भारतीय लोकभाषा सर्वेक्षण (पीएलएसआइ) की बीते साल आई रिपोर्ट में बताया गया था कि देश की 780 भाषाओं में से करीब आधे के विलुप्त होने का खतरा है। भाषाओं को लेकर सरकार की उदासीनता हाल ही में तब देखने को मिली जब लोकसभा में केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने भाजपा के निलंबित सांसद कीर्ति आजाद के सवाल के जवाब में मैथिली को मौखिक भाषा बताया, जबकि मैथिली की अपनी लिपि मिथिलाक्षर होने के पर्याप्त साक्ष्य हैं। जावड़ेकर के बयान पर मचे विवाद ने उन सवालों को फिर से चर्चा के केंद्र में ला दिया है जिससे आज मैथिली जूझ रही है। मैथिली पढ़ने वालों की संख्या लगातार कम हो रही है। शिक्षकों का घोर अभाव है। भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए बनाए गए संस्थान खस्ताहाल हैं। जानकारों के मुताबिक सरकार, बाजार और समाज की उपेक्षा से यह स्थिति पैदा हुई है।
बिहार विद्यालय परीक्षा समिति के मुताबिक इस बार दसवीं में मैथिली की परीक्षा के लिए 70 हजार से ज्यादा बच्चों ने फॉर्म भरा। इनमें से 69,901 छात्र-छात्राओं ने मातृभाषा और 924 ने ऐच्छिक विषय के तौर पर मैथिली को चुना। वहीं बारहवीं बोर्ड में मैथिली की परीक्षा के लिए करीब 76 हजार बच्चों ने फॉर्म भरा। इनमें से 7,537 ने भाषा और 70,329 छात्र-छात्राओं ने मातृभाषा के तौर पर इसकी पढ़ाई की। राज्य में हिंदी के बाद सबसे ज्यादा बच्चे मैथिली की ही पढ़ाई करते हैं। लेकिन, बच्चों को पढ़ाने के लिए राज्य में मैथिली के मात्र 235 शिक्षक हैं। 1990 के बाद से मैथिली शिक्षकों की बहाली नहीं हुई है। स्कूलों में मैथिली का पाठ्यक्रम तय करने वाली समिति के सदस्य डॉ. लक्ष्मीकांत सजल ने बताया कि ज्यादातर स्कूलों में हिंदी या संस्कृत के शिक्षक बच्चों को मैथिली की पढ़ाई कराते हैं। उन्होंने बताया कि 2008 में आखिरी बार बिहार राज्य पाठ्यपुस्तक निगम ने मैथिली की किताबों का प्रकाशन किया था। इसके बाद से इसे अपडेट नहीं किया गया है। इसके कारण बच्चे कई लेखकों के बारे में गलत पढ़ रहे हैं। मसलन, मार्कंडेय प्रवासी का निधन 13 जून 2010 को हो गया था। लेकिन, 12वीं कक्षा के बच्चों को पढ़ाई जा रही किताब तिलकोर भाग-दो में वे अब भी जीवित बताए जा रहे हैं।
स्नातक और स्नात्तकोतर स्तर पर हालत और भी खराब है। पटना विश्वविद्यालय में मैथिली स्नातकोत्तर विभाग के अध्यक्ष डॉ. सत्यनारायण मेहता ने बताया कि विश्वविद्यालय में इस समय स्नातक और स्नात्तकोतर स्तर पर करीब डेढ़ दर्जन छात्र ही मैथिली की पढ़ाई कर रहे हैं। विश्वविद्यालय में मैथिली के कुल आठ शिक्षकों के पद में से आधे खाली हैं। आखिरी नियुक्ति 2016 में बीपीएससी के माध्यम से दो शिक्षकों की हुई थी। कमोबेश ऐसे ही हालात बिहार के सभी विश्वविद्यालयों में हैं। उच्च स्तर पर मैथिली की पढ़ाई सबसे पहले कलकता यूनिवर्सिटी में 1918 में शुरू हुई थी। बिहार में सबसे पहले 1950 में पटना यूनिवर्सिटी में इसकी पढ़ाई शुरू हुई थी। लेकिन, अब विश्वविद्यालयों में इसकी पढ़ाई बंद होने का खतरा मंडरा रहा है। पूर्व केंद्रीय मंत्री और पटना विश्वविद्यालय में समाज विज्ञान के प्रोफेसर संजय पासवान ने बताया, “सरकार पर अत्यधिक निर्भरता के कारण मैथिली की यह स्थिति हुई है। अन्य विश्वविद्यालयों की बात छोड़िए आज स्थिति यह है कि दरभंगा के ललित नारायण विश्वविद्यालय में भी मैथिली विभाग बंद होने की स्थिति बन चुकी है।”
पटना विश्वविद्यालय में मैथिली की प्राध्यापक अरुणा चौधरी ने बताया कि मैथिली की पढ़ाई करने के लिए छात्र मजबूरी में आ रहे हैं। जिनके पास कोई विकल्प नहीं होता वे ही इसमें नामांकन कराते हैं। उन्होंने बताया कि ऐसा सिर्फ मैथिली के साथ ही नहीं है। छात्रों की कमी के कारण पटना विश्वविद्यालय में बांग्ला भाषा का विभाग बंद हो चुका है। वे कहती हैं, “जब तक प्राथमिक स्तर पर मैथिली की पढ़ाई अनिवार्य नहीं की जाती यही स्थिति रहेगी। यदि यही हालात रहे तो आने वाले कुछ सालों में मैथिली के लिए शिक्षक भी नहीं मिलेंगे।” प्रचार-प्रसार के लिए बनाए गए संस्थानों की हालत भी खराब है। 1975 में बिहार सरकार ने मैथिली अकादमी का गठन किया था। इस अकादमी को अनुदान समय से नहीं मिलता है और पिछले कई साल से लगातार इसमें कटौती की जा रही है। हाल ही में अकादमी के अध्यक्ष सह निदेशक की जिम्मेदारी संभालने वाले दिनेश चंद्र झा ने बताया, “फंड के अभाव में हम पुस्तकों का प्रकाशन नहीं कर पा रहे हैं। कर्मचारियों को समय से वेतन नहीं मिलता। बाइस के मुकाबले आज अकादमी में केवल तीन कर्मचारी रह गए हैं।”
मैथिली के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित और मैसूर स्थित भारतीय भाषा संस्थान के पूर्व निदेशक प्रो. उदय नारायण सिंह ने बताया कि इस स्थिति के लिए सरकार के अलावा मैथिली के नाम पर बने संस्थानों के निजी स्वार्थ और समाज की उदासीनता भी जिम्मेदार हैं। उन्होंने बताया, “मैथिली की पुस्तकें बिकती नहीं है। लोग मैथिली को अपनी मातृभाषा बताने से भी हिचकते हैं।” 2001 की जनगणना के अनुसार मैथिली बोलने वालों की संख्या करीब 1.21 करोड़ है, जबकि जमीनी हकीकत यह है कि नेपाल के अलावा बिहार के 38 जिलों में से आधी की भाषा मैथिली है। झारखंड के भी करीब आधा दर्जन जिलों की यह प्रमुख भाषा है। 22 सांसद और बिहार विधानसभा के 126 सदस्य उन इलाकों से आते हैं जहां की भाषा मैथिली है। इन इलाकों की आबादी पांच करोड़ से ज्यादा है। यहां तक कि देश की राजधानी दिल्ली में भी रहने वाले करीब 30 लाख लोगों की भाषा मैथिली है।
प्रो. सिंह के अनुसार जनगणना के आंकड़ाां में यह बात उभरकर सामने नहीं आने का कारण यह है कि मैथिली बोलने वाले ज्यादातर लोग अपनी मातृभाषा हिंदी बताने लगे हैं। दिल्ली में 16 से 18 मार्च तक चले मैथिली लिटरेचर फेस्टिवल में भी इस चलन पर गंभीर चिंता जताई गई थी। जानकारों का मानना है कि मैथिली के दिन तब तक नहीं बहुरेंगे जब तक नई पीढ़ी इससे नहीं जुड़ेगी। यही कारण है मैथिली-भोजपुरी अकादमी दिल्ली में मैथिली बोलचाल का कोर्स शुरू करने पर विचार कर रही है। अकादमी उपाध्यक्ष नीरज पाठक ने बताया, “नई पीढ़ी अपनी भाषा से कट रही है। इस कदम से मैथिली को बढ़ावा मिलेगा।” प्रो. संजय पासवान ने बताया कि मैथिली को बढ़ावा देने के लिए उससे जुड़े उद्योग खड़े करने होंगे। मैथिली फिल्म, संगीत, साहित्य का यदि उद्योग खड़ा हो गया तो वे चुनौतियां खुद समाप्त हो जाएंगी जो आज उसके सामने खड़ी हैं।
प्रदीप कुमार बोस और एन. राजाराम के साथ मिलकर प्रो. उदय नारायण सिंह ने बड़ाादा की महाराजा सयाजीराव यूनिवर्सिटी और सेंटर फॉर सोशल स्टडीज, सूरत के लिए सौ साल से भी ज्यादा पुराने मैथिली भाषा आंदोलन पर 1983 में अध्ययन किया था। इसमें उम्मीद जताई गई थी कि अगले बीस वर्षों में मैथिली फलती-फूलती नजर आएगी। मनोरंजन, संगीत और साहित्य का उसका अपना उद्योग होगा। प्रो. सिंह ने बताया कि समाज की उदासीनता के कारण ऐसा नहीं हो पाया। वे कहते हैं, “जिस भाषा में लोगों को आगे बढ़ने के मौके नहीं मिलेंगे, वह भाषा कैसे आगे बढ़ेगी?”
भाषा के बढ़ने का मतलब होता है उससे जुड़े समाज का बढ़ना। भाषा समाप्त होती है तो उससे जुड़ा समाज भी लुप्त हो जाता है। जल्द ही सरकार और समाज ने इस बात को नहीं समझा तो मैथिली के अस्तित्व का संकट गहरा सकता है ।