केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार के, 26 मई 2018 को चार वर्ष पूरे हो जाएंगे। यूपीए सरकार के 10 वर्षों के शासन के बाद 2014 में देश की जनता ने भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को अभूतपूर्व समर्थन दिया, जिसमें अकेले भाजपा को ही सरकार के लिए जरूरी बहुमत से ज्यादा लोकसभा सीटों पर विजय मिली। यूपीए सरकार के अंतिम पांच वर्षों में भ्रष्टाचार के कई मामले प्रकाश में आए, जिससे देश की जनता को घोर निराशा हुई थी। 2-जी घोटाला, कोयला घोटाला, कॉमनवेल्थ घोटाला समेत कई घोटाले हुए और वह सरकार जैसे घोटालों का पर्याय बन गई थी। आर्थिक कुप्रबंधन कहें या 2008 की वैश्विक मंदी, जिस प्रकार राहत पैकेजों के नाम पर बड़ी मात्रा में सरकारी खर्च को बढ़ाया गया और उससे राजकोषीय घाटा 2011-12 तक जीडीपी के 5.7 प्रतिशत तक पहुंच गया था। 2012-13 तक महंगाई दो अंकों में पहुंच गई थी और जीडीपी ग्रोथ 5.0 प्रतिशत पर। ऐसा लगने लगा कि देश दोबारा तथाकथित हिंदू रेट ऑफ ग्रोथ पर पहुंच गया है। लगातार बढ़ती महंगाई जनता का जीवन दूभर बना रही थी। ऐसे में नरेंद्र मोदी अपनी ईमानदार छवि के कारण देश की जनता की स्वाभाविक चाहत बन गए थे।
इन चार साल के दौरान नरेंद्र मोदी सरकार ने कई छोटे-बड़े फैसले लिए। विमुद्रीकरण और जीएसटी के फैसलों को मिश्रित प्रतिक्रिया मिली। विपक्ष ने इनकी जमकर आलोचना की। कुछ हद तक यह सही है कि ये फैसले एक बड़ी खलबली लेकर आए, जिसके कारण लोगों को असुविधा भी हुई। विमुद्रीकरण को तो पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने एक भारी गलती बताया और कहा कि इससे देश की जीडीपी ग्रोथ दो प्रतिशत से ज्यादा घट जाएगी। जीएसटी के कारण व्यापारियों और लघु उद्योगों के कोप का भाजन भी सरकार बनी। इन फैसलों के कारण आने वाली असहजताएं धीरे-धीरे कम होती गईं और ऐसा लगता है कि अर्थव्यवस्था पटरी पर आ रही है।
लेकिन मोदी सरकार द्वारा कई ऐसे कदम भी उठाए गए, जिनकी विपक्ष भी आलोचना नहीं कर पाया। अत्यंत थोड़े समय में ही जीरो बैलेंस वाले 31 करोड़ जनधन खाते खोल दिए गए, जिससे बड़ी संख्या में गरीब, जो बैंकिंग सुविधा से अछूता था अचानक बैंक खाते से लैस हो गया। जनधन खाते खोलने का उद्देश्य गरीबों को बैंकिंग सुविधा उपलब्ध कराना तो था ही, इसके साथ एक बड़ा मकसद यह था कि वंचित वर्ग को जो सरकारी सब्सिडी मिलती है, उसमें कोई छीजन (लीकेज) न हो और सरकारी पैसा लाभार्थी को सीधे मिल जाए। इसके लिए सरकार ने पूरी जनता को ‘आधार’ के विशिष्ट पहचान वाले नंबर से जोड़ दिया। उसके बाद सरकारी सहायता के लिए आधार कार्ड होना एक अनिवार्यता भी बना दी गई। शुरुआती तौर पर इससे कुछ मुश्किलें भी हुईं, जिसका विपक्ष ने खूब प्रचार किया, लेकिन सरकार भी यह समझाने में कामयाब हुई कि बड़ी मात्रा में नकली बीपीएल कार्डों को इसके कारण निरस्त किया जा सका और अन्य सब्सिडी में भी छीजन रुकी। सरकार का यह भी दावा है कि इसके कारण सरकारी खर्च में 83 हजार करोड़ रुपये की बचत की जा सकी। संपन्न वर्ग से गैस सब्सिडी स्वेच्छा से छुड़वाकर देश की करोड़ों गरीब महिलाओं तक ‘उज्ज्वला’ स्कीम के तहत मुफ्त में गैस कनेक्शन पहुंचाना एक अन्य लोकप्रिय योजना रही। गरीबों के लिए ‘अफोर्डेबल घर’ और उसके लिए सरकारी सहायता, ‘मुद्रा’ योजना के तहत ऐसे वर्गों तक ऋण की सुविधा दिलाना, जो अभी तक उससे अछूते रहे थे, ये कुछ बड़े कदम कहे जा सकते हैं, जिनसे सरकार की छवि आम जनता के बीच में बेहतर बनी।
विमुद्रीकरण के बाद नकद अर्थव्यवस्था संकुचित हुई और बैंकों में जमा राशि भी बढ़ गई। ऐसे में लोगों द्वारा कर देने की तत्परता बढ़ी। एक ही साल में 90 लाख से ज्यादा अतिरिक्त लोगों द्वारा आय कर विवरणी भरी गई। इससे पहले गैर-वेतनधारी लोगों में मात्र 74 लाख ही आय कर देते थे। स्वाभाविक है कि अतिरिक्त 90 लाख लोगों ने इनकम टैक्स भरा, अब गैर-वेतनधारी आयकर दाताओं की संख्या दोगुनी से भी ज्यादा हो गई। आयकर प्राप्तियों में भी यह परिलक्षित होता है।
लेकिन जहां तक जीएसटी का सवाल है, सरकार को अभी तक टैक्स से अपेक्षित प्राप्तियां नहीं हो पा रही हैं। इसका बड़ा कारण यह रहा कि जीएसटी लागू करने की कवायद में तैयारी की कमी रही, जीएसटी की दरों के निर्धारण में आवश्यक सलाह-मशवरा नहीं हुआ। लघु उद्योगों और छोटे व्यापारियों के लिए फॉर्म और अन्य अनिवार्यताएं कष्टदायक दिखने लगीं। व्यापारियों और छोटे उद्यमियों की मुश्किलों और नाराजगियों के मद्देनजर सरकार को जीएसटी की संरचना में भारी फेर बदल करना पड़ा। जीएसटी की दरों को कम किया गया। 28 प्रतिशत जीएसटी की स्लैब में अधिकांश वस्तुओं को हटा दिया गया और अन्य स्लैबों में शामिल वस्तुओं पर टैक्स कम कर दिया गया। छोटे व्यापारियों एवं उद्यमियों के लिए प्रक्रिया आसान की गई। ‘कॉम्पोजिट’ स्कीम के तहत अधिकतम सीलिंग 75 लाख से बढ़ाकर एक करोड़ कर दी गई और उसे और अधिक बढ़ाने का वचन भी दिया गया।
आने वाले वर्षों में सरकार यह मान रही है कि करों की चोरी रुकने से जीएसटी से प्राप्तियां बढ़ेंगी। लेकिन जीएसटी लागू करते समय राज्यों को प्रतिवर्ष 14 प्रतिशत की वृद्धि के साथ जीएसटी का हिस्सा बढ़ाकर देने का वचन केंद्र सरकार के लिए एक बड़ी मुश्किल का सबब भी बन सकता है। केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के अधिकांश अप्रत्यक्ष करों के स्थान पर अब जीएसटी लगता है। जीएसटी की कुल प्राप्तियों में से आधा तुरंत राज्य सरकारों को स्थानांतरित हो जाता है और शेष आधे में से 42 प्रतिशत केंद्रीय राजस्व में राज्यों के हिस्से के रूप में राज्यों को चला जाता है। यानी कुल मिलाकर जीएसटी का 71 प्रतिशत हिस्सा राज्य सरकारों के पास जाएगा। यही नहीं, राज्य सरकारों को जो पूर्व में अप्रत्यक्ष करों से राजस्व मिलता था, उसमें कमी होने पर हर वर्ष 14 प्रतिशत वृद्धि के साथ केंद्र सरकार भरपाई करेगी, राज्यों को यह भी वचन दिया गया है। इसलिए जीएसटी लागू करने के पीछे केंद्र सरकार द्वारा अपना राजस्व बढ़ाने की मंशा दिखाई नहीं देती। जीएसटी लागू करने के पीछे नरेंद्र मोदी सरकार की मंशा अप्रत्यक्ष करों की चोरी पर अंकुश लगाने की ज्यादा थी। यह सही है कि सभी लोग जीएसटी देना शुरू कर देंगे तो सरकार का राजस्व भी बढ़ेगा और इसके कारण देश में टैक्स जीडीपी अनुपात भी बढ़ पाएगा, ताकि सरकार जनकल्याण के लिए ज्यादा खर्च कर सके।
लेकिन शायद नरेंद्र मोदी सरकार के आलोचक विमुद्रीकरण और जीएसटी के कारण होने वाली कठिनाइयों से ज्यादा प्रभावित दिखाई देते हैं। वे ऐसा भी बताने की कोशिश करते हैं कि इससे अर्थव्यवस्था को नुकसान हुआ है। लेकिन अर्थव्यवस्था के आंकड़े कुछ अलग कहानी कहते हैं। 2018-19 के लिए अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों के अनुमान 7.4 से 7.8 प्रतिशत ग्रोथ की संभावनाएं बता रहे हैं।
उधर रोजगार के संबंध में भी परिस्थिति बेहतरी की ओर है। कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (ईपीएफओ) के आंकड़े बताते हैं कि 15 से 24 वर्ष के आयुवर्ग में 30 लाख नौकरियां 2017 में पैदा हुईं। उधर, एक अन्य संगठन ‘सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी’ (सीएमआइई) के आंकड़े बताते हैं कि इसी वर्ष 25 से 64 वर्ष के आयु वर्ग में 120 लाख नौकरियां मिलीं। यानी 2017 में 150 लाख अतिरक्त लोगों को रोजगार मिला। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि ये आंकड़े भी भ्रामक हैं, क्योंकि सरकार द्वारा कर्मचारियों की भविष्य निधि के संबंध में सब्सिडी देने के कारण ज्यादा लोगों को फर्मों द्वारा भविष्य निधि में पंजीकृत करवाया गया है। दूसरी ओर ‘सीएमआइई’ के आकड़े भी इसलिए ज्यादा नौकरियां दिखा रहे हैं क्योंकि लोग असंगठित क्षेत्र से संगठित क्षेत्र की तरफ चले गए हैं। इन बातों में कुछ तथ्य मान भी लिया जाए तो भी शायद इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि 2017 में रोजगार में खासी वृद्धि हुई।
विमुद्रीकरण और जीएसटी के कारण विघटन की मार झेल रही अर्थव्यवस्था में एक ही साल में 1.5 करोड़ अतिरिक्त लोगों को रोजगार के आंकड़े मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों की आलोचना को कुंद करते हैं। मोदी सरकार के चार वर्षों में आर्थिक नीति संबंधी फैसलों में कई ऐसे मौके आए, जिसमें स्वदेशी जागरण मंच और सरकार आमने-सामने दिखाई दिए। खास तौर पर कैबिनेट द्वारा भूमि अधिग्रहण कानून में कुछ खास उद्देश्यों के लिए भूमि अधिग्रहण कानून में किसानों की सहमति, सामाजिक प्रभाव के आकलन और खाद्य सुरक्षा जैसे मसलों पर ढील देने वाले संशोधनों के साथ अध्यादेश जारी करने के बाद स्वदेशी जागरण मंच द्वारा इसका पुरजोर विरोध हुआ और सरकार ने तीसरी बार जारी अध्यादेश की अवधि समाप्त होने के बाद उसे लागू नहीं किया। इसी प्रकार जीएम फसलों के संबंध में सरकारी नियामक संस्था ‘जीईएसी’ द्वारा पहले जीएम फसलों के जमीनी परीक्षण और उसके बाद जीएम सरसों के व्यावसायिक उत्पादन की अनुमति देने के बाद स्वदेशी जागरण मंच ने उसका खासा विरोध किया। हर्ष का विषय है कि अंततोगत्वा सरकार उस दिशा में आगे नहीं बढ़ी और जुलाई 2014 से लगी जीएम फसलों पर रोक जारी रही।
ऐसे भी कई मौके आए जब सरकार द्वारा बनाई गई कुछ नई और कुछ पुरानी संस्थाओं द्वारा लिए गए निर्णय देशहित में न होने के कारण स्वदेशी जागरण मंच को उसका विरोध करना पड़ा। खास तौर पर नीति आयोग की विभिन्न रिपोर्टों और कार्यपद्धति पर प्रश्नचिह्न लगे। इसके अलावा कुछ नौकरशाहों द्वारा नरेंद्र मोदी सरकार के लोकप्रिय फैसलों के विपरीत काम करने के कारण कई बार स्वदेशी जागरण मंच ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर उनके हस्तक्षेप की मांग की। नीति आयोग और विभिन्न मंत्रालयों के नौकरशाहों से मिलकर एनपीपीए को भंग करने की सिफारिश और राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम में गैर-जरूरी टीकों को जोड़ने के मसले पर भी स्वदेशी जागरण मंच ने हस्तक्षेप किया। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा कंपनियों के निर्मित फूड पैकेट (आरयूटीएफ) की नीति लागू करने के खिलाफ स्वदेशी जागरण मंच ने हस्तक्षेप किया। उसमें इसे सफलता भी मिली।
वर्तमान सरकार के कार्यकाल के दौरान ऐसे सभी मसले जिसमें स्वदेशी जागरण मंच की सरकार के साथ मतभिन्नता थी, उन सभी मसलों पर सरकार और उनके प्रतिनिधियों के साथ बातचीत का सिलसिला चला। सरकार द्वारा आपत्तियों को सुनकर समझा भी गया। एफडीआइ जैसे कई मसले थे। स्वदेशी जागरण मंच का स्पष्ट मानना है कि सरकार को दीर्घकाल में अपने आयात को कम करके और निर्यात को बढ़ाकर विदेशी व्यापार घाटे को कम करना चाहिए, ताकि एफडीआइ के माध्यम से विदेशी मुद्रा पर निर्भरता कम हो। इस मामले में सरकार द्वारा आयात, विशेष तौर पर चीनी आयात को कम करने के लिए अच्छे प्रयास किए गए। 140 से ज्यादा वस्तुओं पर एंटी डंपिंग ड्यूटी लगाई गई, जिसमें 100 से अधिक चीनी वस्तुएं थी। आयात के लिए वस्तुओं के मानक लागू किए गए और चीनी कंपनियों के भारत में प्रवेश पर अंकुश भी लगे।
वर्तमान बजट में 1991 के बाद पहली बार संरक्षणकारी आयात शुल्क लगाए गए, जिसका उद्देश्य यह था कि देश में मोबाइल फोन, इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों समेत कई वस्तुओं का आयात कम हो। हालांकि, इसके लिए सरकार को अरविंद पानगढ़िया, रघुराम राजन समेत भूमंडलीकरण के कई समर्थकों के कोप का भाजन भी बनना पड़ा। सरकार पर आरोप लगाए जा रहे हैं कि वह संरक्षणवादी हो रही है और स्वदेशी के प्रभाव में आ रही है। किसानों की आमदनी बढ़ाने के भी प्रयास जारी हैं। वास्तव में आज दुनिया भर में स्वदेशी का बोलबाला बढ़ा है। ऐसे में स्वदेशी जागरण मंच के दर्शन और सोच को आगे बढ़ाने का अवसर बना है। जीडीपी ग्रोथ का वर्तमान मॉडल भविष्य की पीढ़ियों के लिए और अधिक मुश्किलें खड़ी कर रहा है। जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक संसाधनों का शोषण इस हद तक हो रहा है कि मानवता का भविष्य ही समाप्त हो सकता है। विकास के वर्तमान मॉडल को बदलते हुए संस्थाओं और संरचनाओं को इस प्रकार मोड़ना होगा कि न केवल बेरोजगारी और असमानताओं से निपटने हेतु नीतियां बनें बल्कि भविष्य की पीढ़ियों के लिए इस धरा को बचाने का सफल प्रयास हो।
(लेखक स्वदेशी जागरण मंच के राष्ट्रीय सह-संयोजक और दिल्ली के पीजीडीएवी कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं)