त्रिपुरा में लेनिन, तमिलनाडु में ई. वी. रामस्वामी पेरियार और उत्तर प्रदेश में भीमराव आंबेडकर की प्रतिमाओं को तोड़ने और पश्चिम बंगाल में श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मूर्ति पर कालिख पोतने की निंदनीय घटनाओं के बाद चली बहस को जान-बूझकर गलत दिशा में मोड़ा जा रहा है। त्रिपुरा विधानसभा चुनाव में विजय प्राप्त करने से उन्मत्त हुए अंध वाम-विरोधी लेनिन को विदेशी बताकर भारत के लिए उनकी प्रासंगिकता पर सवाल खड़े कर रहे हैं। वामपंथी उनकी इस चाल को समझे बिना लेनिन की प्रासंगिकता सिद्ध करने में लगे हैं; जबकि मूल प्रश्न यह है ही नहीं। लेनिन तो विदेशी थे लेकिन पेरियार और आंबेडकर तो शुद्ध भारतीय थे। फिर उनकी प्रतिमाओं पर हथौड़े क्यों चल रहे हैं? क्या उनकी प्रासंगिकता सिद्ध करने की जरूरत है? जाहिर है नहीं। दरअसल, लेनिन, पेरियार, मुखर्जी या आंबेडकर, की प्रासंगिकता मुद्दा नहीं है। मुद्दा असहिष्णुता और उसका लोकतंत्र-विरोधी चरित्र है।
राजमोहन गांधी ने हाल ही में ऑक्सफोर्ड यूनियन द्वारा आयोजित एक वाद-विवाद समारोह में भाग लेने के अपने अनुभव के बारे में एक लेख लिखा है। वाद-विवाद का विषय था ‘भारत को विभाजन पर अफसोस है।’ श्रोताओं में ब्रिटिश, भारतीय और पाकिस्तानी भी थे। गांधी का कहना है कि जितनी शालीनता और सहिष्णुता के साथ वहां वक्ताओं ने अपने विचार रखे और श्रोताओं ने उन्हें धैर्यपूर्वक सुना, वह देखने लायक था। इस समय भारत में तो ऐसे आयोजन की कल्पना नहीं की जा सकती। अपनी प्राचीन सभ्यता और संस्कृति पर गर्व करने वाले भारत जैसे देश में जहां शास्त्रार्थ की हजारों साल पुरानी परंपरा रही है, जहां दर्शन के ग्रंथों में ग्रंथकार पूरी ईमानदारी और समझ के साथ पहले पूर्वपक्ष प्रस्तुत करते थे, यानी उन विचारों को उनके मूल और वास्तविक रूप में सामने रखते थे, जिनका खंडन करने के लिए ग्रंथ लिखा जा रहा है, उस देश में आज यह हालत हो गई है कि एक साफ-सुथरी शिष्ट वैचारिक बहस तक नहीं की जा सकती। जिस देश में विचारों का लोकतंत्र नहीं है, वहां राजनीति का लोकतंत्र कैसे हो सकता है? विचारों का लोकतंत्र स्थापित होने के बाद ही राजनीति के लोकतंत्र के पनपने की उम्मीद की जा सकती है। फ्रांस में जब वोल्तेयर ने यह कहा था कि भले ही वह किसी के विचारों से पूरी तरह असहमत हों लेकिन वह अंतिम सांस तक उन्हें अभिव्यक्त करने के उसके अधिकार की रक्षा के लिए लड़ेंगे। तब सभी के लिए मुक्ति, समानता और भ्रातृत्व की उद्घोषणा करने वाली राज्यक्रांति नहीं हुई थी। वह तो उनकी मृत्यु के ग्यारह साल बाद हुई। लेकिन यह क्रांति तभी संभव हो सकी जब वोल्तेयर जैसे चिंतक विचारों के लोकतंत्र की मजबूत नींव डाल चुके थे।
इस स्थिति के निर्माण में यूं तो सभी का हाथ है, लेकिन हिंदुत्ववादी राजनीति का वर्चस्व स्थापित होने के बाद से माहौल विशेष रूप से विषाक्त हुआ है। इससे अन्य सभी को यह सबक लेना चाहिए कि एक बार असहिष्णुता का जिन्न अगर बोतल से बाहर आ गया, तो उसे फिर बोतल में डालना संभव नहीं है। इस समय स्थिति यह है कि जिनके हाथ में सत्ता है, वे अपने से भिन्न विचार को बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं हैं। लोकतंत्र की एक विशेषता यह भी है कि राजतंत्र के विपरीत इसमें सत्ता एक हाथ से दूसरे हाथ में जाती रहती है लेकिन फासिस्ट एक बार सत्ता पर कब्जा करने के बाद उसे अपने हाथ से नहीं जाने देते। सत्ता हाथ में आते ही वे उसका निर्बाध और निरंकुश इस्तेमाल शुरू कर देते हैं और सबसे पहले अपने विरोधियों को कुचलते हैं। त्रिपुरा में लेनिन की प्रतिमा को बाकायदा बुलडोजर चला कर ‘भारत माता की जय’ के नारों के बीच ढहाया गया।
भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ताओं ने प्रकारांतर से इसका औचित्य सिद्ध करते हुए इसे “जनभावनाओं की स्वतःस्फूर्त अभिव्यक्ति” बताया, लेनिन की प्रासंगिकता पर सवाल उठाया और टीवी चैनलों ने भी अपनी आदत के अनुसार लेनिन को ‘लाखों-करोड़ों लोगों की हत्या का जिम्मेदार’ ठहरा दिया। तमिलनाडु के एक भाजपा नेता एच. राजा ने ट्वीट कर दिया कि अब पेरियार की प्रतिमा भी ढहाई जाएगी, लेकिन जब लगा कि इससे दक्षिण भारत में राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ सकता है तो ट्वीट को हटा दिया गया।
वोल्तेयर ने यह भी कहा था कि आपको कौन नियंत्रित कर रहा है या करना चाहता है, इसे जानना हो तो यह देखिए कि आपको किसकी आलोचना करने से रोका जा रहा है। जब से नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने हैं, तब से एक नया राजनीतिक सिद्धांत विकसित किया जा रहा है कि उनकी आलोचना करना प्रधानमंत्री पद और उन्हें मिले भारी जनादेश का अपमान करना है।
अन्य नेताओं ने भी इसी सिद्धांत पर चलने की कोशिश की लेकिन जल्दी ही उन्हें अपनी गलती का एहसास हो गया वरना एक समय था जब ममता बनर्जी के बारे में छपे एक कार्टून को कुछ मित्रों को भेजने के ‘अपराध’ में जादवपुर विश्वविद्यालय के एक शिक्षक को गिरफ्तारी देनी पड़ी थी। जो असहिष्णुता दीनानाथ बत्रा में नजर आती है, वही उन लोगों में थी जिन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को सलमान रुश्दी के उपन्यास ‘द सेटेनिक वर्सेज’ पर प्रतिबंध
लगाने को मजबूर किया था। लोकतंत्र में इस असहिष्णुता के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, राजनीति और कला-संस्कृति पर लिखते हैं)