कुछ बातें अब स्थापित हो चुकी हैं, जिनके बारे में भरोसे से कहा जा सकता है और उससे आगे बढ़ा जा सकता है। सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों को प्रभावित करने और उनके तेवर बदलने की क्षमता सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्मों में है। फेसबुक में डेटा की सेंधमारी या कैंब्रिज एनालिटिका द्वारा उसका दुरुपयोग, दोनों में ही साफ दिखता है। समस्या यह है कि फर्जी सूचना या झूठी जानकारी अब पहले से कहीं ज्यादा तेजी से सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों में बदलाव ला सकती है और उसे प्रभावित कर सकती है। ये मुद्दे चुनाव को प्रभावित कर सकते हैं। यहां तक कि कानून-व्यवस्था पर भी असर डाल सकते हैं।
अब, वाट्सऐप और फेसबुक से दुष्प्रचार आग की तरह फैल जाता है। ये झूठी सूचनाएं या फर्जी खबरें किसी मुद्दे को फौरन प्रभावित कर सकती हैं। बाद में अगर उस खबर के बारे में सफाई भी जारी की जाती है, तो काफी देर हो चुकी होती है। अमूमन कायदे से गढ़ी गई फर्जी खबर आसानी से वायरल हो जाती है। फिर खबर विवादास्पद हो तो और भी तेजी से वायरल होती है। जब तक पारंपरिक मीडिया सतर्क होती है, तब तक नुकसान हो चुका होता है। परंपरागत मीडिया जब तक चीजों को स्पष्ट करने की कोशिश करती है तब तक फर्जी खबर सच्ची खबर के रूप में कई लोगों तक पहुंच चुकी होती है।
इस तरह खबरों का पूरा तंत्र फर्जी खबरों की गिरफ्त में है और दुष्प्रचार बहस की दशा-दिशा बदल देता है। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि दिन भर ट्रेंड करने वाली खबर शाम को टेलीविजन पर बहस का मुद्दा बन जाती है। अगले दिन अखबार वाले उसका खंडन या स्पष्टीकरण छापते हैं।
दुर्भाग्य से दुनिया भर के राजनीतिक दल इस बदलाव के भयानक पक्ष को नहीं देख पाते, क्योंकि वे अपने फायदे के लिए इस प्रोपेगेंडा का इस्तेमाल करते हैं। इतना ही नहीं, पारंपरिक मीडिया को दरकिनार कर सोशल मीडिया के जरिए लोगों तक अपनी पहुंच को फायदेमंद माना जाता है। ऐसे में पारंपरिक मीडिया तक सबसे पहले जानकारियां नहीं पहुंच रही हैं, क्योंकि सारी घोषणाएं ट्विटर और फेसबुक पर होती हैं। सोशल मीडिया पर सबसे पहले सूचनाएं आने से लोगों को लगता है कि यहां जो भी बताया जा रहा है, वही सच है।
जिस तरह रूस ने अमेरिकी चुनाव में किया, अगर उस तरह से दूसरे देश इस तरह के दुष्प्रचार का इस्तेमाल करने लगे तो उनके बीच रणनीतिक संबंधों में व्यापक बदलाव आ सकता है। यह वास्तविक खतरा है। भारत में भी यह खतरा है, क्योंकि 2019 में यहां भी आम चुनाव होने वाले हैं। देश के डिजिटल सेक्टर में चीनी कंपनियां सबसे बड़ी निवेशक हैं।
चीनी कंपनियां पारंपरिक और डिजिटल मीडिया के लिए सबसे बड़ी विज्ञापनदाताओं में भी एक हैं। ये कंपनियां भारतीय भाषाओं में कंटेंट तैयार करने के लिए बड़ी टीम बना रही हैं। आखिर सरकार इसके बारे में चिंतित क्यों नहीं है? क्या हम चीनियों द्वारा सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर अगले चुनावों में धांधली करने का इंतजार कर रहे हैं?
अगर आप चीन की जगह पाकिस्तान को रखकर देखें तो यह और डरावना हो जाता है या फिर उसकी जगह आइएसआइएस को रखें तो स्थिति और भयावह दिखने लगती है। इन प्लेटफॉर्मों और उनके यूजर्स की तत्काल प्रतिक्रिया अभिव्यक्ति की आजादी मानी जाती है और उस पर यह कि इंटरनेट इसी तरह काम नहीं करता है। यह तर्क अब खोखला हो चुका है, क्योंकि यूरोप में ये कंपनियां (नियमन) रेगुलेशन के लिए सहमत होती हैं। वे अपने मंच पर नफरत फैलाने वाली या झूठी सामग्री को नियंत्रित करने के लिए सहमत होती हैं। लेकिन भारत में उनके सबसे अधिक यूजर्स हैं, फिर वे रेगुलेशन से इनकार कर देती हैं।
वाट्सऐप का ही उदाहरण लें, जो फर्जी खबरों को फैलाने के लिहाज से फेसबुक से भी बड़ा मंच है। अब विडंबना यह है कि वाट्सऐप का संस्थापक कहता है कि फेसबुक को डिलीट कर देना चाहिए, क्योंकि उसने थर्ड पार्टी के साथ डेटा साझा किया है। जबकि फेसबुक इस बारे में कहता है कि कैंब्रिज एनालिटिका ने इस मामले में धोखाधड़ी की है। लेकिन यह मुद्दा सिर्फ फेसबुक पर आंकड़ों की सेंधमारी का नहीं है। यह मामला डेटा लीक का भी नहीं है। यह मुद्दा इस बात से जुड़ा है कि किस तरह सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म अलगोरिदम, सामग्री और यूजर के डेटा का इस्तेमाल कर खास संदेश पहुंचाता है, ताकि निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित किया जा सके। यह बिलकुल साफ है कि सोशल मीडिया की लत और मैसेजिंग लोगों की सोच के साथ तबाही का खेल खेल रहे हैं। यह सिर्फ हमारी सोच को ही प्रभावित करने वाला प्लेटफॉर्म नहीं है, बल्कि कंपनियां आपके सोचने की क्षमता को एक सेवा के रूप में बेच रही हैं। ठीक यही काम कैंब्रिज एनालिटिका और अन्य कंपनियां कर रही हैं।
भारत में वाट्सऐप और फेसबुक या ट्विटर पर दुष्प्रचार और फर्जी खबरें काफी तेजी से फैलती हैं। दुर्भाग्य से इसे लेकर ऐसा कोई ठोस कानून नहीं है, जिससे भारत सोशल मीडिया के दुरुपयोग को रोक सके। सोशल मीडिया पर फर्जी सूचनाओं के प्रसार को रोकने के लिए कोई रेगुलेशन नहीं है। फर्जी यूजर्स ही फर्जी सूचनाएं फैलाते हैं और सोशल मीडिया उनके रेगुलेशन या उनकी वास्तविक पहचान पर जोर नहीं देता। इसलिए फर्जी सूचनाओं की मूल जड़ को पहचानना या किसी व्यक्ति या कंपनी को सजा देना भी बहुत मुश्किल है।
इन परिस्थितियों में तुरंत इन बातों पर ध्यान देने की जरूरत हैः
-मीडिया प्लेटफॉर्म की तरह ही सोशल मीडिया का रेगुलेशन होना चाहिए
-सोशल मीडिया पर फर्जी यूजर्स को नियंत्रित किया जाना चाहिए और उनकी पहचान भी होनी चाहिए
-भारतीय कंटेंट तैयार करने के मामले में विदेशी निवेश को भी रेगुलेट करने की जरूरत है
(लेखक डिजिटल रणनीतिकार और नीति विश्लेषक हैं)