बात 2003 के शुरुआत की है। हसीब द्राबू मुख्यमंत्री के आर्थिक सलाहकार के नाते घाटी लौटे थे। वहां पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के संस्थापक मुफ्ती मोहम्मद सईद के नेतृत्व में दो पार्टियों की गठबंधन सरकार थी। उस साल राज्य के इतिहास में पहली बार शून्य घाटे का बजट पेश हुआ, जिससे विपक्षी दल नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) भी वाह-वाह कर उठा था। दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से पीएचडी द्राबू पीडीपी प्रमुख सईद के वफादार माने जाने लगे। हालांकि, वे 2014 में राज्य विधानसभा चुनावों के ऐन पहले ही पार्टी में शामिल हुए और चुनाव जीत गए। लेकिन, अब पीडीपी के साथ 15 साल का उनका रिश्ता कड़वा हो चला है और जम्मू-कश्मीर की सत्ताधारी पार्टी ने उन्हें वित्त मंत्री के पद से विदा कर दिया है।
विवादों से चोली-दामन जैसे नाते के लिए चर्चित श्रीनगर के रहने वाले 57 वर्षीय द्राबू को दिल्ली में उनके एक भाषण के ठीक तीन दिन बाद 12 मार्च को चलता कर दिया गया। उद्योग संगठन पीएचडी चैंबर ऑफ कॉमर्स ऐंड इंडस्ट्री के उस कार्यक्रम में उन्होंने यही तो कहा था “कश्मीर कोई राजनीतिक मुद्दा नहीं है। वह एक समाज है जिसके फिलहाल कुछ सामाजिक मुद्दे हैं। हम अपनी खास जगह तलाशने की कोशिश कर रहे हैं।”
भाजपा के साथ गठजोड़ में महत्वपूर्ण भूमिका निभा चुके द्राबू की प्रशासन में पैठ गहरी हो गई थी। 2015 में द्राबू और भाजपा महासचिव राम माधव के बीच वह गठजोड़ का एजेंडा तैयार हुआ था जिसके बूते पीडीपी से भाजपा का गठबंधन हो सका, वरना दोनों के नजरिए में आकाश-पाताल का अंतर रहा है। पार्टी में उनके कुछेक सहयोगी उस गठजोड़ दस्तावेज पर रजामंद नहीं थे जिससे पीडीपी अपने कुछ चुनावी वादों पर मौन रहने को मजबूर हो गई। इनमें एक था विवादास्पद सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून को हटाना।
मगर पहले राष्ट्रीय राजधानी में नौ मार्च को चुनिंदा राजदूतों और उद्योगपतियों की सभा में द्राबू के बयान पर गौर करें। उन्होंने कहा था कि जम्मू-कश्मीर कोई टकराव का क्षेत्र नहीं है, कश्मीरी नेता, “पिछले सात दशकों से गलत दिशा में बहते रहे हैं। इस दौरान राजनैतिक हालात कभी नहीं सुधरे।” यह बयान श्रीनगर में पीडीपी नेतृत्व को नागवार गुजरा। सो, उसने द्राबू से सफाई मांगी। वैसे भी, पीडीपी के कई नेता गठजोड़ मसविदे के राजनैतिक एजेंडे पर अमल न हो पाने के लिए उन्हें ही दोषी ठहराते रहे हैं। लेकिन उनके ताजा बयान से खटास बेहद बढ़ गई तो मुख्यमंत्री ने उन्हें 12 मार्च की देर शाम अपने सरकारी आवास पर एक बैठक के लिए बुलाया। उस बैठक में उन्हें मंत्री पद से विदा होने का फरमान सुना दिया गया।
असल में पीडीपी के नेता इससे नाराज हो उठे कि द्राबू कश्मीर मसले पर जम्मू-कश्मीर सरकार के नजरिए के आधिकारिक प्रवक्ता की तरह पेश आए। 1999 में पार्टी के संस्थापकों में से एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, “वह भी ऐसे वक्त में जब मुख्यमंत्री भारत और पाकिस्तान के बीच संवाद पर जोर दे रही हों। द्राबू दिल्ली में मुख्यमंत्री के प्रतिनिधि के तौर पर बोल रहे थे। मगर उन्होंने तो पीडीपी की मूल वैचारिक सोच पर ही चोट कर दी। यही कारण है कि महबूबा को कठोर कदम उठाना पड़ा।”
लेकिन सरकार से विदाई से द्राबू विचलित नहीं दिखे। उन्होंने आउटलुक से कहा, “मैंने उसी बात पर जोर दिया जो मेरे जेहन में लंबे वक्त से रही है। और वह है कश्मीर मुद्दे को सुलझाने में सिविल सोसायटी की महती भूमिका।” उनकी दलील है, “व्यापक संदर्भ में देखें तो कश्मीर मसले ने हमारे समाज में उथल-पुथल पैदा की है और खासकर युवाओं की संवेदना और सोच पर उसका असर पड़ रहा है।”
दिल्ली की सभा में द्राबू ने राजदूतों के सामने कहा कि कई देश अपने नागरिकों के लिए ऐसी ट्रैवल एडवायजरी करते हैं जो, “एक मायने में कश्मीरियों का सामाजिक बहिष्कार” जैसा है। लिहाजा, इसकी वजह से “ऐसी राजनीतिक सोच पैदा होती है जिससे अलगाव की भावना घर करने लगती है। इसलिए सिविल सोसायटी संगठनों को हमारे सामाजिक मुद्दों को हल करने के लिए अपने क्षेत्रों में प्रभावी दखल देनी चाहिए।”
लेकिन 11 मार्च को द्राबू जब दिल्ली में ही थे, पीडीपी ने “जम्मू-कश्मीर की राजनीतिक समस्या के समाधान” वाले बयान पर जोर दिया। महबूबा के चाचा और पार्टी के ताकतवर उपाध्यक्ष सरताज मदनी ने द्राबू को इस बयान को वापस लेने की सलाह दी। शाम होते-होते पार्टी की अनुशासन कमेटी ने चिट्ठी भेज कर द्राबू से इस भाषण पर सफाई मांगी। इससे पार्टी की छवि को “गंभीर नुकसान पहुंचा था।”
बकौल द्राबू, “अगले दिन सुबह मैंने दिल्ली में मुख्यमंत्री निवास पर संपर्क किया तो वे व्यस्त थीं। मुझसे कहा गया कि वे 10 मिनट बाद फोन करेंगी। पर फोन नहीं आया। दिन में मिलने का वक्त मांगने के लिए मैंने फिर फोन किया। बाद में मुझे ग्रेटर कश्मीर (अखबार) की वेबसाइट से पता चला कि सीएम ने मुझे मंत्री परिषद से हटाने का फैसला ले लिया है और इस बाबत तत्काल प्रभाव से गवर्नर को चिट्ठी भी लिख दी है। आखिरकार शाम मुझे मुख्यमंत्री से मिलने के लिए फोन आया।” द्राबू के लिए उन्हें हटाने का निर्णय ‘अप्रत्याशित’ था लेकिन उसका तरीका ‘झटका देने वाला’ था। उनसे बात करने से पहले मीडिया को बताया गया। द्राबू कहते हैं, “मुझे अपने भाषण के संदर्भ और विषय वस्तु बताने या समझाने का मौका नहीं दिया गया। यह बहुत तकलीफदेह था।”
सूत्रों के अनुसार, द्राबू का कद सरकार में बढ़ रहा था। पीडीपी के एक
पदाअधिकारी कहते हैं, “महबूबा विकास की नाकामी और उसके राजनैतिक नजरिए के खिलाफ आवाज उठाने का मौका तलाश रही थीं और वह उन्हें मिल गया।” द्राबू के करीबियों का कहना है कि पीडीपी अपनी जमीन फिर से पाने के लिए ऐसे ही किसी मौके की तलाश में थी और द्राबू आसान-सा मौका दे बैठे। यही नहीं, महबूबा यह संदेश देने का मौका भी तलाश रही हैं कि वे एक बेमेल गठबंधन में फंस गई हैं और रिश्ते कड़वे हैं। द्राबू की विदाई से वह संदेश उन्होंने दे दिया।
कश्मीर की अलगाववादी ताकतों को द्राबू के लिए कोई सहानुभूति नहीं है। द्राबू ने मई 2014 में एक अखबार में अलगाववादियों के मतदान के बहिष्कार के आह्वान को ‘चुनावी तानाशाही’ कह कर निंदा की थी। जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) के चेयरमैन यासीन मलिक अक्सर उन्हें ‘पाखंडी’ कहते रहते हैं, जिनके लेखों ने किसी वक्त ‘आजादी की लड़ाई’ में शामिल होने के लिए हजारों युवाओं को प्रेरित किया था। आजादी के समर्थक नेता दावा करते हैं कि 1996 में द्राबू ने दिल्ली में ऑल पार्टीज हुरियत कांफ्रेंस ऑफिस का दौरा किया था और “अवैध कब्जे से कश्मीर की मुक्ति के लिए हमारे प्रयासों की सराहना की थी।” इस तरह के आरोपों पर द्राबू ने कोई जवाब नहीं दिया है। दूसरी ओर कुछ पीडीपी नेता दूसरे चरम पर जाकर उन्हें पार्टी में ‘आरएसएस का आदमी’ मानते हैं।
तो द्राबू दोनों में से कौन हैं? उनके एक करीबी दोस्त कहते हैं, “कोई नहीं।” वे आगे कहते हैं, “वह कभी जेकेएलएफ के समर्थक नहीं रहे, न कभी आरएसएस वाले बन सकते हैं। सत्ता में रह कर जब आप मुखर, बुद्धिमान और विचार रखने वाले होते हैं तो आपके दुश्मन ज्यादा होते हैं। जब कोई मुखरता और विचारों की स्पष्टता को चुनौती नहीं दे सकता तब लोग इसी तरह के आरापों के साथ आते हैं।”
1990 में प्लानिंग कमीशन में ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी के रूप में अपना कॅरिअर शुरू करने वाले द्राबू प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद में काम करने के साथ दसवें वित्त आयोग की टीम का हिस्सा भी थे। उन्होंने अलग-अलग वक्त में आरबीआइ गर्वनर रह चुके वाइ. वी. रेड्डी और बिमल जालान दोनों के साथ काम किया है। द्राबू ने बाद में राष्ट्रीय संपादक के रूप में एक नामी बिजनेस न्यूज पेपर जॉइन कर लिया। इसके बाद वे तब श्रीनगर लौट आए जब सईद को 2005 में मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा और उनकी जगह गुलाम नबी आजाद मुख्यमंत्री बन गए। उस वक्त द्राबू जेऐंडके बैंक के चेयरमैन थे। तब तक वह नेशनल कांफ्रेंस को “मगरूर” लगने लगे थे। यह पार्टी 2009 की शुरुआत में सत्ता में आई थी। बमुश्किल 20 महीने बाद अगस्त 2010 में राज्य में पैरामिलट्री सीआरपीएफ द्वारा कश्मीरी युवाओं को लगातार मारे जाने की घटनाएं होने लगीं। तब उमर अब्दुल्ला सरकार ने द्राबू को हटा दिया।
उन्हें निकाले जाने का कोई अाधिकारिक कारण सामने नहीं आया। लेकिन ज्यादातर लोग मानते हैं कि छह महीने चले इस संघर्ष में भी द्राबू ने एटीएम खुले रखने के निर्देश दिए थे। इसके बाद द्राबू सीन से गायब हो गए और बाद में एस्सार ग्रुप ऑफ कंपनीज जॉइन कर ली। केवल तब तक जब तक वह फिर से सईद के करीबी नहीं हो गए और 2014 में पार्टी जॉइन नहीं कर ली। बाद में यह अर्थशास्त्री राजपुरा क्षेत्र से निर्वाचित हो गए। कई पार्टी सहयोगियों की ईर्ष्या के बावजूद वह आगे बढ़ते गए। सईद ने द्राबू को बीजेपी के साथ गठबंधन की बातचीत करने के लिए पीडीपी का मुख्य व्यक्ति बना दिया।
परिणामस्वरूप पीडीपी के दृष्टिकोण में कमियों के बावजूद उन्होंने विवादित अनुच्छेद 370 को छह साल के लिए ‘ठंडे बस्ते’ में डालने के लिए भाजपा का भरोसा जीत लिया। दोनों पार्टियां कश्मीर के प्रति पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के उदारवादी, दृष्टिकोण, “इंसानियात, कश्मीरियत और जम्हूरियत” पर राजी हो गईं। जबकि सरकार ने कहा कि वह राज्य में “अंदरूनी साझेदारों” के साथ सार्थक संवाद सुगम बनाने और मदद करने के लिए हर संभव प्रयास करेगी। जम्मू-कश्मीर के सभी राजनैतिक समूह निरपेक्ष भाव से, भले ही उनकी वैचारिक पसंद कोई भी हो, इसमें शामिल होंगे। इसके बावजूद द्राबू पीडीपी के चुनावी वादे पूरा करने को सफलता की ओर ले जाने में कामयाब रहे। जैसे, नियंत्रण रेखा के दोनों ओर के लोगों के बीच संपर्क बढ़ाना, सिविल सोसायटी के आदान-प्रदान को बढ़ावा देना, एलओसी के पार यात्रा, वाणिज्य, व्यापार और व्यवसाय को अगले स्तर तक ले जाना और कनेक्टिविटी बढ़ाने के लिए सभी तीनों क्षेत्रों के नए मार्ग को खोलना। हालांकि, इनमें से कोई भी वादा पिछले तीन सालों में अमलीजामा नहीं पहन सका जो पीडीपी के लिए परेशानी का सबब है। केंद्र महबूबा के भारत-पाकिस्तान संवाद के आह्वान को नकारता रहा है। महबूबा द्वारा द्राबू की बर्खास्तगी उस रणनीति की पुनरावृत्ति है जो उनके पिता ने 12 साल पहले की थी।
सईद ने 2006 में अपने डिप्टी मुजफ्फर हुसैन बेग, जो वित्त मंत्री भी थे, को निकाल बाहर किया था। बेग के मुख्यमंत्री आजाद के साथ निकटता के चर्चे थे। इस तरह द्राबू के निष्कासन से एक चक्र पूरा हुआ।