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मैजिक म्याऊं

ऑबजेक्शन मी लॉर्ड और गुलाम मंडी उपन्यास, मप्र साहित्य परिषद का साहित्य अकादमी बालकृष्ण नवीन पुरस्कार। नईदुनिया में फीचर संपादक। फोन 9425057841
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मैंने पर्दे की ओट लेकर धीरे से खिड़की में से झांका। वह लॉन में थी और तरह-तरह की अंगड़ाइयां ले रही थी, जैसे योग कर रही हो। अब वह उछली और उसने गुलाटी लगाई। ये क्या, वह सिर से पूंछ जोड़कर गोले-सी बन गई। ऐसा ही लचीला है उसका जिस्म किसी जिम्नास्ट की तरह, इतना ही नहीं, वह अपना कान भी हिला लेती है इसलिए तो दुकानदार ने कहा था, ‘इसका नाम मैंने मैजिक रखा है।’ उसने कहा था, ‘आप डॉगी-वॉगी छोड़ो, इस मैजिक म्याऊं को ले जाओ बस। आपको मजा आ जाएगा।’ दुकानदार ने सही कहा था, सचमुच बड़ी प्यारी है मैजिक पर...। पर क्या? चलो अभी पता चल जाएगा। लॉन की ओस उड़ गई है। वहां धूप उतर आई है। मैजिक ने झप्प से लॉन को घेर रही घर की चहारदीवारी पर छलांग लगाई और अब इतरा कर संकरी मुंडेर पर ऐसे चल रही है, जैसे फैशन शो के रैंप पर कैट वॉक कर रही हो। कुछ भी हो, इस बिल्ली में एटीट्यूड तो है। यह किसी विश्व-सुंदरी की तरह नखरीली और नाजुक मिजाज है। यह एक जिंजर कैट है। इसके बदन पर पीली-सुनहरी धारियां हैं जो इसके शेर की जाति की होने की याद दिलाती है। ये लो यह तो फिर लॉन में कूद गई और ऐसी छलांगें मार रही है, जैसे किसी अदृश्य बॉल से खेल रही हो। तभी एक तितली मंडराती हुई आई है और मैजिक के लगभग ऊपर उड़ान भरने लगी। तितली को देखते ही मैजिक ने छलांग मारनी बंद कर दी और डरकर अपने बदन को सिकोड़ लिया। वह ऐसे सुट्ट होकर बैठ गई जैसे तितली नहीं, सांप देख लिया हो। वह ऐसे बैठी है, जैसे इनसान बैठता है पालथी मारकर। उसने आगे के दोनों पंजे जोड़ लिए, ऊपर के दोनों पंजे भी नमस्कार की मुद्रा में हैं। उसने अपने एक कान को आंख की दिशा में मोड़ दिया है, जैसे अपने कान से अपनी आंखें ढंक लेगी। कुछ भी कहो, लेकिन वह इतनी प्यारी लग रही है इस वक्त कि मैं उसका एक फोटो लेना चाहती हूं। सचमुच प्यारी है मैजिक पर...पर यही कि वह डरपोक बिल्ली है। मैजिक तो तितलियों से भी डरती है।

घर में कोई मेहमान आए तो मैजिक ड्रॉइंग रूम के पर्दे के पीछे छुप जाती है और वहीं से झांकती है। बाहर आकर दर्शन नहीं देती। मैं उसके लिए कितना अच्छा हेयर बैंड और ब्रॉच लेकर आई थी पर सब व्यर्थ। वह मेरी सहेलियों के सामने आती ही नहीं, जिनको दिखाने के लिए मैं इतनी महंगी कैट-जूलरी लाई थी। नामुराद कहीं की। खैर, मेरी सहेलियों से वह डरती है तो चल जाता है, मगर सकू बाई! वह तो सकू बाई से भी डरती है। अब सकू बाई तो रोज आती है। सकू बाई एक दिन भी न आए तो काम न चले, पर डरपोक मैजिक का क्या करें। वह तो जैसी है, वैसी है। पर भई, मुझे तो वह ऐसे ही प्यारी लगती है। सकू बाई ने भी पहले दिन से ही इसे दुश्मन मान लिया है। ये कैट-फेट क्या मैडम, डॉगी लाओ डॉगी। डॉगी वफादार होता है, बिल्ली तो चोर होती है। कितना भी दूध-मलाई पिलाओ, मच्छी खिलाओ, वह किचन में मुंह मारेगी ही।

घर में घुसते ही सकू बाई सबसे पहले मैजिक को हड़काती है, ‘चल री हट, जब देखो पूंछ उठाए चली आती है।’ लाल चट्ट साड़ी पहने, आंखों के आसपास काजल की लाइन बनाए, सर पर गोल बिंदी और हाथ में झाडू का डंडा लिए सकू बाई जब मैजिक को डांटती है तो भयभीत मैजिक चूं-चूं करती पंजे आगे और बदन पीछे खींचती है, फिर उछलती है और बदन सिकोड़कर खिड़की की संकरी सलाखों के बीच से भाग निकलती है। अब तो मैजिक को सकू बाई के आने का टाइम भी पता चल गया है और कुछ नहीं तो मेन गेट खुलने और सकू बाई के कदमों की आहट से ही वह समझ जाती है कि सकू बाई आ रही है और वह पलंग के नीचे, दरवाजे के पीछे कहीं न कहीं छुप जाती है। मगर सकू बाई को मैजिक को देखने से जितनी नफरत है, उतना ही मैजिक को देखे बगैर बेचैन रहती है। घर में आते ही सकू बाई झाडू ढूंढने के बजाय पहले मैजिक को ढूंढती है, डांटने और लताड़ने के लिए। ‘चल कुत्ती पलंग के नीचे से बाहर निकल।’ सकू बाई मैजिक को झिड़कती है। मैं सकू बाई को सुधारती हूं, ‘वह कुत्ती नहीं, बिल्ली है।’ कभी सकू बाई उसे कहती है, ‘कैसी गधी है, लॉन में पॉटी कर देती है।’ मैं सकू बाई को कुछ नहीं कह पाती। शायद मैं भी सकू बाई से डरती हूं। क्यों? यह आप समझते ही हैं।

मैजिक सकू बाई को देखकर डरती है तो उसकी आंखों की दोनों पुतलियां उसकी नाक के पास आ जाती हैं और रोंगटे खड़े हुए से प्रतीत होते हैं। यह देखकर सकू बाई जोर-जोर से हंसती है। लगता है, उसे भी मैजिक को डराने में मजा आता है। हंसना तो छोड़ो, एक बार सकू बाई अपने घरवाले की शिकायत करते हुए धाड़-धाड़ रो रही थी। उसे देख कर मैजिक ऐसे डर गई कि थर-थर कांपने लगी थी।

इन दिनों मैजिक का पेट थोड़ा मोटा दिखने लगा है। हमारी प्यारी मैजिक उम्मीद से है। मगर सकू बाई को इससे भी खुन्नस है। कहती है, ‘देखो, इस निगोड़ी मैजिक को, कैसे पेट फुलाकर चलती है। जाने किसका पाप लाई है।’ मुझे सकू बाई के फिल्मी डायलॉग पर हंसी आ जाती है और मैजिक सकू बाई की नजरों के तीर से डरकर, दुबककर भाग जाती है।

जल्द ही वह दिन भी आ गया है, जब मैजिक ने बच्चे दे दिए हैं। प्यारे-प्यारे बच्चों में से एक-एक को मुंह में पकड़कर वह जाने कहां-कहां घुमाकर लाती है। बाकी उसने दीवार के किनारे एक जगह फिक्स कर ली है, वहीं बैठकर अपने बच्चों को दूध पिलाती है या फिर उनकी रक्षा में तैनात बैठी रहती है। सकू बाई इस बीच दो दिन की छुट्टी पर थी। वह लौटी और अपनी आदत के अनुसार डंडे वाली झाडू लेकर उसने जैसे ही मैजिक को ललकारा, एक अकल्पनीय बात हुई। भागने के बजाय मैजिक सकू बाई पर झपट पड़ी। पहले उसने अपनी चमकती आंखों से घूरा, फिर गुर्राई और पंजे से सकू बाई का खुला पेट खरोंच दिया। सकू बाई भागी। अब डरने की बारी सकू बाई की थी। मैजिक अब एक मां थी। अपने बच्चों की रक्षा की खातिर डरपोक बिल्ली भी शेरनी बन गई थी।

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