अश्लील की परिभाषा
भोजपुरी के अश्लील, द्विअर्थी गानों को लेकर 17 मार्च की आवरण कथा, ‘होइ गवा बाजारू हल्ला’ पढ़ी। स्त्री विरोधी होने के लिए बस स्त्री के अंग विशेष को टारगेट करना पड़ता है। अश्लीलता के सबके अपने-अपने तर्क हैं। किसी को कोई बात खराब लग जाती है, किसी को वही बात बहुत सामान्य लगती है। जो लोग कह रहे हैं कि कुछ कलाकारों की वजह से भाषा की मिठास गायब होती जा रही है, वे शायद गांवों में नहीं गए हैं। वहां अभी भी आत्मीयता और मिठास के साथ यह भाषा बोली जाती है। वहां के लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ता कि इस भाषा में कैसे गाने बज रहे हैं। दूसरी भाषाओं के गानों को इतना सुना नहीं जाता इसलिए पता नहीं चलता कि उन भाषाओं में क्या चल रहा है। भोजपुरी का अपना बाजार है। लेकिन इन लोगों की जरा सी भूल ने बाजार पर कब्जा जमाने वाली भाषा को बाजारू बना कर छोड़ दिया है।
संगीता सिन्हा | सीवान, बिहार
प्रसिद्धि का हथकंडा
किसी भी भोजपुरी भाषी के लिए यह दुख की बात है कि उसकी भाषा पर अश्लीलता का टैग लग जाए। भोजपुरी के मिठास भरे गाने पिछले कुछ साल से अश्लील हुए हैं। यह तर्क ही बेतुका है कि हनी सिंह को भी भोजपुरी की जरूरत पड़ी। हनी सिंह भोजपुरी के बिना भी बहुत प्रसिद्ध थे। जिन लोगों को भाषा या उसकी पवित्रता की समझ नहीं है, जो लोग अपनी भाषा से प्रेम नहीं करते वही लोग इस बात में गर्व कर सकते हैं कि हनी सिंह भोजपुरी के गाने का सहारा ले रहे हैं। हनी सिंह पहले से ही विवाद के लिए जाने जाते हैं। उन्हें लगा होगा कि भोजपुरी में वैसे ही अश्लीलता का बोलबाला है, तो क्यों न इनके साथ कुछ नया आजमाया जाए। वे तो चाहते ही होंगे कि नए एलबम के साथ कुछ विवादित घट जाए, तो उनका नाम हो। लोग उन्हें भूलने लगे थे। अगर लोग इस पर ध्यान ही न दें, तो विवाद पैदा करने के उनके सारे हथकंडे धरे के धरे रह जाएं।
सुनील गिरी | बक्सर, बिहार
खोई चमक
आउटलुक में, 31 मार्च की आवरण कथा, ‘होइ गवा बाजारू हल्ला’ पढ़ी। हनी सिंह तो मात्र बहाना है। भोजपुरी पहले से ही अपनी चमक खो चुकी है। किसी जमाने में भोजपुरी की फिल्में पारिवारिक मानी जाती थीं। लेकिन खेसारी लाल यादव, आम्रपाली, निरहुआ ने इसे सस्ते रूप में लोकप्रिय बना दिया। यह पहली बार नहीं है कि भोजपुरी पर अश्लील होने का आरोप लगा है। भोजपुरी अब सिर्फ अश्लील गानों तक ही सीमित नहीं रह गई है, बल्कि यह अब सॉफ्ट पोर्न उद्योग में बदल गई है। जितने खराब बोल हैं, उससे भी भद्दे ढंग से इन्हें फिल्माया जाता है। जब सब शहर के प्रभाव में आकर हिंदी बोलेंगे और भोजपुरी को सिर्फ रिक्शेवाले, ठेलेवालों की भाषा समझने लगेंगे, तो यही होगा। अश्लीलता की वजह से इन गानों की छोटे तबकों में भारी मांग होती है। जब सस्ती लोकप्रियता से कमाने की राह दिखने लगे, तो भाषा ऐसे ही खत्म हो जाती है।
रावी द्विवेदी | बनारस, उत्तर प्रदेश
प्रतिष्ठा हुई धूमिल
इससे ज्यादा दुख की बात क्या होगी कि हे गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो, बिदेसिया जैसी फिल्में देने वाली भोजपुरी इंडस्ट्री पर अब अश्लील होने के आरोप लगने लगे हैं। गीत संगीत, कहानी सबमें अव्वल रहने वाली भोजपुरी इंडस्ट्री में अब एक भी कलाकार ऐसा नहीं रहा, जो इस इंडस्ट्री को बचाने की कोशिश करे। सब एक-दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं लेकिन कोई यह नहीं कह रहा कि इस उद्योग को बचाने के लिए क्या किया जा सकता है। जो लोग इस उद्योग पर कब्जा जमाए बैठे हैं, उन्हें हटाना इतना आसान नहीं होगा। अब इस पूरे उद्योग ने व्यापार का रूप ले लिया है। व्यापार यानी पैसा। जहां भी पैसा होगा, वहां एक तंत्र होगा। तंत्र को तोड़ना सबसे कठिन काम है। भोजपुरी भाषियों को ही कोई राह निकालनी होगी।
रागिनी सिंह | पटना, बिहार
हर समाज की समस्या
‘भोजपुरी हनी ट्रैप’, (31 मार्च) के अंतर्गत उठाए गए मुद्दे करीब-करीब सभी आंचलिक भाषाओं की कम या ज्यादा समस्या है। हमारे समाज का बड़ा विरोधाभास यह है कि जो पुरुष अकेले में या दोस्तों के बीच जिन फूहड़ गानों का भरपूर लुत्फ उठाते हैं वही परिवार के सामने इस फूहड़पन को कोसते हैं और नैतिकता का स्वांग ओढ़ लेते हैं। जब तक समाज में ऐसा दोहरा मापदंड रहेगा, फूहड़ता भी हमेशा रहेगी।
अमित जोशी | दिल्ली
फिर मुखर दक्षिण
सवाल लाजिमी है कि क्या परिसीमन और भाषा के मोर्चे पर दक्षिण का विरोध जायज है? गौरतलब है कि संविधान का अनुच्छेद 82 और अनुच्छेद 343 (1) जहां क्रमश: परिसीमन की इजाजत और संघ की राजभाषा हिंदी को स्थापित तथा प्रोत्साहित करने का अधिकार केन्द्र सरकार को देता है। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन के हाई-वोल्टेज ड्रामा का क्या सबब है? केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तेलंगना में ऐसा कोई विरोध नहीं है। वहां के लोगों को त्रि-भाषा फार्मूले के माध्यम से हिंदी अपनाने में कोई समस्या नहीं हाानी नहीं चाहिए। क्या स्टालिन यह सब वोट की खातिर कर रहे हैं? संसदीय क्षेत्रों के परिसीमन और भाषा-विवाद पर उठे बवंडर से न केवल उत्तर-दक्षिण की खाई चौड़ी हो रही है बल्कि भाजपा के लिए यह नया सियासी िसरदर्द भी है, जिस पर इन्हें अपने विस्तार के लिए इस्तेमाल करने का आरोप है। (‘विंध्य आर-पार गहरी दरार’, 31 मार्च)।
डॉ. हर्षवर्धन कुमार | पटना, बिहार
अब क्या करेंगे, केजरीवाल
नए अंक (31 मार्च) में ‘केजरीवाल चले पंजाब?’ लेख अच्छा लगा। केजरीवाल हारने के बाद छटपटा रहे हैं कि अब वे आगे क्या करें। दिल्ली हाथ से निकलने के बाद केजरीवाल कुर्सी के लिए छटपटा रहे हैं। हो सकता है कि आने वाले दिनों में वे पंजाब के मुख्यमंत्री का पद छीन कर खुद इस पर बैठ जाएं। तीन साल पुरानी पंजाब सरकार में कब तक मान मुख्यमंत्री रह पाएंगे, यह कोई नहीं कह सकता। आशंकाएं तो हवा में तैरने ही लगी हैं। केजरीवाल ने पंजाब में जिस तरह की सक्रियता बढ़ाई है, उससे तो लग रहा है कि वे जल्द ही कुछ करने वाले हैं। विपासना के लिए वहीं जाना क्यों जरूरी है, यह भी समझ से परे है। लगता है, राज्य की सियासत में जल्द ही बदलाव आने वाला है।
मुस्कान वर्मा | मुंबई, महाराष्ट्र
केजरीवाल की नई चाल
31 मार्च के अंक में, ‘केजरीवाल चले पंजाब?’ लेख अरविंद केजरीवाल की राजनैतिक मंशा को बहुत अच्छे से बताता है। पंजाब में आप की सरकार है और दिल्ली हारने के बाद यह सरकार बहुत कीमती हो गई है। लेकिन खुद केजरीवाल ही अपनी सरकार को गिरा दें, तो कोई आश्चर्य नहीं होगा। केजरीवाल ने मजबूरी में मान को मुख्यमंत्री बना दिया था। लेकिन अब जब केजरीवाल के पास करने के लिए कुछ नहीं है, तो उन्हें लग रहा है पंजाब ही उनके लिए मुफीद है। भगवंत मान ‘डमी सीएम’ ही रहे हैं। पंजाब की सियासत कुछ ही दिनों में बहुत ज्यादा बदलने वाली है।
संजीव अरोड़ा | दिल्ली
ऑस्कर से आगे जहां
31 मार्च के अंक में, ‘ऑस्कर को इतनी अहमियत क्यों’, बहुत ही अच्छा लेख है। मीरा नायर की ऑस्कर संबंधी टिप्पणी से हर भारतीय को इत्तेफाक रखना चाहिए। वाकई यह समझ से परे है कि हम ऑस्कर के पीछे इतना क्यों भागते हैं। मीरा नायर बहुत ही अच्छी फिल्मकार हैं। उन्हें ऑस्कर नहीं मिला, इसका मतलब यह नहीं है कि उनका काम खराब है। नायर ने सिनेमा को अलग ही दृष्टि दी है। सलाम बॉम्बे और ए मॉनसून वेडिंग कोई भी नहीं भूल सकता है। हालांकि उस साल लगान ऑस्कर के लिए नामांकित हो गई थी। लगान के बजाय ए मॉनसून वेडिंग को चुना गया होता, तो निश्चित तौर पर यह फिल्म ऑस्कर ले आती। लेकिन क्या इससे मॉनसून वेडिंग की अहमियत कम हो गई। बिलकुल नहीं। तब फिर इस पुरस्कार के पीछे दौड़ना बेमानी है।
विनी मेहरा | जालंधर, पंजाब
विदेशी मानसिकता
31 मार्च के अंक में, ‘ऑस्कर को इतनी अहमियत क्यों’ पढ़ा। यह भारतीयों की विदेश के प्रति लालसा को दर्शाता है। विदेश का ठप्पा लगने के बाद हमें सभी चीजें बहुत अच्छी लगने लगती है। फिर चाहे वह फैशन हो, खानपान हो, पढ़ाई हो या फिल्म। ऑस्कर के बारे में भी यही हो रहा है। ऑस्कर पुरस्कार का भारत में इतना हल्ला है कि हर साल यह खबर सुर्खियों में रहती है कि इस साल कौन सी फिल्म ऑस्कर में जाएगी। जैसे यह ऑस्कर न हुआ, भगवान हो गया। हमारे यहां भी राष्ट्रीय पुरस्कार हैं, लेकिन उन्हें कोई तवज्जो ही नहीं देता है। बेहतर हो कि भारत के लोग इस विदेशी पुरस्कार की मानसिकता से उबरें। कई भारतीय फिल्मकार इतना अच्छा काम कर रहे हैं, उन पर ध्यान दें।
एस.के.झा | मधुबनी, बिहार
पुरस्कृत पत्रः बाजार और बाजारू
भोजपुरी भाषा में अश्लीलता को लेकर आवरण कथा (होइ गवा बाजारू हल्ला, 31 मार्च) पढ़ी। यह सिर्फ भोजपुरी की ही बात नहीं है। अश्लीलता कहां नहीं है। ऐसा साधन नहीं बचा है, जहां अश्लीलता ने पैर न पसार लिए हों। परिवार के साथ बैठ कर अब न कोई फिल्म देखी जा सकती है, न वेबसीरीज, न कोई स्टैंडअप कॉमेडी। तब ऐसे माहौल में सिर्फ भोजपुरी को ही कटघरे में क्यों रखा जाए। यह अलग बात है कि ऐसी अश्लीलता से हिंदी भाषियों को कोई फर्क नहीं पड़ता। भोजपुरी पर आरोप लगता है कि उसमें महिलाओं के प्रति कामुक और उत्तेजक शब्दों का इस्तेमाल होता है, लेकिन पंजाबी गायक जो महिलाओं से संबंधित गालियां देते हैं, वह क्या है। बेहतर हो, भाषा से इतर इस मानसिकता का विरोध करें।
सत्यकीर्ति वर्मा|उदयपुर, राजस्थान