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ऐसे बनते हैं मनुष्य से मेघ

इस संग्रह में शंख घोष कई बार बहुत सरल और सादे लगते हैं, लगभग सपाटपन को छूते हुए
मेघ जैसा मनुष्य

कई समर्थ कवियों से भरी-पूरी बांग्ला कविता की विरासत जिन समकालीन स्वरों में अलग आयाम ग्रहण करती है, उनमें शंख घोष प्रमुख हैं। सुभाष मुखोपाध्याय, शक्ति चट्टोपाध्याय, बुद्धदेब बोस, नबारुण भट्टाचार्य, सुनील गंगोपाध्याय और जय गोस्वामी जैसी अलग-अलग आवाजों के बीच उनकी कविता अपनी चुप्पी के लिए पहचानी जाती है। हिंदी में उनका नया संग्रह मेघ जैसा मनुष्य नाम से प्रकाशित हुआ है जिसका अनुवाद प्रयाग शुक्ल जैसे वरिष्ठ कवि और समर्थ अनुवादक ने किया है। प्रयाग शुक्ल के अनुवादों में गीतांजलि के अलावा जीवनानंद दास की कविताएं भी शामिल हैं। जाहिर है, इस अनुवाद पर उनके अपने सृजन और अध्ययन की छाप भी है।

इस छाप से जो अनूदित शंख घोष हमें मिलते हैं वे जैसे शब्दों की मितव्ययिता की शर्त रखकर, चुप्पियों को साधते हुए कविता को संभव करने में जुटे हैं। हालांकि ‘निःशब्द निर्जनता’ की बात वे पहले भी कर चुके हैं (‘चाहत का तूफान’ कविता) लेकिन वहां उद्वेलन भी बहुत हैं, जबकि इस संग्रह में एक अजब सी शांति है जो कई बार तो कविता को भी असंभव बनाती हुई जान पड़ती है। कविता फिर भी उससे निकल आती है तो उस चुप्पी की वजह से ही, जिसमें अपने को या अपने जीवन को उसकी संपूर्णता या अनूठेपन में देखना संभव होता है। वे मेघ जैसा मनुष्य देखते हैं और कहते हैं, ‘लगता है छू दें उसे तो झर पड़ेगा जल।’ यह मनुष्य की व्याख्या नहीं है, बस यह एहसास है कि ‘संभव है, जाऊं यदि पास में उसके किसी दिन तो / मैं भी बन जाऊं एक मेघ।’ यह रासायनिक परिवर्तन चुपचाप कविता में ही घटित हो सकता है।

इस संग्रह में शंख घोष कई बार बहुत सरल और सादे लगते हैं, लगभग सपाटपन को छूते हुए। आप पन्ने पलटते और खोजते जाते हैं कि कहीं कोई जादू मिले। लेकिन शंख घोष जादू करने वाले कवि नहीं हैं। वे धीरे-धीरे उतरने या आगे बढ़ने वाले कवि हैं। उनके साथ धीरज से चलना पड़ता है। साथ चलते हुए भी वे बताना नहीं भूलते, ‘तुम सब आए हो, इसलिए कहता हूं तुम सबसे / अभी हुआ नहीं समय। तुम सब आए हो तुम सबसे कहता हूं। तना हुआ है समयविहीन जाल स्तब्ध / ग्रह से ग्रह तक / चाहिए मुझे निजता कुछ और अनदेखे समय की।’

निश्चय ही इस संग्रह की कविताओं में शंख घोष की गति अतिरिक्त मंथर दिखती है। कविता में मौन हमारे आधुनिक भावबोध का एक अपरिहार्य तत्व है, जिसे बहुत सारे कवि अपने-अपने ढंग से बरतते रहे हैं, खुद प्रयाग शुक्ल की कविता बहुत सारे दृश्यों में गुंथी रहने के बावजूद अंततः एक चुप्पी तक ले जाती है। लेकिन शंख घोष की पुरानी कविताओं में मौन या चुप्पी या शब्दहीनता का आग्रह फिर भी एक बड़े प्राकृतिक बिंब विधान के बीच कुछ इस तरह घटित होता है कि एक हलचल महसूस होती है। इस संग्रह में तो वे बिलकुल हलचलों के पार जाते दिखाई पड़ते हैं। जैसे, मुमकिन हो तो शब्दों का कवच भी उतार डालें। इस बात से उनकी कविता जितनी सहज होती जाती है उतनी ही दुरूह भी। लगता है, उसे समझना बहुत आसान है, लेकिन अचानक हम पाते हैं कि उसमें अर्थ की बहुत सारी द्युतियां हैं। इस लिहाज से यह संग्रह अपने पाठ में अतिरिक्त धीरज की मांग करता है। लेकिन कवि को इससे मतलब नहीं है। वह दुनिया देख रहा है, उसे रेत-रेत होता देख रहा है और कह रहा है, ‘कभी और दुनिया यह, लगी नहीं थी / पहले इससे ज्यादा खाली।’ ठीक से पढ़ें तो इस खालीपन में और उसे भरने के लिए चल रहे शोर में हम अपने समय की कुछ त्रासदी पढ़ सकते हैं।

कविता का अनुवाद कठिन है। किसी भी अनुवाद में सबसे पहले कविता का वह जादू मारा जाता है जो उसकी संपूर्ण-आंतरिक या बाह्य-लय से पैदा होता है। लेकिन कवियों या अनुवादकों को फिर भी यह काम करना पड़ता है। वे कवि को उसकी भाषा की खोल और जड़ से निकाल कर, उसके स्पंदनों सहित दूसरी भाषा में रोपते हैं। यह न होता तो हम बहुत सारी मूल्यवान कविता से अपरिचित रह गए होते। बहरहाल, शंख घोष का यह अनूदित संग्रह पढ़ते हुए अनुवाद के इस संकट का भी भान होता चलता है।

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