“गंगा में निर्मलता व उसके प्रवाह में निरंतरता तथा सभी प्रमुख नदियों की स्वच्छता सुनिश्चित करना”
गंगा समेत देश की सभी नदियों की निर्मलता और अविरलता को सुनिश्चित करने के इसी चुनावी वादे को पूरा करने के लिए मोदी सरकार ने जुलाई, 2014 में 20 हजार करोड़ रुपये के 'नमामि गंगे' मिशन की शुरुआत की थी। हालांकि, नदियों की सफाई के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च करने का सिलसिला 1986 में गंगा एक्शन प्लान के समय से चला आ रहा है, लेकिन नदियां साफ होने के बजाय दूषित होती गईं।
मोदी सरकार ने गंगा की सफाई पर नए सिरे से जोर देना शुरू किया तो हालात बदलने की उम्मीद जगी। पहली दफा देश में नदी विकास और गंगा संरक्षण का अलग से मंत्रालय बना। तभी से नदियों की सफाई को लेकर चर्चाओं, गोष्ठियों और बड़े आयोजनों का दौर चल रहा है। मगर, इनके नतीजे तलाशे जाएं तो कई सकारात्मक कोशिशों के बावजूद असर दूर की कौड़ी नजर आता है।
गंगा सफाई के प्रयासों का केंद्र रहे बनारस में अभी ही असर दिखना बाकी है। इस साल शुरू गर्मियों में ही बनारस में गंगा का जलस्तर आठ साल के न्यूनतम स्तर पर पहुंच चुका है जबकि मई और जून के महीने अभी बाकी हैं। जलस्तर में कमी का प्रमुख कारण प्रवाह में कमी और अंधाधुंध जल दोहन माना जा रहा है। गंगा को भरने वाली सहायक नदियों को अवैध अतिक्रमण निगल रहा है तो पानी की कमी से पाट सिकुड़ गए हैं। यही कारण है कि नमामि गंगे की प्रगति को लेकर केंद्र सरकार की फ्रिक भी बढ़ने लगी है।
नमामि गंगे मिशन की 31 मार्च की स्टेटस रिपोर्ट के अनुसार, उत्तर प्रदेश में सीवेज संबंधित 30 प्रोजेक्ट में से केवल चार प्रोजेक्ट पूरे हो पाए हैं। इस मामले में बिहार की स्थिति यूपी से भी खराब है। बिहार में सीवेज का 20 में से कोई भी प्रोजेक्ट 31 मार्च तक पूरा नहीं हुआ था। जबकि 'नमामि गंगे' का सबसे ज्यादा जोर सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट और सीवर संबंधित कामों पर है। इसके अलावा घाटों के सुंदरीकरण, रिवरफ्रंट डेवलपमेंट, जन-सुविधाओं के विकास, वृक्षारोपण और नदी की सफाई से जुड़े प्रोजेक्ट भी चलाए जा रहे हैं।
नदी संरक्षण से जुड़ी दोआबा पर्यावरण समिति के अध्यक्ष डॉ. चंद्रवीर सिंह का कहना है कि 'नमामि गंगे' जैसे अभियान से नदियों को बचाने की जागरूकता बढ़ी है। सरकार ने हजारों करोड़ रुपये की परियोजनाएं तैयार की हैं, लेकिन दूषित जल को नदियों में गिरने से रोकने से अभी भी नहीं रोका जा रहा है। इसके लिए गंगा किनारे के शहरों में जगह-जगह सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट जरूर बनाए जा रहे हैं। लेकनि ये कितने कारगर होंगे, कहना मुश्किल है। क्योंकि पहले से मौजूद सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट अभी आधे-अधूरे काम कर रहे हैं। नदियों की सफाई और निर्मलता बनाए रखने में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट की उपयोगिता को लेकर विशेषज्ञों के बीच भी मतभेद रहे हैं। फिर भी 'नमामि गंगे' के तहत स्वीकृत कुल 20 हजार करोड़ रुपये की परियोजनाओं में से 16 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा के प्रोजेक्ट सीवरेज से सबंधित हैं। इस मोर्चे पर क्रियान्वयन की रफ्तार काफी धीमी रही है।
मिशन की प्रोग्रेस रिपोर्ट के अनुसार, 31 मार्च, 2018 तक सीवरेज से संबंधित 100 में से केवल केवल 20 पूरे हुए हैं। घाटों और शवदाह गृह से जुड़े 37 प्रोजेक्ट में से कोई भी मार्च के आखिर तक पूरा नहीं हुआ था। इस मद में केवल 12-13 फीसदी धनराशि ही खर्च हो पाई है। 'नमामि गंगे' मिशन के तहत कुल 20 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा के 193 प्रोजेक्ट मंजूर हो चुके हैं। लेकिन इनमें से 49 प्रोजेक्ट पूरे हो पाए और 4,254 करोड़ रुपये ही खर्च हुए। इस लिहाज से देखें तो मिशन का करीब 25 फीसदी काम भी पूरा नहीं हुआ है।
उमा भारती के बाद नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्रालय की कमान संभालने वाले केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने पिछले दिनों 'नमामि गंगे' मिशन के अधिकारियों की बैठक में प्रस्तावित सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट जल्द से जल्द पूरे करने को कहा है।
भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक (कैग) ने भी अपनी रिपोर्ट में 'नमामि गंगे' मिशन में गड़बड़ियों, प्लानिंग की कमी और क्रियान्वयन में सुस्ती को उजागर किया है। दिसंबर, 2017 में पेश कैग की रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष 2014-15 और 2016-17 के दौरान केवल 63 फीसदी फंड खर्च हो पाया। 31 मार्च, 2017 तक गंगा सफाई के मद में 198 करोड़ रुपये का फंड उपलब्ध था, लेकिन इसे खर्च नहीं किया जा सका। यह पूरा पैसा बैंकों में पड़ा रहा। जबकि उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल में गंगा किनारे के छह शहरों में गंगा में ऑक्सीजन का स्तर 2012-13 से भी कम पाया गया। नदियों की सफाई के काम में लगे नीर फाउंडेशन के रमन त्यागी का कहना है कि कई साल से गंगा सफाई की गूंज के बावजूद जमीन पर हालात बदलते दिखाई नहीं पड़ रहे हैं।
गंगा में प्रदूषण का सीधा संबंध इसके किनारे बसे शहर-कस्बों, फैक्ट्रियों से निकलने वाले दूषित जल से है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की साल 2015 की एक रिपोर्ट बताती है कि शहरों से निकलने वाले केवल 38 फीसदी मल-जल के शोधन की क्षमता उपलब्ध है। नतीजन गंदा पानी सीधे नदियों में पहुंचता है।
कैग ने इस पर भी सवाल उठाया कि गंगा की सफाई के लिए आइआइटी के समूहों के साथ समझौते के साढ़े छह साल बाद भी किसी दीर्घकालीन कार्ययोजना को अंतिम रूप नहीं दिया जा सका। पर्यावरणविद हिमांशु ठक्कर इस बात पर आश्चर्य जताते हैं कि दीर्घकालीन योजना और रिवर बेसिन मैनेजमेंट प्लान बनाए बगैर ही गंगा की निर्मलता-अविरलता के दावे किए जाते रहे। कैग की रिपोर्ट इन दावों की पोल खोलती है। ठक्कर मानते हैं कि गंगा की सहायक नदियों की दशा सुधारे बगैर गंगा संरक्षण की बात बेमानी है।