Advertisement

धर्म के अनुबंध में राजनीति की मधुगंध

मन के अनुबंध की क्या कोई कीमत होती है? अगर होती भी होगी तो जनता है न, उसे चुकाने के लिए
धर्म और राजनीति के बीच अनुबंध

एक जमाने में हिंदी नवगीतकारों का प्रिय शब्द ‘अनुबंध’ होता था। अब क्या है पता नहीं। एक वक्त ऐसा था जब लगता था बिना इस शब्द के गीत नहीं हो सकता। मौसम से अनुबंध, पीड़ा का अनुबंध, सावन से अनुबंध, पता नहीं क्या-क्या! इस शब्द की लोकप्रियता शायद इसलिए थी कि संबंध, मधुगंध वगैरह से इसका तुक मिलता था। मुझे हमेशा इस शब्द से किसी छोटे-मोटे बांध या पुलिया का बोध होता रहा है।

मसलन, इस नाले पर अनुबंध का शिलान्यास विधायक श्री अमुक जी द्वारा किया गया। इसकी एक वजह यह है कि वास्तव में मैंने अनुबंध वही देखा जो किसी सरकारी दफ्तर के रंग उड़े कमरे में बड़े बाबू द्वारा ठेकेदार को दिया जाता है। बदले में ठेकेदार बड़े बाबू को एक लिफाफा थमाता है जिसे बड़े बाबू जेब में डाल लेते हैं। हो सकता है कि कवि सम्मेलन के संयोजक और कवियों के बीच ऐसा अनुबंध होता हो। ज्यादातर संयोजकों और कवियों की शक्लें सरकारी दफ्तर में पाए जाने वाले उन चरित्रों से मिलती हैं। लेकिन अब मुझे एक नया अनुबंध दिखाई दे रहा है जिसमें नवगीत की भावुकता और सरकारी दफ्तर वाली ठोस व्यावहारिकता दोनों अर्थों का समावेश है। यह अनुबंध है धर्म और राजनीति के बीच। इसके कई स्तर हैं, यहां हम एक ही स्तर की बात करेंगे।

जब राजनेता किसी धार्मिक नेता के मंच पर या उसके आश्रम में जाते हैं तो भाव विभोर हो कर भक्तिभाव से, भरे कंठ से उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं। इसमें लिफाफा वगैरह शामिल नहीं होता क्योंकि जिस स्तर का यह अनुबंध है उसमें लिफाफे जैसी छोटी चीज नहीं आ सकती। आखिर लिफाफे में कितना पैसा आ सकता है? बदले में नेता को धर्मप्राण जनता से वोट पाने की उम्मीद होती है। यह अनुबंध तब तक जारी रहता है जब तक धार्मिक नेता का किसी कांड से अनुबंध नहीं हो जाता और वह जेल से अनुबंधित नहीं हो जाता। यह अनुबंध कुछ भी हो सकता है। मसलन, हमारे मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री अत्यंत धर्मपरायण व्यक्ति हैं। उन्होंने अपनी भावुकता में बह कर पांच धार्मिक नेताओं को मनुहार से रिझाकर राज्यमंत्री पद की अनुबंध रूपी नाजुक रेशमी डोर से बांध दिया। इसके पहले उनमें से कुछ धर्मगुरु सरकार को, घोटालों के आरोपों से रूठने की धमकी दे चुके थे। राज्यमंत्री पद का अनुबंध मिलते ही वे वैसे ही मान गए जैसे गीत का प्रिय पात्र मान जाता है।

इस भावुक अनुबंध को देखकर मेरी आंखें भर आईं। ऐसा रूठना और ऐसा मनाना अब और कहां देखने को मिलता है। आजकल तो फिल्मों में भी रूठने मनाने के प्रसंग देखने में नहीं आते। गीतकारों की भी मंच से छुट्टी सी हो चली है, वहां भी हास्य कवियों का बोलबाला है। यह इस परस्पर प्रेम और त्याग की कहानी का छोटा-सा अंश है। आखिर धर्मगुरुओं ने राजनीति के लिए क्या नहीं किया। जब-जब जनता गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टाचार जैसी छोटी-मोटी समस्याओं में अपनी ऊर्जा नष्ट करती है तो धर्मगुरु ही उसे सही रास्ते पर लाते हैं और धार्मिक मुद्दों की आंच में तपाते हैं। इसके बदले पांच-सात राज्यमंत्री पद क्या है? मन के अनुबंध की क्या कोई कीमत होती है? अगर होती भी होगी तो जनता है न, उसे चुकाने के लिए!

Advertisement
Advertisement
Advertisement