‘इन्फ्लुएंसरों के भरोसे बॉलीवुड’, 25 नवंबर अच्छा लगा। भले ही कुछ लोगों को इन्फ्लुएंसरों को दिखाना उथला या अतार्किक लगे लेकिन यह आज की दुनिया का सच है। इन्फ्लुएंसर सभी के जीवन में ऐसे घुल मिल गए हैं, जैसे नमक और पानी। कौन ऐसा व्यक्ति है, जो रील न देखता हो। कौन है, जो किसी न किसी एक सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म से न जुड़ा हो। तो फिर फिल्मों में जब ये सब दिखाया जा रहा है, तो क्या गलत है। लोगों की पूरी दिनचर्या इन लोगों से प्रभावित है। हम मानें या न माने लेकिन हम सबने इस स्थिति को स्वीकार कर लिया है। इस लेख में एक वेबसीरीज के बारे में जिक्र किया गया है कि नायिका नैला बिना किसी परेशानी के हर समय अपना कैमरा चालू रखती है। लेकिन यह बिलकुल भी आश्चर्य करने वाली बात नहीं है। जनरेशन जेड ऐसी ही है। वे लोग बिना फोन के मिनट तो छोड़िए सेकंड भर नहीं रह सकते। एक बार को यह पीढ़ी बिना ऑक्सीजन के रहना सीख सकती है लेकिन फोन के बिना नहीं। यह आलेख आज के दौर का आईना है। इन फिल्मों, वेबसीरीज में वही दिखाया जा रहा है, जो चल रहा है। इसमें न कुछ गलत है, न अतिश्योक्ति। यह सब बातें तर्कों से परे हैं। जिन्हें सोशल मीडिया का नशा है, उनके शब्दकोष में वैसे भी तर्क शब्द है ही नहीं। सोशल मीडिया की ताकत को कम करके नहीं आंका जा सकता। जो हो रहा है, वही फिल्मों और वेब सीरीज में दिखाया जा रहा है।
के.के. अग्रवाल | मंडी, हिमाचल प्रदेश
पुरस्कृत पत्रः सतही निर्देशन
भारतीय फिल्म उद्योग के साथ बड़ी दिक्कत यह है कि इसका नाम तक उधार लिया हुआ है। यहां के लोग अपनी दुनिया को हॉलीवुड की तर्ज पर बॉलीवुड कहना पसंद करते हैं। खैर...लेकिन हाल के दिनों में यह उद्योग मनोरंजन के नाम पर कूड़ा परोस रहा है। न कहानी में दम न निर्देशन में। नकल की कहानियों को भी ये लोग ठीक ढंग से नहीं दिखा पा रहे हैं। इन्फ्लुएंसर या सोशल मीडिया को जितने सतही ढंग से हिंदी फिल्मों में दिखाया जा रहा है, उससे भगवान ही बचाए। ये लोग सोशल मीडिया का सहारा लेते हैं। लेकिन सोशल मीडिया से जब ये लोग चमत्कार हो कर दुनिया बदल देने वाले दृश्य गढ़ते हैं, तो इन पर तरस आता है। बॉलीवुड वाले बिना दिमाग लगाए काम में यकीन रखते हैं। (‘इन्फ्लुएंसरों के भरोसे बॉलीवुड’, 25 नवंबर।)
निधि शर्मा|कोलकाता, पश्चिम बंगाल