राजधानी दिल्ली के सबसे फैशनेबुल और लकदक बाजारों में एक हौज खास है। इसकी प्रसिद्धि ऐसी है कि देश के अमीर और रसूखदार ही नहीं, विदेशी भी सैर-सपाटे और आउटिंग के लिए पहुंचते हैं। यहां तरह-तरह के रेस्तरां और फूड आउटलेट की भरमार है, जहां प्रेमी जोड़े डेटिंग और डिनर के लिए शौक से पहुंचते हैं। वहां भी नाम न छापने की शर्त पर आउटलेट वालों ने बताया कि उन्हें याद नहीं कि कभी किसी सरकारी संस्था ने किन्हीं मानकों के बारे में बताया या कोई प्रदर्शन किया हो। एक ने कहा, “कभी अधिकारी आते भी हैं तो कोई जांच नहीं होती। वे पैसे लेकर चले जाते हैं। पैसा नहीं देने पर कार्रवाई की धमकी देते हैं।” यहां के स्ट्रीट वेंडर्स ने बताया कि सिर्फ नगर निगम के कर्मचारी और पुलिसकर्मी पैसा लेने के लिए आते हैं, कभी-कभी सामान भी उठा ले जाते हैं। उनके मुताबिक खाद्य विभाग, नगर निगम और पुलिस को सिर्फ अपने हिस्से से मतलब होता है।
इस लकदक बाजार की यह हालत है तो आप सोच सकते हैं कि राजधानी में ही बाकी जगहों पर क्या होता होगा? देश के दूसरे शहरों और देहातों के बारे में क्या कहा जाए?
दिल्ली में सभी होटलों और रेस्तरां के लिए फूड सेफ्टी लाइसेंस लेना जरूरी है। दुकानदारों के मुताबिक बिना किसी जांच के यह मिल जाता है। एक अनुमान के मुताबिक, राजधानी में करीब पांच लाख ढाबा, कैफे, रेस्तरां, स्ट्रीट वेंडर्स हैं। लेकिन इनकी जांच के लिए खाद्य विभाग के पास पर्याप्त कर्मचारी ही नहीं हैं। केवल सात फूड इंस्पेक्टर हैं। नमूनों की लागातर जांच नहीं होने का यह भी एक बड़ा कारण है। दिल्ली में दूध, सब्जियों और खाद्य पदार्थों में मिलावट के मामले आए दिन सामने आते रहते हैं। इससे निपटने के लिए अदालत भी सरकार को कई बार निर्देश दे चुकी है। इसी नौ अप्रैल को दिल्ली विधानसभा में जब दूध में मिलावट का मसला उठा था तो राज्य के स्वास्थ्य मंत्री सतेंद्र जैन ने दूध के सैंपल की जांच प्रतिदिन करवाने की बात कही थी। लेकिन, कर्मचारियों के अभाव में ऐसा नहीं हो पा रहा है।
दिल्ली में ऐसा ही लकदक बाजार सरोजिनी नगर मार्केट भी है। वहां एक होटल के बाहर छोले-भटूरे खाने के लिए टोकन लेकर लोगों की कतार लगी थी। भटूरा बाहर ही बन रहा था, पर किसी को इस बात की फिक्र नहीं कि इस्तेमाल किया जा रहा तेल कैसा है। भटूरे वाले से पूछा गया कि सरकार की ओर से साफ-सफाई रखने या खाने का स्टैंडर्ड क्या हो, इसको लेकर कभी कोई निर्देश मिला है तो उसका जवाब था, नहीं। एक अन्य होटल मालिक ने बताया कि साल में एक से दो बार खाद्य विभाग के अधिकारी आते हैं, लेकिन वे कोई जांच नहीं करते। एक रेस्तरां मालिक ने बताया कि कभी-कभी सैंपल भी लिए जाते हैं, लेकिन उसका क्या होता है यह उन लोगों को पता नहीं है।
ऑल इंडिया फूड प्रोसेसर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष सुबोध जिंदल ने बताया कि मिलावट रोकने के लिए कानून केंद्र सरकार बनाती है, लेकिन पालन राज्य की एजेंसियों को करवाना होता है। राज्य का खाद्य विभाग, नगर निगम, पुलिस, एफएसएसएआइ का जो राज्य कार्यालय है उनके जिम्मे कानून का अनुपालन करवाना होता है। लेकिन, इन महकमों में इतना भ्रष्टाचार है कि अधिकारी कानून का डर दिखाकर वसूली करते हैं। वे सैंपल इकट्ठा कर उनकी जांच नहीं करवाते।
ऐसे में आप सोच सकते हैं कि हम कितना सुरक्षित खाना खाते हैं। यहां तक कि हम जो घर में पकाते हैं, उस भोजन की भी गुणवत्ता क्या होती होगी, क्योंकि जो कुछ बाजार से खरीदा जाता है, उसकी निगरानी की सरकारी व्यवस्था कितनी लापरवाह और भ्रष्ट है।
यकीनन हमारी सेहत का राज इसी में छिपा होता है कि हम क्या खाते हैं। अगर हम सुरक्षित और पौष्टिक भोजन नहीं लेते तो तय मानिए कि बीमारियां हमें दबोचने के लिए घात लगाए बैठी हैं।
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के समग्र रोग पर्यवेक्षण कार्यक्रम (डीएसपी) के ताजा आंकडों के मुताबिक 2017 में देश में फूड प्वाइजनिंग के मामले सबसे ज्यादा दर्ज किए गए। अंतरराष्ट्रीय व्यापार के आंकड़े भी बताते हैं कि बड़ी संख्या में खाद्य सामग्रियां या तो चौकसी की सूची में हैं या फिर प्रतिबंध की सूची में। सुप्रीम कोर्ट भी देश में खाद्य सामग्रियों की गुणवत्ता पर चिंता जाहिर कर चुका है और केंद्र तथा राज्य सरकारों को कई बार सख्त निर्देश जारी कर चुका है। स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मामले की संसदीय स्थायी समिति भी देश में खाद्य सुरक्षा और मिलावट पर तीखी टिप्पणियां कर चुकी है और विस्तृत सिफरिशें पेश कर चुकी है।
मिलावट को लेकर आम आदमी की चिंताएं तो लाचारी में बदल गई हैं। मिलावटी या असुरक्षित भोजन से फूड प्वाइजनिंग या भोजन से जुड़ी बीमारियों के मामले लगातार बढ़ते जा रहे हैं। खाने की इन्हीं सामग्रियों से तरह-तरह के घातक बैक्टीरिया, वायरस और दूसरे तरह के कीट-कृमि या उनसे निकलने वाले टॉक्सिन (जहर) से ग्रस्त होने के मामलों में भारी इजाफा दिखने लगा है। फूड प्वाइजनिंग के दर्ज हुए मामले 2008 में 50 से बढ़कर 2017 में 242 हो गए। जाहिर है, ये आंकड़े न पूरे हैं, न पूरी सच्चाई बयान करते हैं। ये महज लगातार खतरा बढ़ने का संकेत भर देते हैं। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य तथा कृषि संगठन (एफएओ) और विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) के मुताबिक लोगों और डॉक्टरों की उदासीनता और उपेक्षा भाव के कारण फूड प्वाइजनिंग के मामले दर्ज नहीं हो पाते और दर्ज न हो पाने की दर 100 से 300 गुना तक हो सकती है।
खतरे की भयावहता का अंदाजा हम इस आंकड़े से लगा सकते हैं कि देश के 127 करोड़ लोगों की जिंदगी इसी पर आश्रित है कि वे क्या खाते हैं। अस्पतालों में बेतहाशा भीड़ और स्वास्थ्य सेवाओं तथा स्वास्थ्य बजट में इजाफे की बढ़ती मांग का यही साफ संदेश है कि देश में खाने-पीने की निगरानी व्यवस्था बेहद खराब और नाकाफी है। यह आज के दौर की जरूरतों के हिसाब से बिलकुल नहीं हैं, न ही ये दुनिया में मान्य मानकों पर खरी है। इसलिए जरूरी है कि इस पर फौरन गौर किया जाए और जिम्मेदार लोगों की जवाबदेही तय की जाए। उन्हें कामकाज और दायित्व में कोताही के लिए दंडित किया जाए।
सुप्रीम कोर्ट एकाधिक बार यह फैसला सुना चुका है कि लोगों की सेहत से खिलवाड़ करने वालों को उम्र कैद की सजा दी जानी चाहिए (देखें बॉक्स, सुप्रीम कोर्ट के निर्देश)। इन पंक्तियों के लेखक की राय तो यह है कि खाद्य मानकों से छेड़छाड़ या मिलावट करने वालों या गुणवत्ता में कोताही बरतने वालों को आतंकवादियों जैसी ही सजा मिलनी चाहिए। आखिर वे लोगों की जिंदगी से खिलवाड़ करते हैं और अपने निहितस्वार्थों को पूरा करने के लिए खाने-पीने की वस्तुओं को जरिया बनाते हैं। यानी वे अपना स्वार्थ साधने के लिए पूरे समाज को वैसे ही नुकसान पहुंचाते हैं, जैसे कोई आतंकवादी।
मिलावटी और गैर-गुणवत्तापूर्ण खाने-पीने की चीजों पर रोकथाम के लिए संसद में भारतीय खाद्य संरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआइ) की स्थापना का कानून पास हुआ। यह उम्मीद जगी कि इससे देश में खाद्य सुरक्षा की स्थिति सुधरेगी लेकिन इस संस्था की स्थापना के दस साल बाद भी हालात जस के तस हैं या बदतर ही हुए हैं।
एफएसएसएआइ क्यों बनी
नब्बे के दशक में उदारीकरण से देश की अर्थव्यवस्था बदली और व्यापार-कारोबार के हालात बदले तो कई तरफ से आवाज उठने लगी कि नई स्थितियों में 1957 का खाद्य पदार्थ मिलावट रोकथाम कानून (पीएफए) पर्याप्त नहीं है। इसमें एक आवाज भारतीय खाद्य पदार्थ व्यापार और उद्योग महासंघ की भी थी, जिसका सचिव 1997 में इन पंक्तियों का लेखक था। उस समय महासंघ द्वारा गठित कानूनी विशेषज्ञों की समिति ने पीएफए में करीब 33 बड़े बदलावों की सिफारिश की। इस समिति के अध्यक्ष सुप्रीम कोर्ट के एक रिटायर प्रधान न्यायाधीश थे। हालांकि, डब्लूटीओ में भारत के जुड़ने के बाद 2001 में व्यापार और कारोबार के नियम उसके हिसाब से तय होने लगे। डब्लूटीओ के समझौते के हिसाब से भारतीय खाद्य कानून को भी बदलने की जरूरत आन पड़ी है। पुराने पीएफए कानून के तहत कई गंभीर शिकायतें आ रही थीं। कई नियम वैज्ञानिक तर्कों पर खरे नहीं उतरते थे। फूड इंस्पेक्टर और लेबोरेट्री के विशेषज्ञों के भ्रष्टाचार के मामले बड़े पैमाने पर दिखने लगे थे। कानून में कड़े प्रावधानों का डर दिखाकर फूड इंस्पेक्टर कारोबारियों से घूस लेकर मामला रफा-दफा करते थे।
लिहाजा, तमाम संबंधित पक्षों में बातचीत के बाद यह तय हुआ कि उपभोक्ताओं को सुरक्षित खाद्य सामग्री मुहैया कराने के मकसद से एक नए खाद्य सुरक्षा कानून तैयार करना जरूरी है, जो खाद्य सुरक्षा पर किसी तरह का समझौता किए बगैर सभी पक्षों के सरोकारों के अनुरूप हो। इस तरह खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय, कृषि और पशुपालन मंत्रालय, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय, वाणिज्य मंत्रालय और संबंधित संगठनों की एक मिलीजुली समिति बनाई गई। इसके तहत खाद्य सुरक्षा के मामलों पर विचार किया गया। नए कानून का मजमून तैयार करने में तेजी यूपीए-1 सरकार के दौरान आई। यह भी विचार किया गया कि नए कानून में समय-समय पर जरूरी बदलावों के लिए एक संस्थागत व्यवस्था होनी चाहिए। इस तरह एफएसएसएआइ के गठन के लिए संसद में कानून पास किया गया।
सब्जियों, फलों, खाद्य तेलों, घी, चावल, दूध सहित अन्य खाद्य पदार्थों में हानिकारक रसायनों के मिलावट का मसला कई बार संसद में उठ चुका है। 16 मार्च को स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण राज्यमंत्री अनुप्रिया पटेल ने लोकसभा में बताया कि विभिन्न राज्यों में 2014-15 में 75,282 नमूनों की जांच की गई। 14,716 नमूनों में मिलावट थी। इसको लेकर 2,687 पर आपराधिक और 7,988 पर सिविल मामले दायर किए गए। 1,402 लोग दोषी पाए गए। 2,795 पर जुर्माना लगाया गया। करीब साढ़े 11 करोड़ रुपये जुर्माना वसूला गया।
22 दिसंबर 2017 को केंद्रीय स्वास्थ्य राज्यमंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने लोकसभा में बताया कि देश में एफएसएसएआइ अधिसूचित 160 प्रयोगशालाएं हैं। इनमें से 142 को एनएबीएल की मान्यता हासिल है। 18 रेफरल प्रयोगशालाएं हैं। सांसदों के सवालों का जवाब देते हुए चौबे ने एफएसएसएआइ में भ्रष्टाचार को लेकर शिकायतें मिलने की बात मानी थी। साथ ही कुछ मामलों में कार्रवाई की भी जानकारी दी थी।
अब फिर यह एहसास होने लगा है कि तमाम प्रयासों के बावजूद स्थितियां नहीं बदली हैं। इसलिए यह जानना जरूरी है कि आज जमीनी सच्चाई क्या है और इसमें कैसे बदलाव की जरूरत है। जमीनी सच्चाई को जानने के लिए कुछ सवाल बेहद जरूरी हैं। क्या आज उपभोक्ता भोजन की गुणवत्ता और बाजार में मिलावटी खाद्य पदार्थों की रोकथाम की व्यवस्था से संतुष्ट है? क्या कारोबारी एफएसएसएआइ और फूड इंस्पेक्टर की गतिविधियों से खुश हैं? क्या एफएसएसएआइ और नए कानून के बनने के बाद फूड इंस्पेक्टरों और फूड लेबोरेटरियों की घूसखोरी पर रोक लगी है? खाद्य सुरक्षा मानकों का पालन न करने वाले कितने खाद्य कारोबारियों का लाइसेंस रद्द हुआ? नए कानून के तहत घूस लेने के आरोप में कितने इंस्पेक्टर और अधिकारी सस्पेंड हुए हैं? क्या अदालतें खाद्य सुरक्षा व्यवस्था को पर्याप्त मान रही हैं? क्या एफएसएसएआइ की विभिन्न कमेटियों में नियुक्त लोग योग्य हैं? क्या एफएसएसएआइ और एक्सपोर्ट इंस्पेक्शन काउंसिल के गठन के बाद विश्व बाजार में भारतीय खाद्य पदार्थों को खारिज करने के मामले में कमी आई है?
अगर आप इन सभी सवालों के जवाब जानने चलेंगे तो पता चलेगा कि पिछले 10 साल में किसी भी पैमाने पर कोई सुधार नहीं हुआ है। अगर कोई सुधार हुआ भी है तो उसकी झलक बाजार में तो नहीं दिखती है। इन सुधारों से कम-से-कम उपभोक्ताओं में भरोसा तो पैदा नहीं होता है। तो मूल सवाल यह है कि एफएसएसएआइ के कामकाज से क्या हुआ?
अब आइए जरा इधर देखें कि एफएसएसएआइ क्यों अपने मकसद में नाकाम हो गई और क्यों अदालतों सहित हर तरफ से उसकी आलोचना हो रही है? सवाल यही है कि अगर दूसरे देश लोगों की सेहत और खाद्य सुरक्षा को ध्यान में रखकर बेहतर मानक स्थापित कर सकते हैं तो हम क्यों नहीं? आज यह भी क्या कोई बड़ी हैरतनाक सच्चाई नहीं है कि देश में बच्चे, बूढ़े, जवान, गर्भवती महिलाएं तमाम जिन 80 प्रतिशत बीमारियों से ग्रस्त हैं या हो रहे हैं, वह सभी खराब भोजन और पानी की वजह से पैदा हो रही हैं।
एफएसएसएआइ की खामियां
आइडीएसपी के मुताबिक, फूड प्वाइजनिंग के मामले वहीं सबसे ज्यादा होते हैं जहां बड़े पैमाने पर भोजन पकाया जाता है। मसलन, कैंटीन, रेस्तरां, होटल, होस्टल और शादी-विवाह के कार्यक्रम। ये सभी एफएसएसएआइ का सर्टिफिकेट हासिल करते हैं, लेकिन मिलावटी और असुरक्षित खाद्य सामग्री की आपूर्ति की रोकथाम का कोई इंतजाम शायद ही उनके पास होता है। ऐसे कोई आंकड़ें नहीं हैं, जिनसे पता चले कि इनमें से कितने के लाइसेंस कभी रोके गए या रद्द किए गए। दुनिया भर में व्यवस्था यह है कि खाद्य सुरक्षा के अधिकारी समय-समय पर अपने कामकाज के बारे में आम लोगों का फीडबैक लेते हैं और इसके नतीजों को सार्वजनिक करते हैं। फिर इस पर विचार होता है कि कहां सुधार करना है और किन वस्तुओं की गुणवत्ता बेहतर करनी है। हमारे कानून में भी आम लोगों से फीडबैक लेने की व्यवस्था है, लेकिन आजादी के बाद से अब तक तो ऐसा नहीं हुआ। यह क्यों नहीं हुआ, इसका जवाब न तो सरकार के पास है और न ही किसी प्राधिकरण के पास। होना तो यह चाहिए कि एफएसएसएआइ के कामकाज के बारे में हर साल ऐसा सर्वेक्षण किया जाए और उसकी वार्षिक रिपोर्ट में उसे प्रकाशित की जाए।
यह संभव है कि कई प्रशासनिक पेचीदगियों के चलते एफएसएसएआइ अपेक्षित कामकाज नहीं कर सकी है। जब तक कानून पर कारगर अमल के लिए जवाबदेह और पारदर्शी व्यवस्था नहीं बनाई जाती, तब तक ढेरों पेचीदगियां उलझाए रखेंगी। देश के लोगों में तो भोजन-पानी की गुणवत्ता को लेकर संदेह बना ही हुआ है, ज्यादातर विदेशी एयरलाइंस, राजनयिक और पांच सितारा होटल तो यहां के बाजार से सामान खरीदने के बदले आयातित खाद्य पदार्थों पर ही भरोसा करना जायज समझते हैं। ऐसी भी जानकारियां हैं कि विदेशी पर्यटक और राज्य अतिथि हमारे भोजन की गुणवत्ता पर कतई भरोसा नहीं करते। अब जरा सोचिए कि ऐसे में हम हर रोज जो खा रहे हैं और अस्पतालों में मरीजों को जो खिलाया जा रहा है, उससे सेहत पर क्या असर पड़ता होगा? कौन नहीं जानता कि हमारे खाद्य पदार्थों में बड़े पैमाने पर मिलावट की जाती है।
कैसे सुधरे मामला
आम लोगों से हर साल खाद्य सुरक्षा मानकों और उपलब्ध सामग्रियों पर रायशुमारी की जाए और उसे सार्वजनिक किया जाए। एफएसएसएआइ के कामकाज पर भी ऐसा ही सर्वे हर साल किया जाना चाहिए। इसमें सरकार को कोई विशेष खर्च भी नहीं करना पड़ेगा, लेकिन उससे यह तय हो जाएगा कि एफएसएसएआइ आखिर क्यों ठीक काम नहीं कर पा रही है? एफएसएसएआइ के इंस्पेक्टरों और लेबोरेटरियों की पारदर्शिता और जवाबदेही तय की जाए। क्या आप जानते हैं कि भारत में सरसों का तेल जितना होता है, उससे ज्यादा बिकता है? यह बात इस उद्योग में लगे ज्यादतर लोगों को मालूम है, लेकिन एफएसएसएआइ के अधिकारियों और इंस्पेक्टरों की जानकारी में शायद ही है। ये इंस्पेक्टर कितने सैंपल बाजार से उठाते हैं और विश्लेषण करते हैं, इसके आंकड़े नहीं मिलते। लोग असुरक्षित खाद्य सामग्रियों को खरीदने और बीमार पड़ने को मजबूर हैं।
एफएसएसएआइ का दरअसल मकसद ही खो गया है। देश बड़े पैमाने पर मिलावटी खाने से बीमारियों का शिकार हो रहा है, जबकि एफएसएसएआइ डोनर एजेंसियों के साथ विटामिन पर काम कर रही है, जिससे भ्रष्टाचार का एक और दरवाजा खुल सकता है। जब इंस्पेक्टर मिलावट को ही नहीं पहचान सकते हैं और दोषियों को दंडित ही नहीं कर पाते तो वे भला विटामिनों के मामले में क्या फैसले कर सकते हैं? इसके अलावा देश में निर्यात को बढ़ावा देने के लिए बड़े प्रोत्साहन दिए जाते हैं और ऐसे ढेरों उदाहरण हैं कि खराब गुणवत्ता वाले उत्पादों से देश का नाम बदनाम होता है। अब जरा सोचिए कि ये कंपनियां अंतरराष्ट्रीय बाजार में ऐसा कर सकती हैं तो देश में कैसे उत्पाद बेचती होंगी? एफएसएसएआइ को ऐसे मामलों में जवाबदेह बनाना चाहिए।
यकीनन देश में सेहतमंद और सुरक्षित भोजन और पानी के लिए नए सिरे से व्यवस्था बनाने और सख्त कानून तैयार करने की तो जरूरत है ही, इन पर अमल करने के लिए जवाबदेह और पारदर्शी तंत्र खड़ा करने की दरकार है। इस तंत्र में ऐसे योग्य इंस्पेक्टरों और विश्लेषकों की भी दरकार है, जो नई जरूरतों के हिसाब से खाद्य गुणवत्ता के मानकों को लागू कर सकें। तभी देश स्वस्थ और संपन्न हो पाएगा। महाशक्ति बनने के लिए उसकी महत्वाकांक्षा भी तभी पूरी हो पाएगी।
मजबूत निगरानी तंत्र की जरूरत
खाद्य पदार्थों में मिलावट का मसला संसद में भी कई मौकों पर उठ चुका है। खाद्य, उपभोक्ता मामले और सार्वजनिक वितरण पर स्टैंडिंग कमेटी की लोकसभा में पेश नौवीं रिपोर्ट में भी इस पर गंभीर चिंता जताई गई है। कहा गया है कि मिलावट रोकने के लिए सबसे पहले स्टैंडर्ड तय करने की जरूरत है। इसके कारण प्रोडक्ट के निर्माता कई तरह का बहाना बनाकर बच निकलते हैं। मसलन, प्रयोगशालाएं ठीक से काम नहीं कर रहीं, प्रयोगशालाएं अपग्रेडेड नहीं हैं, वगैरह।
रिपोर्ट में कहा गया है कि यदि बाजार में कोई नकली प्रोडक्ट बिक रहा है तो इसे रोकने की जिम्मेदारी केवल पुलिस या कानून प्रवर्तन एजेंसियों की नहीं होनी चाहिए। प्रोडक्ट के निर्माता को भी यह सुनिश्चित करना चाहिए कि बाजार में उसका नकली प्रोडक्ट नहीं बिके। समिति के सदस्य सांसद सुनील कुमार मंडल ने बताया कि उत्पादों का प्रचार करने वाले सेलिब्रिटी को भी कानून के दायरे में लाने की सिफारिश की गई थी, लेकिन सरकार इससे सहमत नहीं है।
रिपोर्ट में मिलावट का पता लगाने और इसे रोकने के लिए मजबूत निगरानी तंत्र की सिफारिश की गई है। कहा गया है कि ऐसा नहीं होने के कारण गुनहगार पकड़े नहीं जा रहे। कानून सख्त करने पर जोर देते हुए कहा गया है कि मिलावट करने वाला करोड़ों रुपये कमाता है, लेकिन जब पकड़ा जाता है तो कुछेक हजार रुपया ही जुर्माना देना पड़ता है। इसके कारण उसे कानून का डर नहीं होता। दवा, खाद, कीटनाशक, बीज में मिलावट का जिक्र करते हुए कहा गया है कि जब मिलावट की बात आती है तो केवल खाद्य पदार्थों की बात की जाती है, जबकि जरूरत इन चीजों की गुणवत्ता के मानक तय करने की भी है।
संसद में मिलावट को लेकर सरकार कई मौकों पर कह चुकी है कि खाद्य सुरक्षा एवं मानक अधिनियम 2006 के तहत राज्यों के खाद्य सुरक्षा विभाग के अधिकारी खाद्य पदार्थों की लगातार निगरानी और नमूनों की जांच करते हैं। लेकिन, मंडल के अनुसार जिन प्रयोगशालाओं में नमूनों की जांच की जाती है वहां संसाधनों का अभाव है। भ्रष्टाचार इतना ज्यादा है कि बिना जांच के ही सर्टिफिकेट प्रदान कर दिए जाते हैं।
सुप्रीम कोर्ट के निर्देश
सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस केएस राधाकृष्णन और जस्टिस एके सीकरी की बेंच 2013 में सुनवाई तो कर रही थी कि दूध में मिलावट के एक मामले में, लेकिन उसने खाद्य पदार्थों में किसी तरह की मिलावट के लिए उम्र कैद की सजा देने का आदेश जारी किया। अदालत ने केंद्र और राज्य सरकारों को इस संबंध में कानून में जरूरी संशोधन के निर्देश दिए थे। अदालत ने खाद्य सुरक्षा कानून में मौजूदा छह महीने की सजा के प्रावधान को अपर्याप्त माना और कहा कि यह तो देश में लोगों के जीवन से खिलवाड़ करने जैसा है।
इसके बाद नवंबर 2014 में मिलावटी दूध पर सुप्रीम कोर्ट ने फिर केंद्र सरकार को फटकार लगाई। कोर्ट ने एक बार फिर राज्यों से भी कहा कि इस पर रोक लगाने के लिए कानून में संशोधन करें या नया कानून बनाएं। शीर्ष अदालत ने पूछा कि सरकार इस अपराध के लिए उम्रकैद की सजा का प्रावधान लाने के बारे में सोच रही है या नहीं। इसके लिए कोर्ट ने सरकार से हलफनामा दाखिल करने को कहा था, लेकिन सरकार कोई ठोस जवाब नहीं दे सकी।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि दूध में मिलावट के हालात खतरनाक हो चले हैं। केंद्र और राज्यों को इसे काबू में करने के लिए मौजूदा कानून में संशोधन कर कड़े कानूनी प्रावधान बनाने होंगे। देश में बच्चों को दूध पिलाने की परंपरा रही है और मिलावटी दूध बच्चों की सेहत के लिए खतरनाक है। ऐसे में हालात से निपटने के लिए जरूरी कदम उठाए जाने चाहिए।
फिर अगस्त 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने मिलावट को गंभीर मुद्दा बताते हुए केंद्र और राज्य सरकारों को फूड सेफ्टी ऐंड स्टैंडर्ड्स एक्ट-2006 को प्रभावी तरीके से लागू करने के निर्देश दिए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्य की फूड सेफ्टी अथॉरिटी अपने इलाके में मिलावट के लिए हाई रिस्क क्षेत्र और त्योहार वगैरह के दौरान ज्यादा से ज्यादा सैंपल ले। साथ ही, राज्य की फूड सेफ्टी अथॉरिटी यह तय करे कि इलाके में पर्याप्त मान्यता प्राप्त लैब हों। राज्य और जिला स्तर पर लैब पूरी तरह संसाधनों, टेक्निकल प्रोफेशनल और टेस्ट की सुविधा से लैस हो।
-साथ में, अजीत झा और चंदन कुमार की रिपोर्टें
(विजय सरदाना फूड टेक्नोलॉजी और एग्री बिजनेस के एक्सपर्ट हैं)