उत्तराखंड की निर्माणाधीन सिलक्यारा-बड़कोट सुरंग से 28 दिसंबर को 41 मजदूरों को सुरक्षित निकाल लाने वाली बारह लोगों की टीम के छह सदस्य पश्चिमी उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं। इनमें पांच बुलंदशहर के हैं और एक कासगंज का है। सभी एक दूसरे को जानते हैं क्योंकि ये सभी कई साल से रॉकवेल कंपनी के लिए काम कर रहे हैं, जिसे दिल्ली के वकील हसन और मुन्ना कुरैशी पार्टनरशिप में चलाते हैं। दिलचस्प है कि घटना के समय से ही रैटहोल माइनर बताए जा रहे इन मजदूरों ने जिंदगी में खुद पहली बार यह नाम सुना है, वरना ये अपने को जैक पुशिंग करने वाला ही बताते रहे हैं। इन्हें ज्यादातर पानी, सीवर और गैस की लाइनें डालने का अनुभव है।
कासगंज के नसीरुद्दीन कहते हैं, “ये आप लोगों का ही दिया हुआ नाम है, हालांकि हमारे काम करने का तरीका तो चूहे जैसा ही है।”
विडंबना है कि ये मजदूर जैसा काम करते हैं, वैसी ही जिंदगी भी जीते हैं- विकास की चमचम रोशनी से दूर गांवों के आदिम अंधेरे में अपने परिवारों को छोड़ कर शहरों की तलछट में रोज गड्ढे खोदना और उससे मिलने वाली चार-पांच सौ की दिहाड़ी में बीवी-बच्चे पालना।
चुनौती का बुलावा
बुलंदशहर के अख्तियारपुर निवासी तीन भाई मोनू, अंकुर और देविंदर के साथ उनके पड़ोसी सौरभ और जतिन उत्तरकाशी हादसे के ठीक पहले दिल्ली के मुकुंदपुर में सीवर का काम कर दिवाली में गांव लौटे थे। उसी तरह नसीरुद्दीन भी दिल्ली के बेगमपुर में काम निपटा कर बदायूं के नानाकेरा में अपने परिवार के साथ थे।
नसीरुद्दीन का गांव कासगंज के मड़ावली में पड़ता है, लेकिन वे बीवी-बच्चों के साथ तीन साल से बदायूं में रिश्तेदारी में रह रहे हैं। वे बताते हैं, “जब से मैंने होश संभाला, मेरे गांव में तब से ही कोई सरकारी स्कूल नहीं है। अब प्राइवेट स्कूल में तो बच्चों को पढ़ा नहीं सकते, उतने पैसे ही नहीं हैं। इसीलिए मैं बच्चों को लेकर बदायूं आ गया।”
कासगंज में नसीरुद्दीन की तीन साढ़े तीन बीघा खेती है। उनके पिता खेतीबाड़ी का काम देखते हैं, लेकिन गंगा किनारे पड़ने के कारण ज्यादा पानी आ जाता है तो खेती बहुत कारगर नहीं होती। इसी चक्कर में उन्हें दिल्ली जाकर चार से पांच महीने काम करना पड़ता है।
वकील हसन ने देहरादून में कभी कोई काम किया था। वहां उनके जानने वाले किसी अशोक सोलंकी ने हादसे के बारे में बताते हुए उन्हें वहां बचाव कार्य में बुलाया था। हसन भाई का फोन नसीरुद्दीन के पास 24 दिसंबर की रात आया। वे बताते हैं, “वैसे तो हम लोग चार से पांच दिन एडवांस में काम लेते हैं लेकिन उस दिन हसन भाई ने हमें तैयार होने के लिए एक घंटा भी नहीं दिया।”
नसीरुद्दीन जब तैयार होने लगे और अपने बच्चों को उन्होंने बताया, तो वे जाने से मना करने लगे। वे हंसते हुए बताते हैं, “बीवी बोली, तुम हमसे लड़ोगे, इससे तो बढ़िया है कि चले ही जाओ। मैंने समझाया कि हम जाकर बस कोशिश करेंगे, अगर वे बच गए तो अच्छा ही होगा।”
वे बताते हैं, “वैसे तो हसन भाई हमें पांच सौ हजार रुपये देकर ट्रेन से आने को ही कहा करते थे, लेकिन इस बार उन्होंने कहा कि गाड़ी से चले आओ।”
“सत्रह हजार में उत्तरकाशी के लिए गाड़ी बुक की। गांव से बुलंदशहर के लड़कों को उठाते हुए 25 दिसंबर की सुबह साइट पर पहुंचा। अंदर किसी को घुसने को परमिशन नहीं थी। हमारे लिए पास बनवाया गया।”
यूपी से गए इन छह लड़कों में नसीरुद्दीन के अलावा केवल देविंदर की शादी हुई है। बाकी चार अविवाहित हैं। देविंदर, मोनू और अंकुर सगे भाई हैं, तीनों दलित हैं। सौरभ और जतिन कश्यप यानी धीमर जाति से हैं।
उधर वकील हसन और मुन्ना कुरैशी के साथ चार और लड़के दिल्ली से पहुंचे थे। कुल मिलाकर यूपी, दिल्ली की बारह लोगों की टीम 41 लोगों की संकटमोचक बनकर आई थी।
क्या हासिल?
मोनू बताते हैं, “हमने उन्हें पहले ही बता दिया था कि मशीन फंस जाएगी लेकिन वे नहीं माने।” नसीरुद्दीन कहते हैं, “नवयुग वालों का कहना था कि लास्ट मौका देकर देखा जाए। उन्होंने मशीन डाली। वो फंस गई। इस चक्कर में हमारे तीन दिन खराब हुए।”
वे बताते हैं, “हसन भाई ने कहा था कि छत्तीस से चालीस घंटे में काम हो जाएगा। अल्लाह का शुक्र है कि काम छब्बीस घंटे में ही हो गया!”
इस काम का कुछ मिला? इस सवाल के जवाब में नसीरुद्दीन और मोनू दोनों एक ही बात कहते हैं, “हमारी इस काम के लिए हसन भाई से पैसे की कोई बात नहीं हुई थी।” नसीरुद्दीन कहते हैं, “मैं बस ये मान कर गया था कि इसके तो कुछ नहीं मिलने हैं, अल्लाह का काम है।” मोनू कहते हैं, “हमें इस काम के लिए चुना गया, यही बड़ी बात है।”
सिलक्यारा-बड़कोट सुरंग में 41 मजदूरों को निकालने के लिए रैटमाइनर्स का सहारा लिया गया- मोनू कुमार, देवेन्दर कुमार और अंकुर (दाएं से बाएं) ने अहम भूमिका निभाई
जिन लोगों ने बिना किसी अपेक्षा या सौदे के छब्बीस घंटे में इकतालीस लोगों की जान बचाई, वे महज लाख दो लाख की प्रोत्साहन राशि पाने के लिए पैन कार्ड बनवाने की जद्दोजहद में लगे हुए हैं।
अभियान की सफलता के बीस दिन बाद 17 दिसंबर को मोनू अपने साथियों के पैन कार्ड आवेदन भरने में लगे हुए थे। फोन पर उन्होंने आउटलुक को बताया, “गांव के सीधे सादे लड़के हैं, इनके पास पैन कार्ड नहीं है। वही बनवाने आया हूं। पर्ची भर दी है, नंबर आ जाएगा तो पैसे मिलने में आसानी होगी।”
यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने इस बचाव टीम के प्रत्येक सदस्य को एक-एक लाख रुपये दिए हैं। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने भी पचास हजार का वादा किया है, लेकिन मोनू के मुताबिक ये पैसे अब तक नहीं मिले हैं।
हसन भाई की बारह लोगों की टीम को दिसंबर के तीसरे हफ्ते में सोनी टीवी वालों ने बंबई बुलाया था। नसीरुद्दीन बताते हैं कि वहां एक-एक लाख रुपये का बड़ा सा सजावटी चेक मिला, “पैसे खाते में आने हैं, ये चेक तो सजावट मात्र है।”
मोनू बताते हैं कि वहां प्रोग्राम में जो जज थे उन्होंने भी अपनी ओर से कुछ रकम देने की बात कही थी, “टोटल चार लाख रुपए देने की बात हुई थी। अभी तक तो नहीं आए।”
सवाल रुपये के प्रोत्साहन का इतना नहीं है, जितना इन मजदूरों की बदहाल जिंदगी का है। नसीरुद्दीन अहम सवाल उठाते हैं, “हम जहां मजदूरी करते हैं वे सारे सरकारी ठेके हैं। पानी, बिजली, गैस, सीवर की सरकारी लाइनें डलती हैं। उसमें काम हमारे जैसे प्राइवेट मजदूर करते हैं? क्यों?”
वे एक दिलचस्प बात कहते हैं, “बताते हैं कि रैटहोल माइनिंग सरकार ने 2014 में ही बंद करवा दी। फिर हमें काम कैसे मिल रहा है? हम तो बरसों से यही कर रहे हैं? वो भी सरकारी ठेके में?”
नसीरुद्दीन एक वाजिब मांग उठाते हैं, “मेरा बस इतना कहना है कि सरकारी काम सरकारी लेबर से करवाया जाए। ये नहीं कि हम कोई पचास हजार महीना मांग रहे हैं। पंद्रह हजार ही ठीक है लेकिन सरकारी काम प्राइवेट लेबर से न करवाया जाए जहां ठेकेदार अपनी जेब भरता है। हमें रेगुलर कर दिया जाए।”
जस मजदूर तस ठेकेदार
नसीरुद्दीन जिस पंद्रह हजार की बात कर रहे हैं, वह रकम पांच सौ दिहाड़ी के हिसाब से बनती है। उसमें भी छुट्टी करने पर पैसा कट जाता है। काम भी चार-पांच महीने से अधिक का नहीं होता। वे बताते हैं, “गर्मियों में सीवर लाइन में ऑक्सीजन कम होती है इसलिए काम नहीं होता। ज्यादातर काम सर्दियों में ही होते हैं।”
काम के भुगतान पर मोनू और नसीरुद्दीन दोनों ही वकील हसन की प्रशंसा करते हैं। इनके मुताबिक हसन भाई का पैसा पीछे से नहीं भी आता तब वे अपनी जेब से पैसे चुकाते हैं। नसीरुद्दीन कहते हैं, “ऐसे ही थोड़ी चार साल से उनके लिए काम कर रहा हूं। पैसे में उन्होंने कभी कमी नहीं की।”
वे बताते हैं कि हसन की कंपनी का भी हाल कोई ठीक नहीं है। उनके पार्टनर मुन्ना भाई खुद किराये के मकान में रहते हैं। कंपनी पहले एक बार बंद भी हो चुकी है। कई बार बड़ी कंपनियां हसन भाई का पैसा भी मार लेती हैं।
नासिर खान, जतिन और सौरभ (दाएं से बाएं) को अच्छे दिन की आस
उत्तरकाशी की सुरंग को नवयुग कंपनी बना रही है। बचाव का काम पूरा होने पर नवयुग ने वकील हसन को कोई पैसे नहीं दिए, बल्कि यह कहा कि वो उन्हें सरप्राइज देगी। नसीरुद्दीन बताते हैं, “आज तक उसने पेमेंट नहीं की है।”
मोनू कहते हैं, “देखो जी, अट्ठाइस को हम ऋषिकेश जा रहे हैं। कर्नल साहब ने बुलाया है, हो सकता है वहीं कुछ दें। अगर वकील भाई को कुछ मिला होता तो वे हमें भी देते। अब तक तो जानकारी नहीं है। बड़ी कंपनी वाले भी सोचते हैं कि नीची बिरादरी के मजदूर हैं सब, इनको क्या पैसे देने! ज्यादातर तो इसीलिए पैसे मार लेते हैं।”
‘डबल इंजन’ के दो डिब्बे
नसीरुद्दीन बताते हैं कि बचाव अभियान के बाद गांव लौटने पर गांव के लोगों में से किसी ने दो हजार, तो किसी ने पांच हजार ईनाम स्वरूप उन्हें दिए। वे कहते हैं, “गांव वालों को उम्मीद है कि इसी बहाने गांव में कुछ विकास हो जाए तो बेहतर!”
केंद्र और उत्तर प्रदेश दोनों में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है। अख्तियारपुर और मड़ावली दोनों पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गांव हैं। इन्हीं दोनों गांवों से छह कथित रैटहोल माइनर आते हैं, जहां न सरकारी स्कूल है, न सड़कें, और न ही कोई तालाब।
विकास का आलम यह है कि नोएडा से महज घंटे भर की दूरी पर बुलंदशहर के अख्तियारपुर में आवागमन के लिए सड़क ही नहीं है। दो ढाई हजार की गुर्जर बहुल आबादी वाला यह गांव अगौता ब्लॉक में पड़ता है।
मोनू बताते हैं, “ऐसा नहीं है कि हमारी बिरादरी का यहां प्रधान नहीं बना। फिर भी सड़क नहीं आई। कुछ गूजर लोग हैं जो सड़क बनने ही नहीं देते हैं।”
उधर कासगंज के मड़ावली में गलियों में पानी लगा रहता है क्योंकि निकासी के लिए कोई रास्ता नहीं है। सरकारी स्कूल भी नहीं है। कोई तालाब नहीं है। समाजवादी पार्टी के प्रभाव वाले इस गांव में साढ़े सात सौ वोटर हैं और आबादी मिश्रित है। ग्राम प्रधान अमरपाल सिंह यादव हैं जो कई बार हारने के बाद अबकी चुने गए हैं। नसीरुद्दीन ने खुद भी इन्हें वोट दिया था, लेकिन उन्हें प्रधान से बहुत उम्मीदें नहीं हैं।
नसीरुद्दीन हंसते हुए कहते हैं, “दो-तीन बार के हारे हैं, तो पहले वे अपना कोठा भरेंगे, उसके बाद कुछ बचेगा तो विकास करेंगे!”
मोनू कहते हैं कि गांवों और मजदूरों के बारे में सरकार नहीं सोचती, यही दिक्कत है। उनके मुताबिक, “मजदूर यूनियन के लोगों ने हमारा सम्मान किया है। गांव के लोगों ने हमें इज्जत दी है। बाकी, दस पांच लाख मिल ही गए तो हमारा क्या होना है?”
मोनू अफसोस जताते हैं कि जिन इकतालीस मजदूरों को इन लोगों ने बचाया वे इनका नाम तक नहीं लेते, “हमारे यहां कोई सीएम, कोई विधायक नहीं आया। वो इकतालीस मजदूर भी केवल मोदी का ही नाम लेते हैं।”
बंबई से लौटने के बाद नसीरुद्दीन भागे-भागे दिल्ली से 16 दिसंबर को घर आए क्योंकि उनका बच्चा बीमार था। वे 27 को फिर लौटेंगे क्योंकि अगले दिन सम्मान कार्यक्रम के लिए ऋषिकेश जाना है। वे कहते हैं, “लाख दो लाख और मिल भी गए तो क्या, हमें तो गड्ढा खोद कर ही खाना है।”
मजदूरों का सवाल
फिलहाल तो इस महीने भर सौरभ, अंकित, देविंदर, मोनू, जतिन और नसीरुद्दीन की जिंदगी में थोड़ी राहत है कि उन्हें यहां-वहां सम्मान के लिए बुलाया जा रहा है, लेकिन जब इस सामूहिक उपलब्धि की ताजगी ठंडी होगी तब क्या होगा?
अपने बीमार बच्चे की तीमारदारी में लगे नसीरुद्दीन इस सवाल पर कहते हैं, “आप सोचो, जो मजदूर फंसे थे वे मर जाते तो उन्हें कौन पूछता? और वे हमारे बगैर बच जाते तो सब जगह किसकी फोटो छपती?”
किसकी? इस सवाल पर नसीरुद्दीन कहते हैं, “मेरा बस इतना ही कहना है कि इस घटना के बहाने मजदूरों के हितों पर बात होनी चाहिए। आप जोर देकर लिखना कि सरकारी काम में प्राइवेट लेबर और ठेकेदारी बंद होनी चाहिए क्योंकि इसके चलते आज जो बड़ा है वो और बड़ा होते जा रहा है।”
मोनू फिलहाल इस बात से गदगद हैं जिंदगी में उन्हें पहली बार इतना सम्मान मिला है। मीडिया वाले उन्हें फोन कर के पूछ रहे हैं कि आप थोड़ी देर समय दे सकते हैं क्या। वे कहते हैं, “हमने तो कभी ऐसा सोचा ही नहीं था।” बस उनकी एक बेचैनी है, कि इस उपलब्धि के बहाने ही सही कोई मीडिया वाला उनके गांव जाकर देश के विकास की सही तस्वीर दिखा सके। नसीरुद्दीन की प्राथमिकता है कि उनके बच्चे पढ़-लिख जाएं और यह देश मजदूरों के हालात पर खुल के चर्चा करे।