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डिफॉल्टरों पर दरियादिली, आम लोगों पर दुश्वारियां

सरकारी बैंक भगोड़ों को कर्ज देने में उदार मगर जरूरतमंद आम आदमी के लिए सख्त कायदों के पैरोकार
आम लोगों के लिए कर्ज पाना आसान नहीं

आम आदमी या छोटे व्यवसायियों के लिए बैंक धोखाधड़ी के दौर में कर्ज पाना भला कितना आसान है? खासकर, सरकारी बैंकों से बड़े व्यवसायियों और कॉरपोरेट्स को आसानी से कर्ज मिल जाता है। लेकिन, सख्त कायदों और जटिल प्रक्रियाओं के कारण सरकारी बैंक से कर्ज लेने के ‌लिए आम आदमी और छोटे व्यवसायियों को काफी भागमभाग करनी पड़ती है। जबकि यही बैंक बड़े व्यवसायियों को एक से एक सुविधाओं की पेशकश करते हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि पहले बड़े व्यवसायों के लिए भी औद्योगिक और आवासीय संपत्तियों की सिक्योरिटी मिलने के बाद बैंक कर्ज देते थे। आज गारंटी देना बेहद आसान हो गया है। विदेश से आने वाली सामग्री के भुगतान के लिए बैंक की गारंटी लेटर ऑफ अंडरटेकिंग (एलओयू) हासिल करना भी आसान हो गया है। जब कोई बैंक किसी कंपनी को एलओयू देता है तो बिना किसी शर्त के उस कंपनी का कर्ज और ब्याज चुकाने की सहमति दे देता है। आज कितनी आसानी से कंपनी को बैंक एलओयू दे रहे हैं इसका प्रमाण नीरव मोदी का मामला है। डिफॉल्टर होने के बावजूद अंधाधुंध तरीके से उसे एलओयू जारी किए गए।

लेकिन, कर्ज के लिए बैंक का दरवाजा खटखटाने वाले आम आदमी और छोटे व्यवसायियों के लिए चीजें इतनी आसान नही हैं। एसबीआइ के पूर्व अधिकारी और बैकिंग सेक्टर के कंसल्टेंट राजेश ऐलावादी ने बताया, “नए लोगों को बैंक तभी कर्ज देते हैं जब वे कर्ज की रकम का 100-150 फीसदी सिक्योरिटी देते हैं। बिना सिक्योरिटी कर्ज केवल ए प्लस रेटिंग वाली कंपनियों को दिया जाता है जो पांच से दस साल तक पुरानी होती हैं। बीते तीन साल से सरकारी बैंक भी कर्ज लेने वाले से 120-150 फीसदी सिक्योरिटी पर जोर दे रहे हैं।” कुछ मामलों में, बैंक छोटे व्यवसायी की कुल आय (एबिटा) तक को आधार बनाते हैं। 

कंज्यूमर लोन के ज्यादातर मामलों में सरकारी बैंक काफी सवाल करते हैं। सरकारी कर्मचारी की गारंटी मांगते हैं जो ज्यादातर लोगों के लिए मुश्किल होता है और लोन की गारंटी भी कोई नहीं देना चाहता। न्यूजपेपर वेंडर देवी प्रसाद को विदेश में बच्चे की उच्च शिक्षा के लिए पंद्रह लाख रुपये की जरूरत थी। उन्होंने कम से कम तीन सरकारी बैंक से स्टूडेंट लोन लेने की कोशिश की। लेकिन, सरकारी कर्मचारी की गारंटी नहीं दे पाने के कारण उन्हें लोन नहीं मिला। आखिरकार, देवी प्रसाद के पास साहूकार से ऊंचे ब्याज पर कर्ज लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा। वे समझ नहीं पा रहे हैं कि उनके जैसे लोग जो कर्ज का भुगतान करने में कभी कोताही नहीं करते उन्हें कर्ज क्यों नहीं मिलता। ऐलावादी ने बताया, “वेतन का पांच गुना कर्ज उनलोगों को ही मिलता है जो संगठित क्षेत्र में काम करते हैं। ऐसा नहीं होने पर कर्ज पाने की संभावना चालीस फीसदी से भी कम होती है।”

यही कारण है कि ज्यादातर छोटे व्यवसायी और कंज्यूमर आमतौर पर साहूकारों या अन्य स्रोतों से कर्ज लेते हैं। मसलन, नॉन बैंकिंग फाइनेंशियल कंपनीज (एनबीएफसी) सरकारी बैंकों के मुकाबले आसानी से कर्ज देती हैं। लेकिन, एनबीएफसी के पास निगरानी और कर्ज वसूली का अपना तंत्र होता है जो बैंक से ज्यादा सख्त है। ऑल इंडिया बैंक इम्पलाईज एसोसिएशन के पूर्व उपाध्यक्ष विश्वास उत्तागी ने बताया, “सामान्य तौर पर बैंक देखते हैं कि कर्ज ली जाने वाली रकम का कम से कम चौथाई हिस्सा आवेदक के पास पहले से हो। इसके बाद उन्हें सिक्योरिटी देनी होती है। यह जमीन या मशीनरी हो सकती है, जिसकी कीमत कर्ज की रकम से सौ से डेढ़ सौ फीसदी अधिक हो। सरकारी बैंक गारंटी पर ज्यादा जोर देते हैं। इसके कारण इन बैंकों से छोटे व्यवसायियों और आम उपभोक्ता के लिए कर्ज हासिल करना मुश्किल होता है। छोटे और मझोले उद्योगों को बैंकों की मदद की जरूरत है लेकिन कर्ज के सख्त कायदों के कारण ऐसा नहीं हो पाता है।”

इस स्थिति और देश को स्तब्‍ध करने वाले बैंक घोटालों के कारण सरकारी बैंकों के निजीकरण की मांग की जा रही है। बैंकों पर सात लाख करोड़ रुपये से ज्यादा का भारी-भरकम एनपीए है। बैंकों की खराब हालत और एनपीए में बढ़ाेतरी के कारण सरकार ने सरकारी बैंकों को मजबूती देने के लिए बीते साल 2.11 लाख करोड़ रुपये के पैकेज की घोषणा की थी। उम्मीद की जा रही है कि इससे एमएसएमई (कुटीर, छोटे और मझोले उद्योगों) को बैंकों की मदद मिल पाएगी। अगले एक साल में सरकारी बैंकों के निजीकरण की संभावना को खारिज करते हुए केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली कह चुके हैं कि इसके लिए राजनैतिक सहमति की जरूरत होगी। कई विशेषज्ञ भी मानते हैं कि मौजूदा हालात में बैंकों का निजीकरण संभव नहीं है।

देश में बैंकों का राष्ट्रीयकरण 1969 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सामाजिक उद्देश्य और वित्तीय समावेशन को बढ़ावा देने के लिए किया था। एंबिट कैपिटल के निदेशक पंकज अग्रवाल ने बताया, “बढ़ती हुई अर्थव्यवस्‍था में अलग-अलग तरह के उद्योगों और एमएसएमई को आर्थिक मदद की जरूरत होती है। यही कारण है कि बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया था। बैंकों का निजीकरण कर दिया जाए तो वे वित्तीय समावेशन के सरकार के एजेंडा को आगे बढ़ाएंगे, इसमें संदेह है। जनधन योजना के तहत सरकारी बैंकों ने खाते खोले। लेकिन, निजी बैंकों की इसमें बेहद कम हिस्सेदारी है। सरकारी बैंकों का निजीकरण कर दिया गया तो सरकार के लिए सामाजिक उद्देश्यों को पूरा करना आसान नहीं होगा। प्राइवेट बैंक केवल मुनाफा कमाने के मकसद से चलाए जाते हैं और अपने शेयरधारकों के हितों को लेकर ही चिंतित होते हैं। ग्रामीण इलाकों में प्राइवेट बैंकों की कितनी शाखाएं हैं?”

केंद्र सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यन सरकारी बैंकों के निजीकरण का मसला उठा चुके हैं। हाल ही में उन्होंने कहा था कि भविष्य में नीरव मोदी जैसी घटनाओं को रोकने के लिए सरकारी बैंकों का निजीकरण जरूरी है। कई और लोग भी इसके हक में हैं। प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के चेयरमैन बिबेक देबरॉय ने भी हाल ही में कहा था कि सरकारी बैंकों के साथ गवर्नेंस का मसला है और इसे सुधारने की जरूरत है। नीति आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष अरविंद पानगढ़िया ने भी सरकारी बैंकों के निजीकरण की वकालत की थी। लेकिन, निजीकरण हुआ तो भारी भरकम एनपीए के साथ बैंकों को खरीदेगा कौन? निजी क्षेत्र की कंपनी मुनाफे पर ध्यान देगी। साथ ही सरकारी बैंक काफी संगठित हैं और निजी खरीदारों के लिए ‘भर्ती करो और निकालो’ जैसी नीति लागू करना आसान नहीं होगा।

ईवाइ इंडिया में पाटर्नर और वित्तीय सेवाओं के नेशनल लीडर अबीजर दीवानजी ने बताया, “राजनैतिक तौर पर भी इसे सही तरीके से नहीं देखा जाएगा क्योंकि इससे बड़े पैमाने पर नौकरियां खत्म होंगी।” दीवानजी का मानना है कि निजीकरण के लिए सरकारी बैंकों में चरणबद्ध सुधार किया जाना चाहिए ताकि वे खरीदारों को आकर्षित कर सकें। इसमें सरकारी बैंकों में कर्मचारियों की संख्या बढ़ाना और निजी क्षेत्र के बैंकों के मुकाबले वेतन में सुधार शामिल है। 2015 में सरकारी बैंकों की हालत सुधारने के लिए सात सूत्रीय इंद्रधनुष योजना बनाई गई थी।

दीवानजी ने बताया, “सरकार को सभी सरकारी बैंकों की एक होल्डिंग कंपनी बनाकर 26 फीसदी हिस्सेदारी का निजीकरण कर देना चाहिए। सभी सरकारी बैंकों को मिलाकर यदि सरकार 26 फीसदी हिस्सेदारी निजी क्षेत्रों को बेच देती है तो उसे दो लाख करोड़ रुपये मिलेंगे।” लेकिन, जब सरकार 2019 के आम चुनावों को लेकर चुनावी मोड में आ चुकी है, वह बैंकों को निजी हाथों में सौंपकर राजनीतिक रूप से संवेदनशील मुद्दे को हवा नहीं देना चाहेगी।

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