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पाठको की चिट्ठियां
पिछले अंक पर आई प्रतिक्रियाएं

मुद्दा विकास हो

आउटलुक के 18 अगस्त के अंक में, ‘क्या है बिहार मॉडल’ समीक्षावादी विश्लेषण था। देश का शायद ही कोई ऐसा राज्य या शहर होगा जहां बिहार का व्यक्ति न हो। बिहार के लोगों से दूसरे राज्यों के शहर भरे हुए हैं। हकीकत यह है कि बिहार के गांव खाली पड़े हैं। बिहार के लोगों के समर्पण, मेहनत से दूसरे राज्य के शहर चमक रहे हैं। देश के सभी राज्यों के विकास में उनका योगदान अहम है। लेकिन यह दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि बिहार के लोगों के साथ दूसरी जगहों पर भेदभाव होता है। बिहार शिक्षा के क्षेत्र में भी देश में सबसे पिछड़े राज्यों में एक है। स्वास्थ्य सेवाओं का भी यहां बुरा हाल है। इस बार का बिहार विधानसभा चुनाव बिहार के लिए टर्निंग पॉइंट साबित होगा। इस बार युवा अपने वोट का प्रयोग धर्म-जाति पर न कर विकास के मुद्दे पर करें।

विजय किशोर तिवारी | नई दिल्ली

परिवर्तन का चुनाव

18 अगस्त के अंक में, ‘वाम वोटों में इजाफा होगा?’ अच्छा लेख है। इस लेख में बिहार विधानसभा चुनाव से संबंधित पूरा लेखा-जोखा सामने है। माले के उत्थान ने बिहार की मौजूदा राजनीति में खलबली पैदा कर दी है। दीपांकर भट्टाचार्य से ज्यादा जन सुराज पार्टी की मीडिया में चर्चा रहती है, जिसका चुनाव में कितना आधार है, यह भी स्पष्ट होना बाकी है। माले के लोग थोड़ी और मेहनत कर लें, तो वे लोग बिहार की किस्मत संवार सकते हैं। भाजपा और राजद ही मुख्य दल हैं, जो इस बार पूरा खेल खेलेंगे। नीतीश का यह आखिरी चुनाव हो सकता है, क्योंकि भाजपा ने अभी् तक उन्हें मुख्यमंत्री चेहरा घोषित नहीं किया है। चुनाव से पहले वोटर लिस्ट को दुरुस्त करने की विवादास्पद मुहिम चल रही है, जिसका विपक्ष विरोध कर रहा है जबकि कायदे से उसे चुनाव आयोग को पर्याप्त समय लेकर राष्ट्रीय स्तर पर निष्पक्ष ढंग से करना चाहिए। भाजपा अपना दांव चल रही है कि किसी सवर्ण को मुख्यमंत्री बनाएगी, यदि उसे अपना मुख्यमंत्री बनाने का मौका मिला तो। यह चुनाव बिहार की राजनीति में परिवर्तन लाकर इस राज्य की किस्मत को बदल देगा ऐसी उम्मीद की जा सकती है।

यशवंत पाल सिंह | वाराणसी, उत्तर प्रदेश

पद की गरिमा

18 अगस्त के अंक में, ‘धन(उ)खड़ क्यों गए’ लेख पढ़कर लगा कि देश के उपराष्ट्रपति जहां स्पष्ट विचारों और मुखर वक्तव्यों के लिए जाने जाते थे वहीं दूसरी ओर उनकी कार्यशैली को लेकर विपक्ष की आलोचना भी याद आती है। वे पारंपरिक उपराष्ट्रपतियों से भिन्न थे। उनके इस्तीफे को व्यक्ति केंद्रित न रखकर संस्थागत परिप्रेक्ष्य में देखने की आवश्यकता है। धनखड़ का इस्तीफा हमारी संवैधानिक संस्थाओं की कमजोर कार्यप्रणाली को दर्शाता है। लोकतंत्र की मजबूती इसी में है कि संवैधानिक पदों की गरिमा बनी रहे।

शैलेंद्र कुमार चतुर्वेदी | फिरोजाबाद, उत्तर प्रदेश

चुनौतियां कई

18 अगस्त के अंक में, ‘नीतीश की चुनौतियां’ बिहार के बारे में अच्छा लेख है। उसमें ठीक लिखा है कि मतदाता सूची के आधार पर नहीं यह चुनाव जनता की अदालत में लड़ा जाएगा। मतदाता सूची में नई या पुरानी होने से बहुत फर्क नहीं पड़ता। बिहार में हमेशा से ही सबसे बड़ा मुद्दा बिहार में बिगड़ती कानून-व्यवस्था रहा है। इस बार भी ठीक चुनाव से पहले राजधानी पटना सहित कई जगहों पर हत्याएं हुई हैं। कानून व्यवस्था लगता है बिलकुल चौपट हो गई है, बिहार में न लोग घर में सुरक्षित हैं न अस्पताल में। हथियारबंद लोग अस्पताल में ऐसे पहुंच गए, जैसे कहीं बगीचे में घूमने जा रहे हों। जादू-टोना की अफवाह के चलते पूरा परिवार जिंदा जला दिया जाता है। किसी को न डर है, न कोई रोकटोक। ऐसा रहा तो भगवान ही मालिक है।

सत्यभामा अवस्थी | झांसी, उत्तर प्रदेश

चिराग की चुनौती

18 अगस्त के अंक में, ‘नीतीश की चुनौतियां’, नीतीश कुमार और उनकी सरकार का बहुत अच्छे से लेखाजोखा प्रस्तुत करती है। नीतीश को टेलीविजन पर देख कर ही लगता है कि वे अपनी सुधबुध खो बैठे हैं। ऐसे में मुश्किल है कि वे इस बार चुनाव में कोई सक्रिय भूमिका निभा पाएं। यह निश्चित तौर पर उनका आखिरी चुनाव होना चाहिए। वे सरकार चलाने में अक्षम साबित हो रहे हैं। उनकी पार्टी के लोग कितना भी कहते रहें कि अगली सरकार भी नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही बनेगी, लेकिन इसकी सच्चाई सभी लोग जानते हैं। अगर नीतीश चुनाव में अपेक्षा के अनुरूप परिणाम नहीं ला पाते हैं, तो उसका बड़ा नुकसान भाजपा को होगा। नीतीश ने काम पर ठीक से ध्यान ही नहीं दिया वरना कानून-व्यवस्था इतनी न बिगड़ती। चुनाव से ठीक पहले ऐसी घटनाएं कहीं से भी पार्टी के हित में नहीं जाती हैं। 

एस.के.जाधव | उज्जैन, मध्य प्रदेश