बहुत संभव है कि इस महीने के अंत तक कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा का ठिकाना दिल्ली से बाहर हो जाए। शायद लखनऊ में उनका नया पता गोखले मार्ग इलाके में कौल हाउस हो। कौल हाउस, पंडित जवाहरलाल नेहरू की रिश्तेदार तथा पूर्व केंद्रीय मंत्री दिवंगत शीला कौल का घर रहा है। उम्मीद यही है कि प्रियंका के इस फैसले का उत्तर प्रदेश में कांग्रेस कार्यकर्ताओं में खुशी होगी। वैसे, इसमें तेजी उनके दिल्ली में 35, लोदी एस्टेट का बंगला खाली करने के केंद्र के नोटिस के बाद आई। अब यह देखना है कि प्रियंका की लखनऊ में मौजूदगी क्या राजनीतिक रूप से अहम राज्य में कांग्रेस में जान फूंकने में मददगार हो पाएगी। प्रदेश कभी कांग्रेस का गढ़ रहा है लेकिन नब्बे के दशक में मंडल और कमंडल राजनीति की वजह से पार्टी हाशिए पर ठेल दी गई और 1991 से ही पार्टी में जान फूंकने की कई रणनीतियां नाकाम रही हैं। 2009 के लोकसभा चुनावों के दौरान राहुल गांधी पार्टी को सफलता दिलाने में कुछ हद तक कामयाब हुए थे। उस समय पार्टी राज्य की कुल 80 संसदीय सीटों में से 21 सीटें जीतने में कामयाब हो गई थी। यह 1991 के बाद से पार्टी का बेहतरीन प्रदर्शन था। हालांकि, जल्द ही यह कामयाबी फीकी पड़ गई। 2012 के विधानसभा चुनावों में राहुल के आक्रामक प्रचार अभियान, दिग्विजय सिंह की चतुर रणनीति भी कांग्रेस का पतन रोकने में नाकाम रही। 2017 विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव के साथ मिलकर राहुल ने दूसरा प्रयास किया। लेकिन सपा-कांग्रेस गठबंधन भी कमाल नहीं दिखा सका। पिछले साल 23 जनवरी को, जब राहुल (तब बतौर कांग्रेस अध्यक्ष) ने प्रियंका को पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभारी महासचिव नियुक्त किया (ज्योतिरादित्य सिंधिया को पश्चिमी उत्तर प्रदेश का प्रभार दिया गया था) था, तो उन्होंने स्वीकार किया था कि उन्हें किसी भी तरह के फौरी नतीजे की उम्मीद नहीं है। राहुल सही भी थे। 2019 के लोकसभा चुनाव में प्रियंका अमेठी सीट बरकरार रखने में भी मदद नहीं कर सकीं। उत्तर प्रदेश से कांग्रेस की अकेली विजेता रायबरेली से सोनिया गांधी थीं।
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस में जान फूंकने की प्रियंका की कोशिशें अब तक छिटपुट ही रही हैं। पिछले साल जुलाई में सोनभद्र में हुई क्रूर जाति-हिंसा की घटना पर उन्होंने सही दिशा में कदम बढ़ाया, लेकिन राज्य की योगी आदित्यनाथ की सरकार के खिलाफ राज्यव्यापी आंदोलन खड़ा करने में विफल रहीं। इस साल की शुरुआत में, लखनऊ में वे सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों के साथ जुड़ीं, लेकिन कोरोनोवायरस संक्रमण की वजह से लॉकडाउन से उनकी कोशिशें थम गईं। पिछले तीन महीने से प्रियंका गांधी लगातार विभिन्न मुद्दों को लेकर आदित्यनाथ सरकार पर हमलावर रही हैं। चाहे लॉकडाउन के दौरान गरीब- मजदूरों को घर वापसी के लिए बस मुहैया कराने की कोशिश हो या सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की नियुक्ति घोटाले का आरोप या राज्य में बिगड़ती कानून-व्यवस्था की स्थिति, हर मामला वे उठाती रही हैं। बावजूद इसके कांग्रेस में जान फूंकने के सारे प्रयास उन्हीं तक सीमित हैं। राज्य में दशकों से हाशिए पर होने की वजह से कांग्रेस का कार्यकर्ता आधार खत्म-सा हो गया है, इसलिए प्रियंका को कार्यकर्ताओं की नई फौज तैयार करनी होगी। उनके पास इसका अवसर भी है, क्योंकि राज्य में दो क्षेत्रीय ताकतें, मायावती की बहुजन समाज पार्टी और अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी फिलहाल मोर्चे से गायब-सी हैं।
अगर केंद्रीय जांच एजेंसियां उनके पति रॉबर्ट वाड्रा के खिलाफ जांच फिर शुरू करती हैं, तो यह भाजपा की राजनैतिक धौंस जमाने जैसा आभास दे सकता है और प्रियंका को सहानुभूति कार्ड खेलने का मौका मिल सकता है। हालांकि, जमीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं की गैर-मौजूदगी में पार्टी में जान फूंकने की उनकी क्षमताएं जाहिर नहीं हुई हैं, इसलिए कांग्रेस को राज्य में पैर जमाने के लिए प्रियंका को लखनऊ में महज पता-ठिकाने से ज्यादा बहुत कुछ करने की जरूरत पड़ सकती है।