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आत्मीयता और सौष्ठवता का संपुट

एक जमाने में गीतों की लालित्यपूर्ण रेखा खींचने वाले केदार जी की कविता में हमेशा अचीन्हा आस्वाद रहा है, नई जमीन के साथ
केदारनाथ स‌िंह (7 जुलाई 1934 - 19 मार्च 2018)

बीते कुछ वर्षों में पहले कैलाश वाजपेयी (2015), कुंवर नारायण (2017) और अब केदारनाथ सिंह (2018) हिंदी के दिग्गज कवि हमारे बीच से ओझल हो गए। अपनी अनुपस्थिति के बावजूद इन कवियों ने कविता में ऐसी लकीर खींच दी है जो उनके कालजयी हस्ताक्षर के रूप में हमेशा हमारे बीच रहेगी। भारतीय कवियों के बीच ही नहीं बल्कि, पाब्लो नेरूदा, जुसेप्पे उंगारेट्टि, ऑक्तेवियो पाज, नाजिम हिकमत और बर्तोल्त ब्रेख्त जैसे विश्व के महान कवियों के बीच केदारनाथ सिंह की आवाज मौलिकता, सादगी और वाचिक सरसता में कविता के किसी औपचारिक और सजावटी भाव बोध से अलग साधारण सी बैठकी में सुनाई जाने वाली आभा से भरी है।

उन्हें सुनते हुए सदैव यह लगता रहा जैसे, हम गांव के किसी पुरखे से स्मृति, अनुभव और संवेदना में भीगी हुई कहानियां सुन रहे हैं। एक कवि को जितना मिलना चाहिए वह सब उन्हें अपने जीवनकाल में मिला। भारतीय ज्ञानपीठ, साहित्य अकादेमी, कुमारन आशान, भारत भारती, व्यास और मैथिलीशरण गुप्त सम्मान तथा साहित्य अकादेमी की महत्तर सदस्यता। पिछले साल 17 नवंबर को जब वे कुंवर नारायण की शोक सभा में बोल रहे थे तो जैसे भावपूर्ण स्मृतियों में खो गए थे। तब कौन जानता था कि चार महीनों के अंतराल पर वे भी इह लोक से नाता तोड़ लेंगे।

केदारनाथ सिंह का जन्म 1934 में उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के चकिया गांव में हुआ और शुरुआती पढ़ाई के बाद वे उच्च शिक्षा के लिए बनारस आ गए। शिवप्रसाद सिंह, नामवर सिंह, सूर्यप्रताप सिंह, ठाकुर प्रसाद सिंह, शंभूनाथ सिंह, त्रिलोचन, रामदरश मिश्र और काशीनाथ सिंह जैसे लेखकों-कवियों का समूह वहां सक्रिय था। कभी-कभार अज्ञेय सहित बाहर के कवियों के आगमन से कविता की अनूठी सुगंध बनारस की आबोहवा में व्याप्त हो उठती थी। हालांकि वह युग छंद कविता का था लेकिन सारे बड़े कवि नई कविता की ओर अग्रसर हो रहे थे। एक गोष्ठी में उन्हें सुनकर अज्ञेय ने ‘तीसरा सप्तक’ के लिए उनसे कविताएं मांगी थीं। उन्हीं दिनों का उनका एक गीत ‘गिरने लगे नीम के पत्ते झरने लगी उदासी मन की’ आज भी लोगों की स्मृति में टंका है। तब से उनकी कविताओं में उत्तरोत्तर आधुनिकता का अंदाज प्रखर होता गया। गीतों की टेक से वे ऊबे नहीं और ‘तीसरा सप्तक’ से लेकर ‘टॉलस्टाय और साइकिल’ तथा ‘सृष्टि का पहरा’ तक हर संग्रह में उनके कुछ नायाब छंद शामिल रहे।

वे अपने भीतर अपनी परंपरा के तमाम श्रेष्ठ कवियों की यादें संजोए ऐसे व्यक्ति थे जिनके पास बैठने पर उनके संस्मरण के रेशे ऐसे खुलते थे जैसे उनके निबंध संग्रह ‘कब्रिस्तान में पंचायत’ के संस्मरण। बनारस के तार हल्के से भी छिड़ जाने पर उनके मित्र और बाल सखा स्मृतियों में उतर आते थे। बनारस पर उनकी कविता हिंदी काव्य में मील का पत्थर है। ‘मेरे समय के शब्द’ उनके गद्य की आभा को पहचानने के लिए काफी है। 

केदारनाथ सिंह ने कविता के लिए शुरू से ही नई और अलग जमीन रची। अकविता की घेरेबंदी से कविता को निकाल कर उसे नया पैरहन देने में धूमिल और त्रिलोचन जैसे कवियों के साथ उनकी भी बड़ी भूमिका रही। त्रिलोचन ने उन्हें नई कविता की ओर उन्मुख किया। पहले संग्रह ‘अभी बिल्कुल अभी’ के प्रकाशन के बाद ‘जमीन पक रही है’ उनकी कविता में नया और बड़ा मोड़ था। दूसरा बड़ा मोड़ ‘अकाल में सारस’ था। कविता में तीसरा बड़ा मोड़ ‘टॉलस्टाय और साइकिल’ रहा। ‘सृष्टि पर पहरा’ तक उनकी कविताओं में संपूर्ण भारतीय कवि का चेहरा नजर आता है। कविता में यथार्थ और फंतासी की अनूठी जुगलबंदी उनकी लंबी कविता ‘बाघ’ में मिलती है। खेती-किसानी के सबसे जीवंत कवि त्रिलोचन का ऋण स्वीकार करते हुए वही कह सकते थे, ‘आगे-आगे कवि त्रिलोचन, पीछे-पीछे मैं।’ वही कह सकते थे, ‘छू लूं किसी को, लिपट जाऊं किसी से? मिलूं पर किस तरह, मिलूं कि बस मैं ही मिलूं और दिल्ली न आए बीच में।’

उनकी कविता में मनुष्यता के उच्चादर्श के स्वप्न मौजूद हैं। ‘भरने दो अपने शब्दों में सारे शहरों की खाक-धूल/ इस यात्रा में वापसी नहीं बस चलते जाना है अकूल’ कहते हुए वे कविता को अभिजात गलियारे से निकाल कर धूल धक्कड़ भरे परिवेश में ले जाने के हामी दिखते हैं। जहां आजादी के बाद की ज्यादातर कविता शहरी नागरिकता से आक्रांत दिखती है। वह जेएनयू में भी अपने गंवई गमछे को कविता के ताकतवर बिंब के रूप में सहेजे रखते हैं, ‘सिर्फ एक गमछा भी हो सकता है आदमी का सबसे बड़ा मित्र’ कह कर वे केवल कैलाशपति निषाद का ही स्मरण नहीं करते, बल्कि ग्राम जीवन की सहजता की ओर भी इशारा करते हैं। 

जब उनके कई समकालीन पेड़ों, बच्चों, लड़कियों आदि की प्रतीकात्मकता में निमग्न थे, तब उन्होंने कविता को ऐसे सम्मोहनों से बाहर निकालने की पहल की। वे कविता के ऐसे क्राफ्टमैन हैं जिनके यहां ‘कुदाल’ भी अपने समय का विलक्षण काव्य बिंब बन जाती है और ‘टमाटर बेचने वाली बुढ़िया’ आत्मीय काव्यात्मक बन कर स्मृति की अल्गनी पर टंग जाती है। कविता के ‘इंटीरियर डेकोर’ की दृष्टि से हिंदी में शमशेर, विनोद कुमार शुक्ल और कुंवर नारायण के बाद केदार जी की कविताएं सबसे नुकीली, सौंदर्यग्राही और मार्मिक हैं। एक बातचीत में उन्होंने मुझसे कहा था, “मैं उन लोगों से मिलना चाहता हूं जिनसे अपना हृदय-छंद मिले।” उनकी कविता इसी हार्दिकता, आत्मीयता और सौष्ठवता का संपुट है।

(लेखक प्रसिद्ध आलोचक, स्तंभकार हैं)

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