इंडिया यानी जो भारत है, बदल रहा है। आजादी और उसके बाद के दो-तीन दशकों तक खाद्यान्न से लेकर औद्योगिक तकनीक और विदेशी सहायता के लिए दूसरे देशों का मुंह ताकने वाला भारत अनेक मोर्चों पर दुनिया को नेतृत्व देने वाला बन गया है। न्यूक्लियर तकनीक से लेकर उपग्रह प्रक्षेपण और इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी के अगुआ देशों में शामिल भारत को आज विदेशी निवेश, बड़े और भारी बाजार की संभावनाओं का देश माना जाता है। लेकिन, पिछले कुछेक वर्षों से देश भारी अशांति और उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा है। इसमें दलितों के असंतोष ने देश और दुनिया का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित किया है।
दलितों के बीच असंतोष लगातार बढ़ रहा है। यह असंतोष हाल की कुछेक घटनाओं से और तेज हुआ है। इनमें राजस्थान के नागौर जिले के डांगावास की घटना, जिसमें एक दलित परिवार के तीन सदस्यों को ट्रैक्टर के नीचे कुचल कर मार दिया गया; हरियाणा में फरीदाबाद के सुन्पेड गांव में दो अबोध दलित बच्चों ढाई साल के वैभव और 11 महीने की दिव्या को जलाकर मार दिया गया; हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी में रोहित वेमुला की सांस्थानिक आत्महत्या और गुजरात में ऊना के मोटा सामधियाला में बालूभाई सर्वैय्या और उनके चार जवान बच्चों को नंगा कर हंटर से पीटने और कार से बांध कर खींचने की जुलाई 2016 की घटनाएं शामिल हैं। उत्तर प्रदेश में शब्बीरपुर, सहारनपुर और इलाहाबाद की घटनाओं से उनका गुस्सा चरम पर पहुंच गया है।
लिहाजा, दलितों का दिन-ब-दिन का अनुभव और सरकारी आंकड़े बताते हैं कि उन पर अत्याचार लगातार बढ़ते जा रहे हैं। लेकिन, अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण कानून के बारे में सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले ने दलितों को पूरी तरह हताश कर दिया, जिसमें अदालत दलितों के रोजमर्रा के सामाजिक उत्पीड़न के अनुभवों की चिंताओं की बनिस्बत उत्पीड़क ताकतवर समूहों के प्रति अधिक संवेदनशील दिखाई दी है। दलितों की इस हताशा को समझने के लिए यह भी याद रखना होगा कि दलितों पर अत्याचार या उनके मामलों में न्यायपालिका का रिकॉर्ड कोई बहुत अच्छा नहीं रहा है। दलितों में यह बात भी घर कर गई है कि उच्च न्यायपालिका दलितों और आदिवासियों के मामलों में न्याय के मौलिक सिद्धांतों का उल्लंघन कर रही है, और इस मसले पर सरकार, संसद और लोकतंत्र का चौथा खंभा मीडिया या तो जान-बूझकर अनजान बने हुए हैं, या दलितों पर सरकार की सकारात्मक भूमिका को न्यायपालिका की आड़ लेकर खत्म कर देना चाहते हैं।
दलितों और आदिवासियों ने देखा है कि किस तरह इंदिरा साहनी बनाम केंद्र सरकार के केस में जहां मसला सामाजिक और शैक्षिक पिछड़े वर्गों का था, उसमें दलितों और आदिवासियों का पक्ष सुने बिना उनके मसलों पर उन्हें प्रभावित करने वाला फैसला दिया गया। प्रोन्नति में आरक्षण पर इलाहाबाद हाइकोर्ट ने अनुसूचित जाति व जनजाति के संबंध में उत्तर प्रदेश सरकार से उनके प्रतिनिधित्व से संबंधित आंकड़े पेश करने को कहा, जिसे सरकार ने नहीं रखा। यह फैसला सुप्रीम कोर्ट के सामने गया, वहां भी सरकार ने कोई रिपोर्ट और आंकड़ा पेश नहीं किया। नतीजाः अनुसूचित जाति-जनजाति को प्रोन्नति में आरक्षण समाप्त कर दिया गया और यह फैसला अन्य उच्च-न्यायालयों के लिए मार्गदर्शक बन गया और अब देश के अधिकांश राज्यों में दलितों का प्रोन्नति में आरक्षण खत्म कर दिया गया है।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के चार जजों द्वारा न्यायपालिका के बारे में उठाए गए सवाल और अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण कानून के बारे में सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले ने देश के सामने न्यायपालिका की साख पर सवाल खड़ा कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने 30 करोड़ से अधिक दलितों और आदिवासियों के सम्मान से जीने के अधिकार, जिसके लिए अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण कानून लाया गया था, के बारे में फैसला देने से पहले अनुसूचित जाति-जनजाति की संवैधानिक संस्थाओं को सुनना भी मुनासिब नहीं समझा। हमें याद रखना चाहिए कि सदियों से हाशिए पर स्थित समाजों-दलितों, आदिवासियों, महिलाओं और पिछड़े वर्गों–के प्रतिनिधित्व की देश की उच्च न्यायपालिका में भर्ती की कॉलेजियम प्रणाली में कोई जगह नहीं है। इससे देश के कमजोर तबकों में यह धारणा और मजबूत हुई है कि उच्च न्यायपालिका में उनके प्रतिनिधित्व के बिना उनके संवैधानिक अधिकारों की रक्षा मुश्किल है।
दलितों का मानना है कि राज्य और केंद्र सरकार के वकील जान-बूझकर दलितों और आदिवासियों का पक्ष मजबूती के साथ नहीं रखते हैं, जो आम तौर पर गैर-दलित, गैर-आदिवासी समाज से आते हैं, और अधिकांश केसों में सरकार की ओर से पक्ष रखने वाली अफसरशाही भी इन्हें गैर-दलित और गैर-आदिवासी समाजों से आती है। उच्च-अफसरशाही दलितों, आदिवासियों और पिछड़े वर्गों को लगातार हाशिए पर डालने का षड्यंत्र रचती रहती है और राजनैतिक कार्यपालिका में अधिकांश मंत्री भी गैर-दलित, गैर-आदिवासी और गैर-पिछड़े वर्गों से आते हैं। ऐसे में दलितों, आदिवासियों और पिछड़े वर्गों की विशाल संख्या के हितों की लगातार अनदेखी एक प्रणालीगत कमजोरी है, जिसे तुरंत दुरुस्त किया जाना जरूरी है।
लेकिन, दलितों और आदिवासियों के आक्रोश को समझने के लिए इसके आर्थिक पहलुओं को भी समझना जरूरी है। देश की सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना के सार्वजनिक आंकड़ों के अनुसार देश के 54.67 फीसदी दलित परिवार तथा 35.62 फीसदी आदिवासी परिवार भूमिहीन हैं। मध्य प्रदेश में दलितों और आदिवासियों की सम्मिलित आबादी 36.5 फीसदी है, जबकि उनके पास भूमि पांच फीसदी से भी कम है। पंजाब में 77.20 फीसदी, बिहार में 76.21 फीसदी, हरियाणा में 74.30 फीसदी, मध्य प्रदेश में 60.92 फीसदी राजस्थान में 41.87 फीसदी और उत्तर प्रदेश में 42 फीसदी दलित परिवार भूमिहीन हैं।
यही नहीं, सिकुड़ती सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों के बीच देश में दलितों के 83.56 फीसदी और आदिवासियों के 86.57 फीसदी परिवारों में उच्चतम आय 5,000 रुपये से कम है। रिजर्व बैंक में विदेशी पूंजी के अकूत भंडारों के दावे के बावजूद देश में दलितों के 4.69 फीसदी और आदिवासियों के 4.48 फीसदी परिवार ही ऐसे हैं, जिनमें परिवार के व्यक्ति की आय 10 हजार रुपये महीने से ज्यादा है। हमें यहां यह बात याद रखनी है कि ज्यादातर जगहों पर सरकार के घोषित संगठित क्षेत्र की न्यूनतम मासिक मजदूरी भी उनकी मासिक आय से ज्यादा है। ऐसे में जल्दी में किए गए नोटबंदी और कैशलेस इकोनॉमी के प्रयासों ने आजीविका के लिए मौसमी पलायन और असंगठित क्षेत्र पर निर्भर दलितों की घरेलू अर्थव्यवस्था को चौपट कर दिया है।
दलितों, आदिवासियों के स्वास्थ्य और पोषण के आंकड़ों को देखेंगे तो पाएंगे कि वे आय, आजीविका और संसाधनों के अभाव में जीवन के उस स्तर पर जीने को मजबूर हैं, जहां उनकी भावी पीढि़यां केवल कुपोषण, ठिगनेपन, रक्त-अल्पता और रतौंधी जैसी बीमारियों से मुकाबला करने के लिए अकेले छोड़ दी जाती हैं। जब देश के प्राकृतिक संसाधनों को निजी क्षेत्र को सौंपने की सरकारी कवायद चल रही है, वहां इन संसाधनों पर आश्रित इन तबकों को लगातार उनके प्राकृतिक कब्जे से धकेला जा रहा है। सड़कें, हवाई-अड्डे और संस्थान उन जिलों या जमीनों में आबाद किए जा रहे हैं, जहां इन तबकों की सम्मिलित ताकत या तो न के बराबर है, या जहां उन्हें उनके संसाधनों से आसानी से वंचित किया जा सकता है।
प्रशासन, सरकार, अर्थव्यवस्था, न्यायपालिका और मीडिया में लगातार हाशिए पर देश के तीस करोड़ से अधिक दलितों के पास केवल और केवल उनकी प्रतिनिधि संसद ही है, जहां उनके प्रतिनिधि कितने ही कमजोर हों, लेकिन सांसद और विधायक होने के नाते आवाज उठा सकते हैं। लेकिन, पिछले कुछ वर्षों में उनके ज्यादातर मुखर प्रतिनिधि या तो उस सत्ताधारी खेमे में हैं, या हारे हुए खेमे में हाशिए पर हैं, जहां उनकी आवाज लगातार क्षीण होती जा रही है। साथ ही, जिन राजनैतिक दलों पर उनका भरोसा था, या जिनको वे अपने नजदीक मानते रहे हैं, उनके व्यवहार से भी उनका भ्रम टूटा है।
दलितों और आदिवासियों के बीच उनके स्थापित राजनैतिक नेतृत्व की साख पिछले कुछेक वर्षों में बुरी तरह प्रभावित हुई है। हमने देखा है कि बसपा अध्यक्ष कुमारी मायावती के राज्यसभा से इस्तीफा देने के बावजूद दलित समाज की तरफ से कोई तीखी या ऐसी प्रतिक्रिया नहीं हुई, जिससे पार्टी का भविष्य उज्ज्वल दिखाई देता हो। इसके बरक्स, देश में एक नया दलित नेतृत्व उभार पर है। ऊना, सहारनपुर और अब भारत बंद का देशव्यापी असर देश के पटल पर नए दलित नेतृत्व की धमक का आगाज है।
(लेखक नेशनल कन्फेडरेशन ऑफ दलित ऐंड आदिवासी आर्गनाइजेशन्स (नेकडोर) के संस्थापक, पूर्व अध्यक्ष और वर्तमान में मुख्य सलाहकार हैं। लेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं)