आजादी के बाद सात दशकों से देश में सरकारें आईं-गईं मगर विदेश नीति के मूल उद्देश्य पुख्ता बने रहे। देश के चौतरफा विकास के प्रति दृढ़ प्रतिबद्धता से ही भारतीय विदेश नीति की दिशा तय होती रही है। इस तरह विदेश नीति हमेशा ही हमारी राष्ट्रीय नीति की अनुगामी रही है। हालांकि, एक फर्क फिर भी रहा है क्योंकि विदेश नीति को समय-समय पर प्रभावित करने वाले विदेशी घटनाक्रम भारत सरकार के वश में नहीं रहे हैं जबकि हमारी घरेलू नीति पूरी तरह केंद्र सरकार के नियंत्रण में और संविधान के संघीय ढांचे के अनुरूप रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सत्ता संभालने के पहले यूं तो विदेशी संबंधों से अपरिचित नहीं रहे हैं, लेकिन उन्होंने 2014 के आम चुनावों में प्रचार के दौरान विदेश नीति से संबंधित कोई खास बयान नहीं दिया था। फिर भी, इसमें दो राय नहीं कि उन्होंने सरकार बनने के बाद विदेश नीति के दायरे में सर्वाधिक ऊर्जा झोंकी और अप्रत्याशित सक्रियता दिखाई। इसमें भी दो राय नहीं है कि उनकी सक्रियता ने भारत के हक में काफी फायदे जुटाए और देश को एक नए रणनीतिक मुकाम पर पहुंचाया। वैसे, विश्व व्यवस्था में संक्रमण के इस दौर की अपनी चुनौतियां और अवसर भी हैं।
शीत युद्ध के खात्मे के बाद बनी एकध्रुवीय दुनिया के तार लगातार बिखर रहे हैं और नई बहुपक्षीय विश्व व्यवस्था आकार लेने लगी है। पश्चिम के दबदबे वाली विश्व व्यवस्था के एक हद तक पतन और चीन के उभरने से मोदी सरकार कई चुनौतियों से मुकाबिल है। इसका असर उसकी विदेश नीति पर भी दिखता है। हालांकि, यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि किसी सरकार की विदेश नीति को दो टूक नजरिए से नहीं आंका जा सकता। उसके कई दायरे होते हैं।
देश के कई प्रधानमंत्रियों की तरह नरेंद्र मोदी ने भी अपने दक्षिण एशियाई पड़ाेसियों की ओर हाथ बढ़ाकर ही विदेश नीति में अपनी पारी की शुरुआत की। अपने शपथ ग्रहण समारोह में पड़ाासी देशों के नेताओं को न्योतने का उनका अनोखा विचार उनकी “पड़ाेस नीति” की शुरुआत थी। उन्होंने पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया तो पाकिस्तानी फौज ने अपनी शह वाले आतंकवादी संगठनों के जरिए सीमा पार से आतंकी हमलों से उस कोशिश को बेमानी बना दिया। फिर, नियंत्रण रेखा पर भारत की जवाबी कार्रवाइयों से जम्मू-कशमीर में पाकिस्तान की शह से हिंसा की लपटें भड़क उठीं। मोदी सरकार ने शायद इस ओर ध्यान नहीं दिया कि पाकिस्तानी फौज को देश में निर्वाचित सरकार से भारत की दोस्ती बर्दाश्त नहीं होगी।
आखिर पाकिस्तानी फौज ने परदे के पीछे से जोड़तोड़ और धौंस-पट्टी वगैरह से न्यायपालिका को साध कर नवाज शरीफ को सत्ता से बाहर कर दिया और ताउम्र सियासत करने पर बंदिश लगवा दी। पाकिस्तान में इस्लामी कट्टरता, “हिंदू” भारत के खिलाफ नफरत, कश्मीर को हासिल करने का “बंटवारे का अधूरा एजेंडा” और बांग्लादेश में भारत की भूमिका का बदला लेने की भावना आज भी फल-फूल रही है और इसी के बूते वहां फौज का दबदबा कायम है।
यह दलील दी जा सकती है कि प्रधानमंत्री मोदी ने पाकिस्तान में निर्वाचित सरकार पर भरोसा करके गलती की। उन्हें यह एहसास होना चाहिए था कि असली सत्ता पाकिस्तानी फौज के हाथ ही है और उसके हित भारत से सामान्य संबंधों से नहीं सधते। चीन से आर्थिक और सामरिक फायदे हासिल करने और भारत को अस्थिर करने में पाकिस्तान की भूमिका भला कैसे सधेगी, अगर वह भारत के साथ दोस्ताना रिश्ते अपना लेगा। इसलिए पाकिस्तान से दोस्ती का हाथ बढ़ाने के लिए प्रधानमंत्री मोदी को दोष देना तो ठीक नहीं है। अलबत्ता उनकी कोशिशें कामयाब नहीं हो पाईं इसलिए उनकी नीति आलोचना से नहीं बच सकती।
हालांकि, प्रधानमंत्री मोदी की मालदीव, नेपाल और श्रीलंका की ओर पहल भी बहुत अधिक सकारात्मक नतीजे नहीं दे पाई। श्रीलंका ने अपने यहां चीन द्वारा बंदरगाह और हम्बनटोटा में हवाई अड्डे के निर्माण में भारत की चिंताओं पर कुछ ध्यान दिया है। नेपाल में चुनाव के बाद एक नई शुरुआत हुई है और नए संबंध आकार लेने शुरू हुए हैं। नेपाल नीति की गफलतों ने भारत को मालदीव के प्रति अधिक सतर्क रवैया अपनाने पर मजबूर कर दिया। इन देशों में चीन की बढ़ती पैठ बड़ा पहलू बन गई है और ये भारत के मुकाबले चीन कार्ड का आसानी से इस्तेमाल करने लगे हैं।
प्रधानमंत्री मोदी की विदेश नीति के दो सकारात्मक पहलू बांग्लादेश और पश्चिम एशिया में दिख रहे हैं। भूमि सीमांकन समझौता और समुद्री सीमा के चिह्नित करने से बांग्लादेश से संबंधों में काफी सुधार आया है। बांग्लादेश से सुरक्षा और खुफिया सहयोग से पूर्वोत्तर में अलगाववादी उग्र गुटों पर काबू पाने में मदद मिली है। इसी तरह प्रधानमंत्री मोदी की ऐतिहासिक इजरायल यात्रा से भारत की पश्चिम एशिया नीति अधिक परिपक्व हुई है। भारत ने उस क्षेत्र के विरोधी देशों के साथ एक संतुलन कायम करने में कामयाबी पाई है। इस कामयाबी में प्रधानमंत्री मोदी की व्यक्तिगत स्पर्शवाली कूटनीति अहम रही है। भारत अब उस क्षेत्र में किसी के प्रति झुका नहीं दिख रहा है।
भारत की विदेश नीति के लिए दूसरी बड़ी चुनौती चीन है और उसके प्रति मोदी सरकार अधिक सतर्क है। हाल में चीन के प्रति भारत के रवैए में तथाकथित “पुनर्संयोजन” एक तरह का कोर्स करेक्शन है। हाल में शंघाई सहयोग संगठन की बैठक के लिए विदेश मंत्री और रक्षा मंत्री का उच्चस्तरीय बीजिंग दौरा और उसके फौरन बाद प्रधानमंत्री मोदी की राष्ट्रपति शी जिनपिंग से द्विपक्षीय भेंटवार्ता ने इस पुनर्संयोजन को आगे बढ़ाया है। यह कोशिश दोकलाम घटनाक्रम से पैदा हुए टकराव के साल भर बाद शुरू हुई है। दरअसल, रवैए में बदलाव ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के लिए प्रधानमंत्री मोदी के चीन दौरे के बाद आया। उसके बाद उच्चस्तरीय दौरों से रिश्ते सुधारने की कोशिशें रंग लाने लगीं। प्रधानमंत्री मोदी तीन बार चीन गए और राष्ट्रपति शी दो बार भारत आए।
भारत-चीन संबंधों की इन नई कोशिशों की वजह आखिर क्या है? इसकी एकाधिक वजहें हो सकती हैं। इनमें सबसे अहम वैश्विक भू-राजनीति और आर्थिकी में आई अस्थिरता है। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का “अमेरिका पहले” नीति के तहत अप्रत्याशित, आक्रामक और मनमौजी रवैया चीन और भारत दोनों पर असर डाल रहा है। अमेरिका में चीनी निर्यात के खिलाफ टैरिफ जंग, भारतीय प्रोफेशनलों पर एच1बी वीजा पाबंदी और भारतीय निर्यात पर टैरिफ बढ़ाए जाने की संभावनाएं अनिश्चितता का माहौल पैदा कर रही हैं।
इसमें एक और पेचीदगी अमेरिका और रूस के रिश्तों में आए तनाव ने जोड़ दी है। खासकर सीरिया में रासायनिक हथियार के इस्तेमाल के बाद मिसाइल हमले से दोनों के रिश्ते गर्त में पहुंच गए हैं। फिर ब्रिटेन, उसके यूरोपीय सहयोगियों और अमेरिका के राजनयिकों को बाहर करने की तू-तू, मैं-मैं वाली शैली ने और माहौल खराब कर दिया है। रूस के खिलाफ अमेरिकी पाबंदियों के इजाफे से खासकर रक्षा खरीद और ऊर्जा के मामले में भारत और दूसरे देशों की परेशानियां बढ़ गई हैं। पश्चिम में संरक्षणवाद की लहर से भारत और चीन दोनों परेशान हैं और दोनों एक मंच पर आने को मजबूर हैं। इसलिए भारत और चीन के बीच नई बातचीत वाजिब लगती है। वैश्विक व्यवस्था की यह अफरातफरी कई देशों को अपने भावी विकल्पों को टटोलने पर मजबूर कर रही है। भारत भी इससे अछूता नहीं है। जाहिर है, प्रधानमंत्री मोदी की चीन के खिलाफ कड़े रुख और दलाई लामा के जरिए तिब्बत कार्ड खेलने की नीति अब ठंडे बस्ते में चली गई है।
आम धारणा यह भी है कि प्रधानमंत्री मोदी के अमेरिका की ओर झुकाव से रूस के साथ रिश्तों में दूरी आई है। इसमें आंशिक सच्चाई तो हो सकती है लेकिन रूस से दूरी की वजह रक्षा उत्पादों की आपूर्ति में रूस की देरी और कीमत पर रूसी कंपनियों का अड़ियल रवैया हो सकता है। अमेरिका के साथ द्विपक्षीय रिश्तों में प्रधानमंत्री मोदी के प्रयासों से काफी मजबूती आई है। आर्थिक रिश्ते भी इससे बेहतर पहले कभी नहीं रहे।
प्रधानमंत्री मोदी की विदेश नीति की सक्रियता से अफ्रीका, मध्य एशिया, लैटिन अमेरिका, यूरोपीय संघ, आसियान और बिमस्टेक के प्रति नई पहल का सूत्रपात हुआ है। हालांकि एक चिंताजनक पहलू सार्क देशों के बीच संपर्क साधनों, व्यापार और निवेश की नई चुनौतियों से निबटने में नाकामी है। पाकिस्तान ने इस दायरे में बढ़ने की कोशिशों पर पानी फेर दिया है। इससे भारत ईरान के बंदरगाह चाबहार के रास्ते अफगानिस्तान और मध्य एशिया तक पहुंच बनाने को मजबूर हुआ है। मोदी सरकार की एक्ट ईस्ट नीति ने भारतीय विदेश नीति में एक नया अध्याय जोड़ दिया है। बेशक, कई नई पहल हुई मगर नीतियों पर अमल और व्यवस्थागत खामियों से भी मोदी सरकार ग्रस्त है।
बहरहाल, प्रधानमंत्री मोदी की विदेश नीति का आकलन दो टूक तरीके से करना आसान नहीं है। पिछले चार साल के नतीजे मिलेजुले रहे हैं या कहिए आधा गिलास ही भरा रहा है, जिसके मायने यह भी हैं आधा खाली ही रहा है। अगर मोदी की विदेश नीति को एक से दस के पैमाने पर आंका जाए तो उसे छह नंबर देना ही मुनासिब होगा।
(लेखक विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैं और दिल्ली के आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में फेलो हैं)