हम अक्सर सेहत के लक्ष्यों के बारे में बात करते हैं। अमूमन ऐसी बातें शरीर या खानपान को लेकर की जाती हैं। लेकिन ये दरअसल हैं क्या? सेहत के हिसाब से जिन शारीरिक अनुपातों से जोखिम का आकलन किया जा सकता है, वे हैं बीएमआइ (बॉडी मास इंडेक्स) और कमर का आकार। पर, इनकी सीमा क्या हो सकती है, इसके बारे में अच्छे-विश्वसनीय आंकड़ों का अभाव है। लेकिन जो भोजन हम करते हैं, क्या उसकी क्वालिटी/गुणवत्ता की ओर हम वाकई ध्यान देते हैं? क्या हम इस बात की फिक्र करते हैं कि उसे किस तरह से रखा गया है, वह किस तरह से बनाया गया है? उसे किस तरह से उपजाया गया है? क्या वे दूषित हैं या पहले ही उपभोग किए जा चुके हैं? इसके बाद ही हम पोषक तत्वों की उपलब्धता के बारे में बात कर सकते हैं। अगर इन बिंदुओं की ओर ध्यान नहीं दिया गया है, तो इसका कोई मूल्य नहीं है।
यह पूछने की भी जरूरत है कि हम जो खा रहे हैं उसे कहां उपजाया गया था? यह हम तक कैसे पहुंचा? इसका भंडारण कैसे किया गया था? इसे कब तैयार किया गया? बनाए जाने के बाद यह कितनी देर तक रखा गया? और किन स्थितियों में इसे खाया गया? ऐसे वक्त में जब मिलावटी पदार्थ धड़ल्ले से बेचे जा रहे हैं ये सवाल और जरूरी हो जाते हैं, क्योंकि बेहतर और स्वस्थ जिंदगी खानपान से सीधे जुड़ी है।
किसी खाद्य पदार्थ को तब मिलावटी माना जाता है जब उसमें मिलाए गए अवयव का स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़े या उससे पोषक तत्व नष्ट हो जाए या उसमें कमी आए। खाद्य पदार्थों में आम तौर पर तीन तरह की मिलावट की जाती है। पहला, वे चीजें जिनका इस्तेमाल इंसानों के लिए खतरनाक है। दूसरा, किसी सामान में उससे कम कीमत या गुणवत्ता वाले पदार्थ को मिलाना। तीसरा, ऐसी चीजों को मिलाना जो पूरी तरह या आंशिक रूप से उस पदार्थ के बहुमूल्य पोषक तत्वों को कम कर दें।
खाद्य पदार्थों में मिलाए जाने वाले तत्वों को भी हम मोटे तौर पर तीन वर्गों में रख सकते हैं। पहला, रंग, स्टार्च, पेपरऑयल, इंजेक्टेबल डाइस वगैरह, जो जान-बूझकर मिलाए जाते हैं। दूसरा, कीटनाशक के अवशेष, लार्वा, चूहा, छिपकली आदि के अपशिष्ट वगैरह जिनकी जरूरत के हिसाब से मिलावट की जाती है। तीसरा है, खतरनाक धातुएं मसलन शीशा, आर्सेनिक, रासायन वगैरह। मिलावट के बाद खाद्य पदार्थ इस्तेमाल किए जाने लायक नहीं होते। ऐसे पदार्थों का लंबे समय तक इस्तेमाल करने का स्वास्थ्य पर तात्कालिक और लंबे समय तक दोनों असर पड़ता है। कुछ तरह की मिलावटें गंभीर समस्या पैदा करती हैं। कुछ अन्य का असर धीरे-धीरे होता है और नुकसान काफी समय के बाद सामने आता है। मिलावट के धीमे असर का स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव का पता लगाना आसान नहीं होता।
मिलावटी खाने से कई तरह की क्रॉनिक बीमारियां होती हैं। मसलन, लिवर, पेट में गड़बड़ी, कैंसर, उल्टी, दस्त, जोड़ाें में दर्द, हृदय संबंधी परेशानियां, फूड प्वाइजनिंग वगैरह। किसी पदार्थ की घटिया क्वालिटी या उनमें अतिरिक्त मिनरल्स या रासायन जोड़ना हमारे स्वास्थ्य के लिए बड़ी समस्या खड़ी कर देते हैं। मिलावटी खाने की वजह से कई बार गर्भपात या मस्तिष्क को नुकसान तक पहुंचता है। जो बच्चे लंबे समय तक मिलावटी खाने का सेवन करते हैं उनकी सोचने की क्षमता बुरी तरह प्रभावित होती है। खाने को पैक करने के लिए जिन चीजों का इस्तेमाल किया जाता है उससे भी उसकी गुणवत्ता प्रभावित होती है।
ऐसे में सवाल उठता है कि अपनी गाढ़ी कमाई हम क्यों मिलावटी या घटिया गुणवत्ता वाले भोजन पर खर्च करें? क्यों इनका इस्तेमाल कर हम अपने स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाएं और स्वाद से समझौता करें? मिलावट कानूनन जुर्म है। खाद्य संरक्षा एवं मानक अधिनियम, 2006 उत्पादकों, व्यापारियों और कैटरर्स के लिए तय मानकों के हिसाब से भोजन मुहैया कराना अनिवार्य बनाता है। इसके बावजूद मिलावटी पदार्थ धड़ल्ले से बिक रहे हैं।
इस स्थिति में जरूरी हो जाता है कि लोग खुद इस संबंध में जागरूक बनें। खासकर, गृहिणियों, जो अमूमन इन चीजों की खरीदारी करती हैं, को खाद्य पदार्थों के गुण और उन तरीकों से अवगत होना चाहिए जिससे भोजन की गुणवत्ता सुनिश्चित की जा सके। मिलावटी सामान का इस्तेमाल करने के बजाय जहां तक संभव हो सके आर्गेनिक केंद्रों या किसानों से सीधे खरीदारी की जानी चाहिए। घर की बालकनी या टेरिस में छोटा-सा वेजिटेबल गार्डेन भी बना सकते हैं ताकि कम से कम कुछ चीजें तो इस्तेमाल के लिए ताजा मिल सकेंगी। आखिरकार अपने परिवार को शुद्ध और पौष्टिक भोजन उपलब्ध कराना हम सबकी जिम्मेदारी है।
(लेखिका अपोलो हॉस्पिटल्स में चीफ डाइटीशियन और न्यूट्रिशन ऐंड डाइटेटिक्स डिपार्टमेंट की प्रमुख हैं)