बचपन की प्रिया से अलग होकर दुखी, यादों में खोए, शराबी, खुद अपनी बर्बादी को न्योतने वाले असफल प्रेमी की कहानी बड़ी ताजातरीन लग रही हो तो याद दिला दें कि जब से फिल्म उद्योग शुरू हुआ, तब से स्क्रीन पर यह कहानी कई बार कही गई, बार-बार कही गई। लेकिन फिल्म निर्माता इससे कभी नहीं थके। बस अंतर यह आया कि कुछ ने इस कहानी को इसके मूल रूप में कहा तो कुछ ने इसे अपने तरीके से बनाया। इस थीम पर बनी हिंदी और दूसरी भाषाओं की फिल्मों की संख्या देखें तो देवदास कालातीत क्लासिक फिल्मों की श्रेणी में है। यह कहानी मूक फिल्मों के जमाने से लेकर आज के डिजिटल समय तक हर पीढ़ी के निर्माताओं-निर्देशकों को लुभाती रही है। इस चर्चित उपन्यास को लिखे शरतचंद्र चट्टोपाध्याय को एक सदी (1917) बीत चुकी है। प्रेम और बलिदान की इस अनोखी कहानी के नशे के नए शिकार अब निर्देशक सुधीर मिश्रा हैं जो हजारों ख्वाहिशें ऐसी (2005) और कई दूसरी चर्चित फिल्में बना चुके हैं।
मिश्रा इसे नए नाम दास देव के साथ बड़े परदे पर पेश कर रहे हैं। यह फिल्म इस महीने के अंत तक रिलीज होने की तैयारी में है। मिश्रा की आखिरी फिल्म इनकार (2013) थी जो उन्होंने पांच साल पहले बनाई थी। मिश्रा की नई फिल्म के शीर्षक से ही पता चल रहा है कि इस बुद्धिमान निर्देशक ने शरतचंद्र की महान कृति को दोबारा कहने की कोशिश की है। हालांकि, मिश्रा की फिल्म मौजूदा दौर के राजनैतिक षड्यंत्र की फिल्म है। हाल ही में फिल्म का ट्रेलर रिलीज करते वक्त मिश्रा ने कहा था, “देवदास पर मेरी पहल के लिए मैं शरत बाबू से क्षमा चाहता हूं। यदि आप शरत बाबू के देवदास की उम्मीद लगाए बैठे हैं तो फिल्म न देखें। मैंने केवल प्रेरणा ली है।”
प्रेरणा तो यह निश्चित रूप से है ही। लेकिन यह नायक दास देव की ‘उलट यात्रा’ है जो देवदास की तरह खुद को प्यार में बर्बाद नहीं करता बल्कि वह आधिपत्य के लिए लड़ कर वापसी करता है।
जाहिर-सी बात है, कहानी को इस तरह समकालीन दिखाने का यह पहला प्रयास नहीं है। नौ साल पहले लेखक-निर्देशक अनुराग कश्यप ने देवदास को 20वीं शताब्दी के बंगाल की पृष्ठभूमि से खींच कर नए जमाने में देव डी के रूप में पंजाब और दिल्ली में छोड़ दिया था। कश्यप ने फिल्म में वास्तविकता का पुट देते हुए उदारता से एक अलग संदर्भ में इस क्लासिक उपन्यास की व्याख्या करते हुए पहली कोशिश की थी।
आखिरकार इस उपन्यास का स्थायी भाव क्या है जो निर्माताओं को हर तरह से आकर्षित करता है? फिल्म दास देव में चंद्रमुखी का किरदार निभा रहीं अभिनेत्री अदिति राव हैदरी को लगता है कि यह कहानी लगातार आकर्षित करती है, “क्योंकि जो भी सामग्री बहस को बढ़ाएगी वह हमेशा जीवित रहेगी और रचनात्मक लोगों की कल्पना को आगे बढ़ाएगी।” दास देव में हैदरी एमबीए की डिग्री बीच में छोड़ने वाली लड़की चांदनी बनी हैं। वह फिल्म में सूत्रधार भी रहेंगी। हैदरी कहती हैं, “इसके चरित्र जटिल, घुमावदार और विनाशकारी हैं। यहां प्रेम महाकाव्य की तरह है। मासूमियत से भरे बचपन का प्रेम जो बर्बाद हो चुके प्रेम के अहं के साथ खेल रहा है। यह अहं ही खलनायक है।” हैदरी के अनुसार, “इसमें करने के लिए बहुत है। सभी चरित्र इतने अच्छे से उकेरे गए हैं कि इसमें नई व्याख्या के लिए सतत संभावनाएं बनी रहती हैं।”
साहित्यकार हालांकि, देवदास की लोकप्रियता उस निस्वार्थ प्रेम को मानते हैं जिससे यह उपन्यास बुना गया है। हिंदी उपन्यासकार रत्नेश्वर कहते हैं, “देवदास हमेशा याद किया जाएगा क्योंकि लोग इसकी थीम से सीधा संबंध खोज लेते हैं।” प्रेम और पर्यावरण पर हाल ही में आए चर्चित उपन्यास रेखना मेरी जान के लेखक कहते हैं, “प्रेम कभी चलन से बाहर नहीं हो सकता। एक स्तर पर देवदास अमीर और गरीब की साधारण-सी प्रेम कहानी लगती है लेकिन प्रेम में खुद को बर्बाद कर लेना इसे असाधारण बनाता है।” रत्नेश्वर आगे कहते हैं, “वास्तविक प्रेम है और यह पहले से मौजूद किसी परिस्थिति पर निर्भर नहीं है। यही देवदास का संदेश है। प्रेम आने वाले हर युग और हर समय में हमेशा प्रासंगिक रहेगा।”
दास देव में प्रेम नहीं बल्कि राजनीति और शक्ति केंद्र में है। इस फिल्म के लिए ‘सहमी है धड़कन’ गीत लिखने वाले गीतकार डॉ. सागर कहते हैं, “शरतचंद्र की कहानी जुनूनी प्रेमी की कहानी है जो अपना जीवन उस स्त्री के लिए हार जाता है जिसे वह दीवानों की तरह चाहता था और उसने उसे खो दिया। दास देव भी जुनूनी है लेकिन उसका जुनून राजनीति है।”
डॉ. सागर मानते हैं कि प्रेम का अर्थ डिजिटल युग में बदल गया है, वह कहते हैं, “अब प्रेम हर जगह कचरे की तरह बिखरा हुआ है।” डॉ. सागर के अनुसार, दास देव का नायक प्यार के नुकसान पर विलाप नहीं करता बल्कि राजनीति के खेल में अस्तित्व की वापसी के लिए संघर्ष करता है। वह कहते हैं, “हमारा हीरो उदासी भरे नग्मे नहीं गाता। इसलिए गाने लिखने से पहले मुझे जिम मॉरिसन के प्रसिद्ध गीत का संदर्भ दिया गया था क्योंकि नायक की आंतरिक शक्ति का प्रतिबिंब झलकना चाहिए था।”
सेल्यूलाइड पर अलग तरह की समकालीन व्याख्याओं के बावजूद सिनेमा की देवदास में रुचि 1928 में हुई जब मूक युग के प्रसिद्ध निर्देशक नरेश चंद्र मित्र ने पहली बार फैनी बर्मा के साथ इसका मूक संस्करण बनाया। जब बोलने वाली फिल्मों का दौर आया तब पीसी बरुआ ने अभिनेता-गायक के. एल. सहगल को लेकर हिंदी में देवदास बनाई। 1935 में यह फिल्म चर्चा का विषय बन गई थी। 1955 में दिलीप कुमार भी बिमल रॉय की देवदास में यह अमर भूमिका निभा चुके हैं। कई दशकों बाद 2002 में संजय लीला भंसाली शाहरुख खान के साथ चमक-दमक से भरा देवदास लेकर आए। इस बीच गुलजार धर्मेंद्र के साथ देवदास की एक कोशिश कर चुके थे लेकिन यह फिल्म बीच में ही अधूरी छूट गई।
इस कहानी में हमेशा ऐसा कुछ होता है जिसमें फिल्मकार कुछ नया, रोमांचक खोज लेते हैं। यकीनन मिश्रा इस क्लासिक कहानी को फिर खोजने वाले आखिरी व्यक्ति नहीं होंगे।
“देवदास नारीवादी भी है”
हजारों ख्वाहिशें ऐसी, धारावी जैसी यादगार फिल्में देने वाले सुधीर मिश्रा भी दुखांत कहानी देवदास के आकर्षण से खुद को बचा नहीं पाए। उन्होंने बदलाव किया तो केवल यह कि ‘दास देव’ को शाब्दिक रूप से बदल कर इसे शेक्सपियराना अंदाज बरकरार रखने वाली राजनीतिक थ्रिलर फिल्म बना दी। इस अराजक समय में उन्होंने प्राची पिंगले–प्लंबर को बताया कि ताकत एक नशा है और सच्चा प्यार संभव है। चुनिंदा अंश-
दास देव के साथ कितना वक्त बिताया...
इस प्रोजेक्ट में दिक्कतें थीं। शुरुआत में मैं इसे अकेले बनाना चाहता था। फिर सप्तऋषि के संजीव कुमार आए और प्रोजेक्ट नए सिरे से शुरू हुआ। मैंने दोबारा स्क्रिप्ट पर काम किया। देरी मेरी गलती की वजह से हुई। लेकिन जैसे-जैसे मैं लिख रहा था, फिल्म अलग ढंग से निकल रही थी। फिर यह वास्तविक देवदास से दास देव में बदल गई।
शीर्षक के साथ मूल कहानी भी बदली?
यह पॉलिटिकल थ्रिलर है, देवदास राजनैतिक विरासत का वारिस बन गया है। मैं सोचता हूं, क्या होता यदि देवदास वापस चला जाता और अपनी विरासत संभाल लेता? क्या होता यदि पारो उसके पिता के अच्छे दोस्त की बेटी होती जिनकी मृत्यु हो गई थी। क्या होता यदि दोनों परिवारों में लड़ाई राजनैतिक होती? क्या होता यदि पारो देव के खिलाफ खड़ी हो जाती? तो फिर चंद्रमुखी कौन है? यदि देव राजनैतिक विरासत का उत्तराधिकारी है तो वह महिला कौन होगी जिसे वह पहचानने से इनकार करेगा? इसलिए चांदनी (चंद्रमुखी) उन तमाम स्त्रियों की तरह हो गई जिन्हें हम सत्ता के गलियारे में देखते हैं। वे लोग राजनीति के कामकाज के बिचौलिए हैं। हालांकि वह देव के साथ प्यार करने के घातक परिणाम को बरकरार रखती है। लेकिन क्या वह उसके लिए खुद को बलिदान करेगी? शायद नहीं।
क्या चंद्रमुखी केंद्रीय चरित्र बन गई है?
हां, मैं चांदनी की निगाह से देवदास और पारो की कहानी कह रहा हूं। वह सूत्रधार है।
आपने किस कालखंड में इसे रखा है?
आज के दौर में। यह मौजूदा राजनैतिक परिस्थिति के बारे में है। यह शक्ति और उसके प्रलोभनों के बारे में है जो बरसों से प्रचलित हैं।
देवदास का अजीब आकर्षण है, हालांकि नायक के हारने के लिए इसकी आलोचना की गई। फिर भी यह कहानी लोगों को अपने पास खींचती है।
देवदास नारीवादी भी है क्योंकि वह एक गलती करता है, जिस स्त्री से प्यार करता है, उसके जीवन को नष्ट करने की। बाद में वह खुद को भी नष्ट कर देता है। उसके बारे में यह बहुत आकर्षक है। वह दूर जा सकता था, झूठ बोल सकता था लेकिन वह ऐसा नहीं करता। वह पारो की जिम्मेदारी लेता है न सिर्फ अपने जीवन के प्रेम की तरह बल्कि एक भाई की तरह भी। यही मेरी फिल्म का महत्वपूर्ण पक्ष है।
देवदास की दोबारा कल्पना क्यों की?
इंदिरा गांधी जब सत्ता में थीं तब वह काफी शक्तिशाली थीं, मेरे नाना, डी.पी. मिश्रा, उनसे जुड़े हुए थे। लेकिन उन्होंने हमें आम लोगों की तरह जीवन जीने को बाध्य किया। जब मैं मुंबई आ रहा था, वह बहुत लोगों को जानते थे लेकिन उन्होंने किसी को फोन नहीं किया। क्या होता यदि मैं अपने परिवार की राजनैतिक विरासत पाने का आसान रास्ता चुन लेता? तब मेरा जीवन कैसा होता? इस स्थिति की दोनों तरफ की पृष्ठभूमि देखने पर मैंने कहानी की कल्पना की थी।
यह आपकी पिछली फिल्मों से किस तरह आगे है?
इसका उत्तर दूसरों को देने दीजिए। यह एक महाकाव्य की संरचना की तरह है। शेक्सपियर पढ़ना इस पर भारी पड़ता है। यह भारतीय सिनेमा की 50 की दशक की संरचना को साथ लाने और आगे बढ़ाने की कोशिश है। संगीत-गाने महत्वपूर्ण हैं।