मध्य प्रदेश में फिर शिवराज सिंह चौहान का राज आ गया। 61 वर्ष के शिवराज सिंह चौथी बार मुख्यमत्री बने हैं, लेकिन यह राह आसान नहीं है। मोदी-शाह के करीबी और भरोसेमंद कहे जाने वाले नेताओं को पीछे छोड़कर शिवराज ने मुख्यमंत्री का ताज पाया है। शिवराज के सामने भाजपा नेताओं के साथ कांग्रेस से भाजपा में आए नेताओं में तालमेल बैठाने की भी चुनौती होगी। अब तक उनके निशाने पर रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया को वे कैसे साधते हैं, यह भी बड़ा सवाल होगा। शिवराज को मुख्यमंत्री की कुर्सी पाने में जातिगत और क्षेत्रीय समीकरण का फायदा मिला। शिवराज सिंह की असली परीक्षा तो उपचुनाव में होगी। कांग्रेस के कितने बागी विधायकों को वे उपचुनाव जिताकर ला पाते हैं, इस पर उनका भविष्य निर्भर करेगा।
मध्य प्रदेश में भाजपा और कांग्रेस के बीच खुंदक की लड़ाई है। कमलनाथ सरकार गिरने के बाद मुख्यमंत्री के लिए भले ही भाजपा के भीतर कई नाम चले, लेकिन प्रतिकूल परिस्थिति में भाजपा के पास राज्य में शिवराज के अलावा कोई दूसरा नेता नजर नहीं आया, जो संकट में मुकाबला कर सके। भाजपा ने राज्य में 2018 का विधानसभा चुनाव उन्हीं के नेतृत्व में लड़ा था। तब वह कांग्रेस से केवल पांच सीटों से पीछे रहे। भाजपा का वोट प्रतिशत कांग्रेस से कुछ ज्यादा रहा पर पार्टी सरकार नहीं बना पाई। मुख्यमंत्री की कुर्सी से उतरने के बाद भी शिवराज जनता के बीच सक्रिय रहे। राज्य में भाजपा की सरकार न बन पाने के बाद शिवराज निशाने पर रहे और उनके विरोधियों ने उन्हें राज्य की राजनीति से बेदखल करने की कोशिश भी की। तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह ने उन्हें भोपाल में एक राजनैतिक प्रदर्शन की अनुमति नहीं दी थी, पर शिवराज डटे रहे और मध्य प्रदेश न छोड़ने और 'टाइगर जिंदा है' जैसे डायलॉग से अपनी जिजीविषा दिखाते रहे।
230 सदस्यीय मध्य प्रदेश विधानसभा में बहुमत के लिए 117 विधायक होने चाहिए। भाजपा के पास अभी 107 विधायक हैं। 22 विधायकों के इस्तीफे और दो विधायकों के निधन के कारण सदन की सदस्य संख्या 206 रह गई है। इस आधार पर शिवराज की सरकार ने सदन में विश्वास मत जीत लिया। उसे बसपा के दो, सपा के एक और दो निर्दलीय विधायकों का भी समर्थन मिल गया। विधानसभा की खाली 24 सीटों के लिए उपचुनाव में कम से कम 10 सीटें जीत कर लाना होगा, तभी बहुमत के आंकड़े को वह छू सकेगी। उपचुनाव वाली 24 सीटों में से अधिकांश चंबल और मध्य भारत क्षेत्र की हैं। ये सिंधिया के प्रभाव वाली सीटें हैं। 2018 के चुनाव में सिंधिया के चेहरे के साथ आरक्षण आंदोलन का भी लाभ कांग्रेस को मिला था। विधानसभा चुनाव से पहले आरक्षण के मुद्दे पर सवर्ण भाजपा के रुख से नाराज हो गए थे। अब चंबल संभाग में भाजपा के पास तीन बड़े चेहरे केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, भाजपा प्रदेश अध्यक्ष बी.डी. शर्मा और ज्योतिरादित्य सिंधिया हैं।
चंबल और मध्य भारत क्षेत्र में विधानसभा की कई सीटों पर सिंधिया राजपरिवार के प्रभाव के चलते ज्योतिरादित्य को साथ लेकर चलना शिवराज की मजबूरी होगी। कहा जाता है चंबल-ग्वालियर क्षेत्र में महल आगे-आगे चलता है, पार्टी पीछे-पीछे। चाहे वह कांग्रेस हो या भारतीय जनता पार्टी। पिछले चालीस साल से यहां की सियासत कांग्रेस केंद्रित रही। माधवराव सिंधिया के रहते महल-कांग्रेस ही पनपी। जनसंघ और भाजपा के संस्थापक होते हुए भी विजयाराजे सिंधिया कभी भी बेटे की राह में रोड़ा नहीं बनीं। ज्योतिरादित्य के भाजपा में आते ही महल-कांग्रेस के कट्टर समर्थक धर्मसंकट में हैं। ठीक ऐसा ही संकट भाजपा के उन समर्पित कार्यकर्ताओं के सामने आ खड़ा हुआ है, जिन्होंने रात-दिन एक करके पार्टी को इलाक़े में बचाए रखा है। कांग्रेस विरोध की धारा से नरेंद्र सिंह तोमर, प्रभात झा और नरोत्तम मिश्रा जैसे नेता निकले। अब उनके कार्यकर्ता ही उनके सामने सवाल खड़े कर रहे हैं, क्योंकि ज्योतिरादित्य सिंधिया कह चुके हैं कि उनके समर्थक सभी 22 विधायकों को टिकट मिलेगा। यानी अब भाजपा ही भाजपा से लड़ेगी।
कांग्रेस 22 सीटों पर कब्जा बरकरार रखने की हरसंभव कोशिश करेगी। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि 2018 में इन सीटों में हार-जीत का अंतर काफी कम वोटों का रहा था। ऐसे में काफी कम वोटों से हारने वाले भाजपा नेता कांग्रेस से आए लोगों को कैसे पचा पाएंगे। खासकर जयभान सिंह पवैया जैसे नेता, जिनकी राजनीति ही सिंधिया परिवार के विरोध से चलती है। मध्य प्रदेश में शिवराज के प्रतिद्वंद्वी के तौर पर नेताओं की एक फेहरिस्त है, जिसमें उमा भारती, प्रभात झा, नरेंद्र सिंह तोमर, कैलाश विजयवर्गीय, राकेश सिंह, नरोत्तम मिश्रा, रघुनंदन शर्मा और गोपाल भार्गव प्रमुख हैं। मुख्यमंत्री की दौड़ में तोमर और नरोत्तम मिश्रा तो शिवराज के बराबर ही चल रहे थे। लोग नरेंद्र सिंह तोमर को मुख्यमंत्री के रूप में देखने भी लगे थे। भाजपा के भीतर कुछ लोगों ने सीएम तोमर फेसबुक पेज भी बना लिया था। लेकिन कमलनाथ जैसे दिग्गज नेता की सरकार गिराकर भाजपा की सरकार बनाने में शिवराज ने जो भूमिका निभाई, उससे उन्होंने आलोचकों की बोलती बंद कर दी है। शिवराज ने कांग्रेस की तलवार से अपने विरोधियों को पटखनी दी है। ज्योतिरादित्य सिंधिया को साथ लेकर उन्होंने अपने दलीय सहयोगियों और आलोचकों को साफ संदेश दिया है कि राष्ट्रीय स्तर पर भले ही उनकी ढाल के रूप में सुषमा स्वराज और अरुण जेटली अब नहीं रहे, मगर अब सिंधिया का साथ उनके राजनीतिक भविष्य को संरक्षित करने वाला हो सकता है। पर शिवराज को याद रखना होगा कि पिछली तीन पारियों की तरह चौथी पारी आसान नहीं रहने वाली। तीन पारियां उन्होंने अपने लोगों के साथ खेली। चौथी पारी में अपनों के साथ पराए लोग भी होंगे।
मुख्यमंत्री के रूप में उन्हें ज्योतिरादित्य के हर छोटे-बड़े काम करने होंगे। सिंधिया घराने की यह परंपरा रही है। अर्जुन सिंह और दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री होते हुए भी महल का विरोध करने का साहस कभी नहीं जुटा पाए। तब सिंधिया परिवार की हरी झंडी के बिना ग्वालियर-चंबल संभाग में पत्ता नहीं हिलता था। ज्योतिरादित्य सिंधिया की दादी विजयाराजे सिंधिया ने 1967 में जब संविद सरकार बनाई और गोविंद नारायण सिंह को मुख्यमंत्री बनाया तो 36 विधायक लेकर कांग्रेस से आए गोविंद नारायण सिंह को लंबे समय तक महल के रिमोट पर चलना पड़ा था। आखिर में ऐसी स्थिति आई कि उन्होंने विजयाराजे सिंधिया से हाथ जोड़ लिए कि वे अब उनके इशारे पर काम नहीं कर पाएंगे। इसके बाद पूरी संविद सरकार गोविंद नारायण सिंह के नेतृत्व में वापस कांग्रेस में चली गई। शिवराज को देखना होगा कि वे भी अपनी पार्टी के 107 विधायकों के बहुमत से बने मुख्यमंत्री हैं। देखते हैं यह बेमेल शादी कब तक चलती है।
शिवराज को खजाना भी खाली मिला है। मुख्यमंत्री के रूप में कमलनाथ भी इसका रोना रोया करते थे। किसान, व्यापारी, कर्मचारी और नौजवान सारे वर्गों को संतुष्ट करना आसान काम नहीं है। किसानों की कर्जमाफी पिछली सरकार के गले की हड्डी बन गई थी। राज्य में बेरोजगारी की स्थिति भी भयावह है। राज्य में 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को मोदी के नाम पर वोट मिले थे। जनता सिंधिया के दल-बदल को किस रूप में लेती है और उपचुनाव में क्या स्थिति होती है, यह समय बताएगा। लेकिन एक बात साफ है कि चौथी पारी को सफल और यादगार बनाने के लिए शिवराज को नए अंदाज में काम करना होगा। तीसरी पारी में उन पर ब्यूरोक्रेसी के हाथ में खेलने का आरोप लगा था, उन्हें इससे मुक्त होना होगा।
पार्टी के भीतर ढेर सारे असंतुष्टों को साथ लेकर चलना भी शिवराज के लिए टेढ़ी खीर हो सकती है। संतुलन साधने के लिए सिंधिया खेमे से एक और भाजपा नेता को उपमुख्यमंत्री बनाने की बात चल रही है। कांग्रेस से आए दस सिंधिया समर्थकों को मंत्री पद भी मिल सकता है। यह कैबिनेट विस्तार के समय साफ होगा। मध्य प्रदेश की सरकार में मुख्यमंत्री के अलावा 34 मंत्री बनाए जा सकते हैं। कुल मिलाकर शिवराज की चौथी पारी का सफर कांटों भरा है। ऐसे में एक बात तय है कि अगर शिवराज इस पारी में चक्रव्यूह को भेदकर बाहर निकल आए तो भारतीय जनता पार्टी की अग्रिम पंक्ति के नेताओं में उनका स्थान पक्का हो जाएगा।