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पंजाब की मिट्टी की महक वाला रूहानी गायक

प्यारेलाल वडाली की आवाज में पंजाब के पानी का कुदरती रिसाव था, मुरकियों को लेने का उनका अंदाज निराला था कि श्रोता वाह-वाह कर उठते थे। उनकी आवाज में निश्छलता और व्यक्तित्व में मासूमियत थी
प्यारेलाल वडाली (1943-2018)

मोहतरम उस्ताद प्यारेलाल वडाली की इस जहां से रुखसती पर एकदम से यकीं करना अजीब लगता है। उन्हें स्टेज पर गाते हुए देख एक न खत्म होने वाली जवानी का एहसास हुआ करता था। मुझे इस बात का कतई इल्म न था कि प्यारे उम्र के 75 साल पूरे कर चुके हैं। स्टेज पर मैंने उन्हें अपने बड़े भाई और गुरु, उस्ताद पूरनचंद वडाली की संगत में हमेशा एक बच्चे की मानिंद मुस्कराते हुए पाया। लगभग वैसे ही जैसे कोई नन्हा बालक अपने पिता सरीखे भाई-उस्ताद की देख-रेख में हर फिक्र से निजात पा बिलकुल निश्चिंत बैठ उसे रिझाने की फिराक में हो। महफिल के कुछ भी आदाब रहे हों, मैंने उनमें हर वक्त एक बच्चे की चंचलता और उत्सुकता महसूस की। उनमें गाते-गाते कथा छेड़ने का ठेठ देहाती अंदाज हमेशा के लिए खो गया, जो किस्सागोई के सिलसिलों की याद दिला जाता। उनमें हंसते-हंसाते किसी रूहानी संदेश को श्रोताओं तक पहुंचाने की ललक बहुत साफ दिखाई देती। यूं मालूम होता मानो कृष्ण की रास और सूफी किस्सों के दरम्यान कोई पुल उभर रहा हो। इन पलों में उनके बड़े भाई उस्ताद उन्हें हंसती हुई आंखों से बड़े लाड़ और फख्र से ताकते। उनका जन्म गांव गुरु की वडाली में हुआ, जो किसी वक्त अमृतसर से सटा हुआ एक गांव हुआ करता था। जो धीमे-धीमे शहर में समाता चला गया और एक दिन अमृतसर बन कर रह गया। इतिहास की यह रफ्तार या उसकी एक करवट की झलक वडाली भाइयों के संगीत का समाज ही उजागर करता है।

बड़े भाई पूरनचंद की शुरुआती तालीम पिता ठाकुर दास की देख-रेख में हुई और बाद में पंडित दुर्गादास और कुछ अरसा बड़े गुलाम अली खां साहब से सीखने का मौका मिला। इस हिसाब से वडाली भाइयों की गायकी खास पटियाला घराने की उप-शास्‍त्रीय गायकी थी। बड़े भाई के हाफिजे में पटियाला-कुसूर उस्तादों की तमाम बंदिशें घर कर चुकी थीं। उनमें कुछेक उस्तादों के नाम हैं, आशिक अली खां, बड़े गुलाम अली खां, बरकत अली खां वगैरह। प्यारेलाल की लगभग सारी की सारी तालीम भाई-उस्ताद पूरनचंद की निगरानी में हुई। इस हिसाब से कहें तो भाई-उस्ताद का तमाम हाफिजा उन्हें विरसे में मिला। गांव वडाली कस्बे की शक्ल ले रहा था और वडाली भाई रोजगार की तलाश में आस-पास के कस्बों और छोटे-छोटे शहरों में रास और स्वांग का मजमा सजाने में जुटे थे, जिनमें छोटे भाई को बहुत दफा बहुरूपिया बन कर नाचना पड़ता था। बाज दफा उन्हें इस फन में औरत का रूप भी धारण करना पड़ता। ये काम कमोबेश एक नुक्कड़ लोक कला का काम था। बाकायदा महफिलों में गाने का नसीब अभी उनकी पकड़ से बाहर था, अगरचे दोनों भाइयों को अपने फन पर पक्का यकीन और फख्र था। इन सब मुश्किलों के बावजूद, उनकी जिंदगी खुशी से लबरेज थी। दोनों भाई जम कर रियाज करते, फिर डट कर कसरत और पहलवानी और साथ में लजीज देसी पंजाबी खाना।

जोड़ी की संगतः पूरनचंद के साथ प्यारेलाल वडाली (दाएं)

सबसे पहले मुझे वडाली भाइयों को सुनने का मौका शायद ’70 के दशक के शुरू में दूरदर्शन के जरिए मिला। सख्त गर्मी के मौसम में गाढ़े नीले रंग की चमकीली पोशाक पहने, पसीने से तर-ब-तर इन भाइयों के पास एक अदद छोटा हारमोनियम था और साथ में एक साधारण-सा दिखने वाला तबला वादक। प्यारेलाल को लेकर जो सबसे पहला अक्स मेरे जेहन में उभरता है वो है तबले की टोन से नाखुश, स्टेज पर हथौड़ी से तबला मिलाते हुए बेतकल्लुफ प्यारेलाल का। फिर तबला मिलाने के बाद बहुत खुशनुमा मुस्कान के साथ साज वापस वादक को लौटाते हुए एक निहायत खूबसूरत नौजवान का। अगरचे प्यारेलाल ताउम्र बड़े भाई के पीछे-पीछे चले पर शुरू से ही उनकी शख्सियत बहुत दिलकश और आजाद परवाज की निशानदेही करती मालूम होती थी। उनकी दूरदर्शन की पहली ही मुलाकात से मैं दो अलग-अलग वजहों से उनका मुरीद हो गया। यह साफ था कि बड़े भाई की क्लासिकी तालीम बहुत पुख्ता थी और एकदम से सीधा असर करती थी। मगर यह भी उतना ही सच था कि प्यारे की आवाज में बड़े भाई की आवाज से एकदम अलग और अद्‍भुत कशिश थी। हालांकि पूरनचंद का शुरुआती छोटा आलाप, बहुत मुश्किल पर सहज लगने वाली तानें, हैरान कर देने वाली मुरकियां और आवाज में पंजाब की देसी ताकत मिक्नातीस (चुंबक) का काम करती थी। वहीं, दूसरी ओर प्यारे की आवाज में वहां के पानी का कुदरती रिसाव था। आवाज का लासानी ग्रेन और ताकत, सुरों की आमद और तालीम की चमक को और गहराती चली जाती थी। उनकी आवाज का जादू महज तालीम के खांचे में फिट नहीं किया जा सकता।  

इन भाइयों का पहला बड़ा मौका तब बना जब अमृतसर के दुर्गियाना मंदिर में हो रहे एक सालाना संगीत समारोह में किसी शास्‍त्रीय गायक को पहुंचने में देरी हो जाने की वजह से संचालक इन भाइयों को गवाने के लिए मजबूरन राजी हुए। जैसा कि कहते हैं इन भाइयों ने उस रोज वो जलसा लूट लिया। इसी समारोह की वजह से तमाम पंजाब में उनकी पहचान बनना शुरू हुई और वहीं से उन्हें लगातार बड़े जलसों में काम मिलना शुरू हुआ। उनकी शुरुआती पहचान पंजाबी लोक संगीत गायकों के तौर पर हुई। धीरे-धीरे उन्हें बाबा बुल्ले शाह की आम-फहम काफियों के गायन के लिए लोग जानने लगे। बाद में उनके संगीत खजाने में शाह हुसैन, हजरत सुल्तान बाहू और वारिस शाह का कलाम भी सुनने को मिलने लगा। इस सब से उनकी पहचान बतौर सूफी गायक सरहद के दोनों ओर खूब परवान चढ़ी। यहां यह कहना मुनासिब होगा कि बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद 1993 में ये दोनों भाई सहमत के ‘अनहद गरजै’ नामक कलाकारों के काफिले में शामिल हुए और दिल्ली और लखनऊ दोनों जगह इन भाइयों ने जबरदस्त गायकी की अचरज मिसाल कायम की। लखनऊ की एक घटना तो खासी दिलचस्प रही। स्टेज के पीछे ग्रीन रूम के नाम पर महज दो टेंट थे। एक टेंट में मैं वडाली भाइयों के साथ बैठा था, दूसरे में विदुषी किशोरी अमोनकर स्टेज पर जाने से पहले गला गरम कर रही थीं। उनकी आवाज की कशिश कुछ ऐसी थी कि दोनों भाइयों से रहा न गया और वे उठ कर दूसरे टेंट में उन्हें सुनने के लिए चल दिए। किशोरी ताई ने गाना बीच ही में रोक कर बहुत बेरुखी से उन्हें तुरंत वहां से निकल जाने को कहा। शर्मसार, दोनों भाई उल्टे पांव वापस हो लिए।

उस शाम, किशोरी ताई के गायन के बाद, उन दोनों भाइयों ने खालिस शास्‍त्रीय गायकी का मुजाहिरा पेश किया और स्टेज से पहली और शायद आखिरी दफा अपने उस्तादों का नाम ले-लेकर उनकी बंदिशें सुनाईं। मुझ नाचीज की राय में उस रोज उनकी गायकी का अंदाज किसी और ही अनदेखी, अनसुनी दुनिया से तारी इलहाम था, जिससे कम से कम प्यारेलाल पहले कभी वाकिफ नहीं रहे होंगे।

वो दिन कुछ ऐसा था मानो प्यारेलाल की एक नए ढंग से, चुनौती भरे अंदाज में दीक्षा हो रही हो। ऐसा समा मेरी उनसे तमाम मुलाकातों में फिर कभी न आया।

(गीतकार, संगीतकार, फिल्मकार, अभिनेता मदन गोपाल सिंह सूफी गायकी में एक प्रतिष्ठित नाम हैं और दिल्ली में नेहरू मेमोरियल म्यूजियम ऐंड लाइब्रेरी में सीनियर फेलो हैं)

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