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यथार्थ से सामना

बौद्धिक, राजनीतिक और सांस्‍कृतिक मोर्चे पर आती जा रही असहिष्‍णुता का बारीक दस्‍तावेज है यह संग्रह
बामियान में बुद्ध

कविता परंपरा में देर से आए कवियों की जगह निर्धारित करने में जो बाधाएं सामने आती हैं वैसा ही कुछ राजेन्‍द्र राजन के साथ है। वे 58 की उम्र में अपने पहले कविता संग्रह के साथ आए हैं। नवें दशक के कवियों की सी सक्रियता न होने के बावजूद वे उसी पीढ़ी के उन अलक्षित कवियों में हैं जो अपने लिखे को प्रकाशित कराने में संकोच बरतते हैं। बनारसी मिजाज और मस्‍ती के राजेन्‍द्र राजन 94-99 के दौर में मुझे बनारस में मिले थे। कभी-कभार कवि ज्ञानेन्‍द्रपति के सान्‍निध्‍य में होने वाली बैठकों-बतकहियों में वे शामिल हुआ करते। बाद में वे समतामूलक सिद्धांतों से जुड़े और सामयिक वार्ता से होते हुए जनसत्ता से संबद्ध हुए। बीच-बीच में वे अच्‍छी कविताएं लिखते रहे। यदा- कदा छपने के बावजूद प्रकाशन के लिहाज से वे पिछड़े रहे। राजन का नया संग्रह उनके परिपक्‍व कविता-कौशल का प्रमाण है। यह संग्रह न केवल बाजारवाद और भूमंडलीकरण के प्रभुत्‍व और नस्‍ली हिंसा के शिकार बामियान की कला संपदा के नष्‍ट होने की गवाही देता है बल्‍कि बौद्धिक, राजनीतिक और सांस्‍कृतिक मोर्चे पर आती जा रही असहिष्‍णुता का बारीक दस्‍तावेज भी है।

उनकी कविताओं का मिजाज बोलचाल के लहजे वाला है। वे बड़ी से बड़ी बात साधारण लगते शिल्‍प में कह जाते हैं। इसमें न उनके संपादकीय तेवर की छाया दिखती है न वे भाषा को बोझिल बनाते हैं। उनकी कविताएं छोटी लेकिन असरदार हैं। ये कविताएं अपने रचयिता के अंत:करण की उदारता और समय-क्षुब्‍ध कवि की आइडेंटिटी दोनों के प्रति आश्‍वस्‍त करती हैं।

उनकी सभी कविताएं सादगी और अर्थवत्ता में चौकस हैं। दो कविताएं विशेष रूप से ध्‍यानाकर्षित करती हैं, ‘बाजार में कबीर’ और ‘बामियान में बुद्ध।’ दोनों कविताएं इस संग्रह की धुरी हैं। कवि एक चादर लेने के लिए कबीर दास के घर जाने के लिए चल पड़ता है। पर कबीर भी बाजार के चक्‍कर में ऐसे हलाकान हैं कि सब कुछ बिकने के इस दौर में वे खाली हाथ खड़े मिलते हैं। गांठ की पूंजी गंवा कर भी उनकी चादर बिना बिकी रह जाती है। बाजार जो काॅरपोरेट का गुलाम है, उससे संचालित है, में अजीब-सा अंधेरा व्‍याप्‍त है। ‘बाजार में कबीर’ पढ़ कर अनायास उन बुनकरों की हालत सामने आती है जो अपनी कला औने-पौने में बेचने में विवश हैं। 

दूसरी अहम कविता ‘बामियान में बुद्ध’ है। मजहबी और नस्ली उन्‍माद में समय-समय पर न केवल पुस्‍तकालय जलाए गए, मूर्तियां तोड़ी गईं बल्‍कि शांति का संदेश देने वाले बुद्ध की मूर्तियां भी ढहाई गई हैं। मनुष्‍यता के इस क्रूर यथार्थ से सामना करती यह कविता जमींदोज बामियान में शून्‍य में समाहित बुद्ध के साथ खान अब्‍दुल गफ्फार खान के संवाद को माध्‍यम बनाती है। बुद्ध से अचानक क्षमा मांगते खान अब्‍दुल गफ्फार खान की आवाज सुनाई पड़ती है। दोनों के क्षुब्‍ध, लज्‍जित, कोमल, संयत और समव्‍यथी संवाद में यह कविता चलती है। कहीं-कहीं कविता केदारनाथ सिंह या कुंवर नारायण-सरीखी कविताई (जिसमें अहमद फराज और नाजिम हिकमत या कहें नेरुदा के संदर्भ आते हैं) की याद दिलाती कवि की संवेदना की गवाही भी देती है। मानवता के संहार में लगी दुनिया के छद्म और पाखंड पर चर्चा करते हुए क्षुब्‍ध होते खान अब्‍दुल गफ्फार खान का ध्‍यान जब टूटता है तो वहां न बुद्ध का स्‍वप्‍न है न उनके शब्‍दों का अर्थ। खान अब्‍दुल खान खड़े हैं अकेले बामियान के निपट पथरीले ध्‍वंस सन्‍नाटे में। यह सब कुछ मिटने के बाद का, मुखर सन्‍नाटे और अंधकार से संवाद है जो केवल कवि सुनता है। दोनों कविताएं एक तरफ बाजार में मारे जाते गरीब आदमी के संकट की ओर इशारा करती हैं तो दूसरी ओर सभ्‍य और आधुनिकोत्तर समाज में इंसानियत की धज्‍जियां उड़ाती नस्‍ली मजहबी हिंसा की ओर।

आधुनिक समय और समाज की व्‍याधियों के साथ ‘बामियान में बुद्ध’ तमाम छोटी कविताओं के लिए याद किया जाएगा। जहां हत्‍यारों के संगठित गिरोह की करतूतों के समर्थन की मुहिम चल रही है, मनुष्‍यता के मोर्चे पर लड़ते हुए लोग लगातार कम होते जा रहे हैं। विजेताओं के उल्‍लास में उनका कुटिल इतिहास विस्‍मृत हो उठा है, बुद्धिजीवियों में पस्‍ती है, खंडहरों पर पताकाएं हैं, विकास के नारे हैं पर उत्तरोत्तर चीजें कम हो रही हैं। वे ऐसे विकास को प्रश्‍नांकित करते हैं, जहां कुदरत का बेरोकटोक दोहन चल रहा है। ‘भोपाल’,  ‘घोड़ा’ और ‘युद्ध’ जैसी शृंखलाबद्ध कविताओं के अलावा तमाम कविताओं में विचारों का एक झीना आवेग दिखता है। लघु कविता का भी अपना जादू होता है और जबर्दस्‍त होता है जैसे ‘सत्‍यमेव जयते।’ वे कहते थे, ‘‘सत्‍यमेव जयते / पर सत्‍य का मुंह बंद था / डर के मारे / उनके कुर्सी पर रहते।’’ या ‘खून बहा उसका’ में ‘‘फिर वही हुआ / जिसका अंदेशा था / दोनों पक्ष खूब लड़े / मगर खून बहा उसका / जिसका उनके झगड़े से कोई लेना-देना नहीं था।’’

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