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‘सुशासन’ पर दंगों का दाग

कई जगह सांप्रदायिक हिंसा और उसमें भाजपा नेताओं की शिरकत से संकट में नीतीश कुमार
तनावः औरंगाबाद में रामनवमी पर हथियारों का प्रदर्शन

एक अप्रैल की तारीख मुकर्रर थी बिहार में शराबबंदी की कामयाबी के सरकारी जलसे की। लेकिन, ऐसा हो न सका। उस दिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पटना में हजरत मखदूम शाह की मजार पर राज्य में अमन-चैन की दुआ मांग रहे थे। पिछले महीने भागलपुर, सीवान, औरंगाबाद, समस्तीपुर, नालंदा और नवादा में हुई सांप्रदायिक घटनाओं ने नीतीश के सुशासन के दावों और प्रशासनिक क्षमता पर सवाल खड़े कर दिए हैं। सांप्रदायिक हिंसा और इसमें सरकार की सहयोगी भाजपा के नेताओं की शिरकत पर चुप्पी उन्हें कठघरे में खड़ा कर चुकी है।

1989 के भागलपुर दंगों के बाद बिहार में सांप्रदायिक उन्माद का ऐसा दौर देखने को नहीं मिला था। लेकिन, नीतीश को इसकी आशंका शायद पहले से थी। 22 मार्च को बिहार दिवस के मौके पर उन्होंने लोगों से रामनवमी पर शांति एवं सद्‍भाव का माहौल बनाए रखने की अपील की थी। उन्होंने कहा था कि कुछ लोग उत्तेजना फैलाने और भड़काने की कोशिश करेंगे। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए सरकारी मशीनरी को समय रहते सक्रिय क्यों नहीं किया गया? 

सांप्रदायिक हिंसा की शुरुआत विक्रम संवत्सर के नववर्ष के मौके पर 17 मार्च को भागलपुर से हुई। रामनवमी के मौके पर 24 मार्च को सीवान के हसनपुरा और 25-26 मार्च को औरंगाबाद में दो संप्रदायों के बीच झड़प हुई। इसके अगले दिन समस्तीपुर के रोसड़ा और मुंगेर में दोनों संप्रदाय के लोग भिड़ गए। यह लपट मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के गृह जिला नालंदा भी पहुंची और खाजा मिठाई के लिए मशहूर रहे सिलाव का नाम पहली बार सांप्रदायिक तनाव के कारण सुर्खियों में आया। 30 मार्च को ऐसी ही खबरें नवादा से आईं। नवादा के भाजपा सांसद गिरिराज सिंह अक्सर अपने बयानों को लेकर चर्चा में रहते हैं। तकरीबन हर जगह जुलूस निकालने, उत्तेजक नारों और ऊंची आवाज में संगीत बजाने से फसाद की शुरुआत हुई।

भागलपुर की घटना में भाजपा सांसद और केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे के बेटे अर्जित शाश्वत का नाम आया। औरंगाबाद में भाजपा से जुड़े अनिल सिंह, उज्ज्वल कुमार और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के दीपक कुमार का नाम आया। स्‍थानीय लोगों का दावा है कि इन्हें भाजपा के स्‍थानीय सांसद सुशील सिंह का भी समर्थन हासिल है। रोसड़ा में हिंसा के बाद पुलिस ने भाजपा नेता दिनेश कुमार झा और मोहन पटवा को गिरफ्तार किया। 31 मार्च की रात अर्जित ने पटना में सरेंडर किया। इससे पहले वे खुलेआम घूमते रहे, लेकिन वारंट जारी होने के बावजूद पुलिस उन्हें गिरफ्तार नहीं कर पाई। बताया जाता है कि नीतीश कुमार ने ऐसा जानबूझकर किया। वे नहीं चाहते थे कि बिहार में अश्विनी चौबे और गिरिराज सिंह के बाद एक और नया फायरब्रांड नेता पैदा हो।

अर्जित के करीबी बताते हैं कि वे चाहते थे कि पुलिस उन्हें गिरफ्तार करे ताकि उन्हें इसका सियासी फायदा मिल सके। उनके पिता पहले भागलपुर से विधायक हुआ करते थे। स्‍थानीय लोगों की मानें तो राजनीति में अर्जित को स्‍थापित करने के लिए यह पूरा ड्रामा रचा गया था। जब तक अर्जित ने सरेंडर नहीं किया था, विपक्षी दल राजद के नेता तेजस्वी यादव रोज उनके बहाने नीतीश कुमार पर हमला बोल रहे थे। लेकिन, भाजपा नेताओं ने मुख्यमंत्री का बचाव करने की बजाय हालिया हिंसा को राजद के जमाने की अराजकता और शहाबुद्दीन वगैरह के आतंक के दौर से तुलना करने की कोशिश की।

समाजशास्‍त्री और अनुग्रह नारायण सिन्हा सामाजिक शोध संस्थान के पूर्व प्रमुख डॉ. डीएम दिवाकर ने बताया कि सरकार लोगों की उम्मीदों को पूरा नहीं कर पा रही है। बेरोजगारी, स्कूल, कॉलेजों की चौपट होती स्थिति, अस्पतालों की खास्ताहाली से ध्यान भटकाने के लिए यह सब हो रहा है। तेजस्वी यादव का कहना है कि पिछड़े हिंदुओं की गोलबंदी से घबराकर सरकार ऐसा कर रही है। पिछड़े हिंदुओं को इन मुद्दों में फंसाकर सामंती ताकत सत्ता सुख बनाए रखना चाहती है।

बस अब दुआ का आसराः पटना में हजरत मखदूम शाह की मजार पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार

जानकारों का मानना है कि ध्रुवीकरण से भाजपा और राजद दोनों को ही फायदा होगा। लड़ाई इन्हीं दोनों दलों के बीच सिमट जाएगी। जदयू के एक नेता कहते हैं कि नीतीश कुमार जानते हैं कि भाजपा और राजद आपस में फ्रेंडली मैच खेलकर उनकी सियासत को खत्म करने की दिशा में काम कर रहे हैं ताकि बिहार की राजनीति दो ध्रुवीय हो जाए। लेकिन, वे ऐसा नहीं होने देंगे। ऐसा नहीं है कि हाल के वर्षों में बिहार में पहली बार सांप्रदायिक तनाव दिखा है। खुद नीतीश कुमार ने 22 मार्च को कहा था कि उनके 12 साल के शासनकाल में राज्य में छोटे-मोटे कई फसाद हुए, लेकिन दंगा कभी नहीं हुआ। औरंगाबाद में 2016 में भी तनाव पैदा हो गया था। 2017 में तो राज्य के 16 जिलों में तनाव देखने को मिला था। लेकिन, यह पहली बार है कि जब सत्ता में साझीदार भाजपा, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद समेत अलग-अलग हिंदुत्ववादी संगठनों के लोगों का नाम खुलकर लिया जा रहा है। कहा जा रहा है कि सत्ता में रहते हुए भाजपा अपने लिए नई जमीन तैयार कर रही है। वह अभी से ध्रुवीकरण की राजनीति पर जोर दे रही है ताकि उसके लिए 2019 की लड़ाई आसान हो। यहां तक कि पिछली बार की तरह इस बार भाजपा नेता और उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी भी नीतीश का बचाव नहीं कर रहे हैं। उलटे भाजपा नेता राजद को और प्रहार करने के लिए सहूलियत की जमीन तैयार कर रहे हैं।

ऐसे में क्या यह माना जाए कि भाजपा के साथ दोबारा सरकार बनाकर नीतीश फंस गए हैं? पूर्व के अनुभव के आधार पर अनुमान लगाया जा रहा है कि नीतीश कुमार अभी मौन ही रहेंगे, क्योंकि मौन उनका सबसे बड़ा राजनीतिक हथियार है। ऐसे में बिहार के सियासी गलियारे में यह सवाल उठना स्वाभाविक भी है कि अब आगे क्या होगा? राजनीतिक जानकार बता रहे हैं कि नीतीश कुमार अभी कुछ दिन शांत रहेंगे। माकूल मौका देखकर वे चुप्पी तोड़ेंगे। नीतीश के करीबी यह भी बताते हैं कि वे अलग राह अपनाने की तैयारी में हैं, क्योंकि उन्हें भी समझ आ गया है कि भाजपा इस बार उस तरीके से साथ नहीं दे रही जैसा पहले की सरकार में दे रही थी। केसी त्यागी और श्याम रजक जैसे जदयू नेता भाजपा को इस संबंध में चेता भी चुके हैं। जदयू महासचिव केसी त्यागी ने बताया, “हम भाजपा नेताओं को चेता चुके हैं कि अपने नेताओं पर लगाम लगाएं। अराजक बयान न दें। इससे राज्य की हालत बिगड़ेगी। नीतीश कुमार के लिए सरकार महत्वपूर्ण नहीं है, इसे हर दल हमेशा ध्यान में रखें।”

इस बीच, पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी ने नीतीश कुमार को फिर से महागठबंधन में लौटने की सलाह दी है। हाल ही में मांझी एनडीए छोड़ राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन में शामिल हुए हैं। ऐसे में अब सारी नजरें नीतीश के अगले कदम पर हैं। लेकिन, सबसे बड़ा सवाल यह है कि अपनी छवि को लेकर सतर्क रहने वाले नीतीश कुमार क्या सांप्रदायिक ‌हिंसा के दाग को धो पाएंगे? 

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