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26 मई 2025 · MAY 26 , 2025

पत्र संपादक के नाम

पाठको की चिट्ठियां
पिछले अंक पर आई प्रतिक्रियाएं

खेल पिछड़ा

आउटलुक में 12 मई की आवरण कथा, ‘ब्रांड गेम’ पढ़कर लगता है कि अब खेल का क्रम दूसरा और ग्लैमर का पहला हो गया है। पहले भी खिलाड़ियों के प्रशंसकों की कमी नहीं थी। लेकिन मीडिया के अतिरेक के इस दौर में, हर खिलाड़ी मैदान से ज्यादा स्क्रीन पर दिखना चाहता है। खिलाड़ी एयरपोर्ट से निकल रहे हैं, तो रील, अपनी पत्नी के साथ कही हैं, तो रील। लगता है, जैसे इस पूरे दौर में खिलाड़ियों और उनके परिवार को देखने की होड़ मची हुई है। जिसके जितने इंस्टाग्राम फॉलोवर हैं, वह उतना ही बड़ा खिलाड़ी है। अब खेल से ज्यादा यह जरूरी हो गया है कि खिलाड़ी किसी नामी-गिरामी ब्रांड का एंबेसेडर बने। वरना उसका खिलाड़ी होना व्यर्थ है। विज्ञापनों से कमाई भी खेलने से बेहतर होती है। इससे खेल पिछड़ता जा रहा है। जब खिलाड़ी पूरे-पूरे दिन शूट में व्यस्त रहेंगे, तो खेल के लिए अभ्यास कब करेंगे। 

नित्यानंद | सतना, मध्य प्रदेश

चमक के आगे

आउटलुक की 12 मई की आवरण कथा, ‘खिलाड़ी नहीं, ब्रांड कहिए हुजूर!’ में सही लिखा गया है अब खेल सिर्फ मैदान पर नहीं खेले जाते। खिलाड़ी अब मैदान से बाहर भी चमक रहे हैं और इस चमक के आगे उन्हें अब सब फीका लगता है। खेल के बजाय वे विज्ञापनों, सोशल मीडिया में ज्यादा दिखाई देते हैं। बड़े खिलाड़ियों की नीलामी की रकम देख कर तो सिर ही चकराने लगता है। इन खिलाड़ियों के आगे फिल्मी दुनिया के सितारे भी छोटे लगने लगे हैं। आमिर खान, रणबीर कपूर जैसे फिल्म अभिनेता खिलाड़ियों के साथ गलबहियां करते विज्ञापनों में नजर आ रहे हैं। क्रिकेट स्टारों में तो विज्ञापन में आने के लिए होड़ मची हुई है। रोहित शर्मा, विराट कोहली, सूर्य कुमार यादव, मुहम्मद सिराज, यशस्वी जायसवाल, जसप्रीत बुमराह सहित सभी देशी और विदेशी बड़े क्रिकेट स्टार कमर्शियल विज्ञापनों में छाए हुए हैं। लगता है कि खेल के मैदान के ये धुरंधर खिलाड़ी नहीं बल्कि मॉडलिंग के सितारे हैं। विज्ञापन कंपनियों को भी आभास हो चला है कि फिल्मी हस्तियों से ज्यादा मांग पब्लिक में बड़े खिलाड़ियों की है। आखिर इन खिलाड़ियों को भी समझना चाहिए कि मैदान पर पसीना बहाने की वजह से ही वे विज्ञापन भी कर पाएंगे। यदि मैदान का साथ उन्होंने छोड़ा, तो वे कहीं के नहीं रहेंगे।

युगल किशोर राही | छपरा, बिहार

कानून के लंबे हाथ

आउटलुक के 12 मई के अंक में तहव्वुर राणा के प्रत्यर्पण पर, ‘आखिर प्रत्यर्पण’ लेख पढ़ा। अपराधी कितना भी बड़ा हो उसका बचना मुश्किल होता है। देश में धोखाधड़ी कर विदेश भागने वालों के लिए भी यह संदेश है कि वे बचकर आसानी से निकल नहीं सकते। राणा का पकड़ा जाना बाकी अपराधियों के लिए अच्छा संदेश है कि जो अपराध कर रहे हैं, वे कानून की गिरफ्त में आएंगे ही। अपराधियों पर नकेल कसने के लिए सरकार को ऐसे सख्त कदम उठाने ही चाहिए।

शैलेंद्र कुमार चतुर्वेदी | फीरोजाबाद, उत्तर प्रदेश

कड़ी सजा मिलेगी

आउटलुक के 12 मई के अंक में, ‘आखिर प्रत्यर्पण’ लेख पढ़ा। स्टोरी पढ़कर वह भयानक मंजर आंखों के सामने फिर आ गया। कितना कठिन दौर था वह। लेकिन सरकार ने तहव्वुर को भारत लाकर बहुत अच्छा काम किया है। जो भी व्यक्ति भारत में आतंक फैलाएगा, उसे सजा जरूर मिलेगी। आउटलुक में प्रकाशित सभी शहरनामा बहुत अच्छे रहते हैं। यह स्तंभ अनूठी जानकारी देता है।

विदर्भ अग्निहोत्री | लखनऊ, उत्तर प्रदेश

दहशत का दौर

12 मई के अंक में, ‘आतंक के सियासी समीकरण’ पढ़ा। पंजाब फिर नब्बे के दशक की ओर बढ़ने लगा है। यह बहुत खतरनाक स्थिति है। वह खौफनाक दौर यदि फिर आया, तो पूरे देश पर संकट आएगा। पंजाब में लगातार पुलिस थानों और चौकियों पर हमला हो रहा है। राज्य सरकार को चाहिए कि आतंकवाद पर काबू पाने के लिए हर संभव प्रयास करे। अगर अभी भी राजनैतिक पार्टियां वोट या सत्ता में उलझी रहीं, तो बहुत परेशानी आ सकती है। पंजाब में विधानसभा चुनाव दो साल बाद हैं। लेकिन सियासी कब्जे के लिए बिसात अभी से बिछ गई है। चरमपंथियों समूहों का यूं खुलेआम सरकार को चुनौती देना बड़े खतरे की चेतावनी है। 

पम्मी नारंग | चंडीगढ़

कौन ध्यान दे

‘बच्चों के पालन-पोषण का सवाल’ (12 मई), हर अभिभावक को पढ़ना चाहिए। इस फिल्म के बहाने कई मायनों में, हम उन बुनियादी सवालों की बात कर सकते हैं, जो हमसे छूट गए हैं। नौकरीपेशा माता-पिता के पास बच्चों को देने के लिए वक्त ही नहीं है। वे अपने में मस्त हैं और बच्चे अपने में। बच्चे घर में अकेले हैं और उन्हें पता ही नहीं कि समाज क्या है या उसकी मर्यादा क्या है। इन दोनों ही बातों को अलग कर नहीं देखा जा सकता। स्कूलों का माहौल ही अलग है। यहां अध्यापक कोर्स की बातें पढ़ा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। किशोरों के बीच विषाक्त मर्दानगी की संस्कृति पनप रही है लेकिन किसी को इसकी फिक्र नहीं है। परीक्षाएं मात्र नंबरों के लिए ली जा रही हैं। कौन प्रथम आया, कौन पीछे रह गया बस इसी की होड़ है। इस लेख में यह बिलकुल ठीक लिखा है कि ‘‘स्कूल कारखानों में बदल दिए गए हैं।’’ पाठ्येतर गतिविधियां सभी जगह कम होती जा रही है। आखिर इस सबका जिम्मेदार कौन है, इस पर हमें बात करना ही होगी।

नम्रता मलकानिया | दिल्ली

सुंदरता मन की

‘गहरे पैठा भेदभाव’ (28 अप्रैल), मन को छू गया। सोशल मीडिया पर भी इस बारे में खबर पढ़ी थी। लेकिन पत्रिका में विस्तृत ढंग से पढ़ना अलग अनुभव देता है। समाज की इस सोच को बदलना आज भी संभव नहीं हो सका है। स्त्री के लिए गोरा होना बहुत जरूरी है क्योंकि भारतीय समाज में सुंदरता का एकमात्र यही पैमाना है। साहित्य में हम कितनी भी सांवली सलोनी नायिकाओं की बात कर लें लेकिन असल जिंदगी में सभी की चाहत होती है कि यदि उनके यहां बेटी हो तो गोरी हो, बहू आए तो गोरी आए। ऐसा सोचने वाले लोगों को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि दबे हुए रंग की लड़की की प्रतिभा क्या है। जब समाज में आइएएस महिला को इस तरह की प्रताड़ना रंग के कारण उठाना पड़ रही है, तो सोचा ही जा सकता है कि सामान्य लड़कियों के साथ कैसा व्यवहार होता होगा।

सुप्रिया अवस्थी | लखनऊ, उत्तर प्रदेश

खूबसूरती का पैमाना

‘गहरे पैठा भेदभाव’ (28 अप्रैल), लेख एक तरह से पूरी स्थिति का पोस्टमार्टम करता है। सचमुच यह सवाल मौजूं है कि आखिर हम किस समाज में जी रहे हैं। हम आज भी गोरा-काला के आधार पर भेदभाव कर रहे हैं। यहां आज भी लाखों कंपनियां गोरा बनाने का सपना बेच रही हैं। इस झूठ से, कंपनियां लाखों- करोड़ों का मुनाफा कमा रही हैं। करने को इतने महत्वपूर्ण काम हैं लेकिन समाज रंगभेद में उलझा हुआ है। अगर सफल और आर्थिक रूप से स्वतंत्र शारदा मुरलीधरन को भी रंग को लेकर भेदभाव झेलना पड़े, तो समाज की मानसिकता को समझा ही जा सकता है। उनके आगे असंख्य सांवली-गरीब लड़कियों जो सह रही हैं, उसका अंदाजा ही लगाया जा सकता है? जब समाज में गोरापन ही सुंदरता और समझ का पर्याय बन जाए तो फिर बचेगा क्या? आज जब हम चांद और मंगल पर पहुंच रहे हैं, तो हमें दकियानूसी रंगभेदी सोच से उबरने की जरूरत है।

डॉ. हर्षवर्धन कुमार | पटना, बिहार

अशिक्षित लोग

‘गहरे पैठा भेदभाव’ (28 अप्रैल), समाज की ओछी मानसिकता को उजागर करता है। हम लाख कहें कि समाज का रुख रंग के प्रति बदला है लेकिन ऐसा नहीं है। इसका ताजा उदाहरण यह लेख बताता है। लेकिन सारदा मुरलीधरन ने भी उनके रंग पर तंज कसने वाले को करारा जवाब दिया। सारदा मुरलीधरन पढ़ लिख कर भी उसी रंगभेद का सामना कर रही हैं, यह दुखद है। समाज में ऐसे अशिक्षित बहुत से लोग हैं, जिनके पास मात्र डिग्री है, दिमाग या संवेदना नहीं। बेहतर हो कि ऐसे लोगों को उनके हाल पर ही छोड़ दिया जाए।

प्राची शर्मा | रांची, झारखंड

करारा जवाब

आउटलुक के 28 अप्रैल के अंक में, सारदा मुरलीधरन के बारे में पढ़ा। ‘गहरे पैठा भेदभाव’, उम्दा लेख है। आउटलुक जैसी व्यावसायिक और राजनीतिक विचारों वाली पत्रिका ने एक सामाजिक विषय पर इतना अच्छा लेख दिया इसके लिए धन्यवाद। यह बहुत जरूरी विषय है, जिस पर लगातार बात होती रहना चाहिए। सारदा मुरलीधरन यदि यह वाकया फेसबुक पर न पोस्ट करतीं, तो किसी को पता नहीं चलता। लेकिन उन्होंने अच्छा किया, जो यह बात साझा की।  

मीना सिकरवार | उज्जैन, मध्य प्रदेश

पुरस्कृत पत्रः खिलाड़ी भी ब्रांड

आउटलुक में 12 मई की आवरण कथा, ‘ब्रांड गेम’ इस पूरे दौर को बहुत अच्छे से समझाती है। अब खेल में ही वह गंभीरता नहीं, तो खिलाड़ियों से क्या उम्मीद रखें। खिलाड़ी भी खेल के बजाय विज्ञापनों से पैसे कमाने को ही ज्यादा महत्व देते हैं। एक बार कोई खिलाड़ी किसी प्रतियोगिता में नाम कमा ले या चमक जाए, तो उसे बाकी के जीवन की चिंता नहीं करना पड़ती, क्योंकि फिर बाद में वह खेले या न खेले, छोटी-मोटी चीजों का ही विज्ञापन करके वह कमा लेगा। ग्लैमर का इन खिलाड़ियों को इस कदर चस्का लग गया है कि ये लोग अब मैदान पर अभ्यास में पसीना बहाने के बजाय एयरकंडीशंड स्टूडियो में समय बिताना ज्यादा पसंद करते हैं। इसी वजह से आजकल के खिलाड़ियों का करिअर लंबा नहीं चल पाता।

नीति अग्रवाल|जयपुर, राजस्थान

 

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