दुनिया के सबसे धनी क्रिकेट संगठन को सूचना के अधिकार (आरटीआइ) अधिनियम के तहत लाने का मुद्दा एक बार फिर गरमाया हुआ है। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट में सिफारिश की है कि भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआइ) को आरटीआइ के तहत जवाबदेह होना चाहिए, क्योंकि ‘राज्य’ की तरह इसकी सार्वजनिक जिम्मेदारियां हैं। आयोग के मुताबिक बीसीसीआइ को संविधान के अनुच्छेद 12 के अंतर्गत 'राज्य' की परिभाषा के तहत लाया जाना चाहिए। आयोग ने कानून मंत्रालय को भेजी 122 पेज की रिपोर्ट में सिफारिश की है कि अगर बीसीसीआइ से जुड़े सभी राज्य संघ इसके मानदंडों को पूरा करते हैं, तो उन्हें भी इसके दायरे में लाया जाना चाहिए। अभी तक बीसीसीआइ और उसके तमाम मुखिया आरटीआइ के तहत लाए जाने के तमाम प्रयासों के खिलाफ मोर्चा संभाले रहे हैं। आयोग की सिफारिशों पर बीसीसीआइ ने अभी तक कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं दी है लेकिन रिपोर्ट तैयार करने से पहले विधि आयोग की तरफ से आरटीआइ मुद्दे पर चर्चा के लिए बुलावे को नजरअंदाज करने से बीसीसीआइ के विरोध का आसानी से पता लगाया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज और विधि आयोग के अध्यक्ष बीएस चौहान ने अपनी रिपोर्ट में कहा, “आयोग ने इस मसले पर केंद्रीय सूचना आयोग (सीआइसी) सहित विभिन्न विशेषज्ञों और पक्षकारों से विचार-विमर्श किया। हालांकि, नोटिस और रिमाइंडर के बावजूद बीसीसीआइ ने कोई जवाब नहीं दिया, न ही बैठक में भाग लिया।” ऐसे में सवाल उठता है कि क्या बीसीसीआइ ताकतवरों की शह पर आयोग की उपेक्षा कर सकता है?
बीसीसीआइ के एक अधिकारी का कहना है, “कमिटी ऑफ एडमिनिस्ट्रेटर्स (सीओए) और बीसीसीआइ का पेशेवर प्रबंधन आरटीआइ के पक्ष में है, लेकिन पदाधिकारी और राज्य संघ इसके खिलाफ हैं। पूरी दुनिया को यह जानना चाहिए कि बीसीसीआइ के अंदर क्या चल रहा है और इसे सौ फीसदी पारदर्शी बनाया जाए।” बीसीसीआइ को इस दायरे में लाने के लिए पूर्व खेल मंत्री अजय माकन ने कई असफल प्रयास किए। माकन आउटलुक को बताते हैं, “इसमें लोगों का बहुत बड़ा निजी स्वार्थ छिपा है, जो इसे पारदर्शी नहीं बनने देना चाहते हैं, क्योंकि उनके पास छिपाने के लिए काफी कुछ है। खास तौर पर वित्तीय लेनदेन के मामले में।”
फिलहाल सभी को विधि आयोग की रिपोर्ट पर सरकार की प्रतिक्रिया का इंतजार है। यह पहली बार है कि आयोग को ऐसी सिफारिश देने के लिए कहा गया है। लेकिन आम धारणा है कि बीसीसीआइ को आरटीआइ के दायरे में नहीं लाया जाएगा, क्योंकि जो नेता इसके हिस्सा हैं, वे बहुत ताकतवर हैं। माकन ने जनवरी 2011 से अक्टूबर 2012 के बीच केंद्रीय खेल मंत्री के रूप में बीसीसीआइ को जवाबदेह बनाने का प्रयास किया। ऐसा माना जाता है कि इसी एक मुद्दे पर जोर देने की वजह से उन्हें अपना पोर्टफोलियो गंवाना पड़ा।
देश के तमाम दलों के नेताओं का बीसीसीआइ पर नियंत्रण है। ज्योतिरादित्य सिंधिया और राजीव शुक्ला जैसे माकन की कांग्रेस पार्टी के कई दिग्गज सहयोगी उस वक्त बीसीसीआइ में थे। बीसीसीआइ ने लगातार यह तर्क दिया कि यह ‘निजी निकाय’ के रूप में सरकार से वित्तीय मदद नहीं लेती है। उन्होंने यह नहीं बताया कि बीसीसीआइ और इससे संबद्ध संघ केंद्र और राज्य से कई अप्रत्यक्ष मदद लेते हैं। उदाहरण के लिए, राज्य संघों द्वारा बनाए गए अधिकांश स्टेडियम की जमीनें बहुत कम कीमत पर लीज पर दी गई हैं। इसके अलावा सरकार आयकर और सीमा शुल्क में छूट देती है। सभी मैचों के दौरान मुफ्त में पुलिस की सुरक्षा दी जाती है। सरकार की मंजूरी से बीसीसीआइ द्वारा चुनी गई राष्ट्रीय टीमों को विदेश यात्रा में सहूलियत मिलती है।
बीसीसीआइ को आरटीआइ के दायरे में लाने का नया कदम केवल इसलिए उठाया गया, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने बीसीसीआइ में सुधार के लिए न्यायमूर्ति लोढ़ा समिति की सिफारिशों पर विधि आयोग से अपनी राय देने के लिए कहा। आखिरी फैसला केंद्र सरकार को ही लेना है और सरकार में बीसीसीआइ और उसके संघों में स्वार्थवाले कई नेता हैं। बीसीसीआइ में पार्टी से अलग विभिन्न नेता कंधे से कंधा मिलाकर काम करते हैं, जो संसद के भीतर कम ही देखा जाता है।
यही कारण है कि वरिष्ठ वकील राहुल मेहरा और उनके स्कूली साथी शांतनु शर्मा द्वारा वर्ष 2000 में दिल्ली हाइकोर्ट में दाखिल पीआइएल पर भी संशय है। याचिका में कहा गया था कि कोर्ट बीसीसीआइ को संविधान के अनुच्छेद-226 (हाइकोर्ट को कुछ मामलों में रिट जारी करने के अधिकार) के तहत न्यायिक जांच के दायरे में लाने का फैसला दे। मेहरा कहते हैं, “सरकार इसे तभी स्वीकार करेगी, जब उसे इसमें खुद के लिए फायदा दिखेगा।”
आरटीआइ एक्टिविस्ट सुभाष चंद्र अग्रवाल कहते हैं, “मैं निकट भविष्य में इसके लागू होने की उम्मीद नहीं कर रहा हूं। प्रबल संभावना है कि सरकार कहेगी कि उसे रिपोर्ट का अध्ययन करने या सलाह-मशविरा के लिए समय की जरूरत है। मैं यह कहता हूं कि लोढ़ा समिति ने इस मुद्दे का अध्ययन किया, सुप्रीम कोर्ट ने भी अध्ययन किया और विधि आयोग ने अध्ययन किया। सरकार अब कितना अध्ययन करेगी?” 2011 में अग्रवाल के आवेदन पर खेल मंत्रालय ने सीआइसी को बताया था कि बीसीसीआइ सरकार से अप्रत्यक्ष वित्तीय मदद और सरकारी सहयोग लेती है, इसलिए इसे ‘सार्वजनिक प्राधिकरण’ घोषित करने के लिए “उचित और तर्कसंगत आधार” थे। आरटीआइ के दायरे में आने से बचने के लिए बीसीसीआइ ने जुलाई 2013 में मद्रास हाइकोर्ट का दरवाजा खटखटाया और अग्रवाल के आवेदन के खिलाफ अंतरिम स्टे ले लिया, जो आज भी जारी है।
स्टे आने से पहले माकन के मंत्रालय ने बीसीसीआइ के खिलाफ प्रतीक चिह्न और नाम (अनुचित उपयोग की रोकथाम) अधिनियम-1950 लागू करने पर गंभीरता से काम किया था। उसका तर्क था कि ‘भारत’ शब्द प्रतीक अधिनियम का हिस्सा है, इसलिए बीसीसीआइ को ‘सरकार के संरक्षण’ के तहत माना जाएगा। लेकिन माकन को अचानक खेल मंत्री के पद से हटा दिया गया और इसके बाद प्रतीक का मुद्दा नहीं उठाया गया। विधि आयोग ने बीसीसीआइ को आरटीआइ के तहत लाने के लिए अपनी रिपोर्ट में कहा है कि राष्ट्रीय टीम के खिलाड़ियों की ड्रेस में राष्ट्रीय रंग और हेलमेट पर अशोक चक्र दिखते हैं। बीसीसीआइ क्रिकेटरों को अर्जुन पुरस्कारों के लिए नामांकित करती है। यहां तक कि यह भले ही एक नेशनल स्पोर्ट्स फेडरेशन (एनएसएफ) नहीं है, लेकिन संसद और राज्य की विधानसभाओं ने बीसीसीआइ को एनएसएफ के रूप में मान्यता दी है।
विदर्भ क्रिकेट एसोसिएशन (वीसीए) आरटीआइ को छोड़कर लोढ़ा समिति के सुधारों को मानने वाली बीसीसीआइ से संबद्ध एकमात्र संगठन है। इसने आरटीआइ को नहीं माना, क्योंकि राज्यों के लिए यह जरूरी नहीं है। वीसीए पारदर्शिता के लिए अपने लगभग 1200 सदस्यों की खातिर वार्षिक रिपोर्ट में कार्यकारी समिति की बैठकों के मिनिट्स प्रकाशित करता है। इसके बावजूद वीसीए अध्यक्ष आनंद जायसवाल बीसीसीआइ का पक्ष लेते हैं। वह कहते हैं, “इसमें कोई संदेह नहीं कि बीसीसीआइ को जवाबदेह होना चाहिए। लेकिन मुझे नहीं लगता कि उसे आरटीआइ के तहत लाया जाना चाहिए। ऐसा करके हम बीसीसीआइ की लगाम सभी के हाथ में दे देंगे।" हालांकि, राहुल मेहरा की एक अलग आशंका है। वह तर्क देते हैं, “विधि आयोग की रिपोर्ट में कहा गया है कि संविधान के अनुच्छेद-12 के तहत बीसीसीआइ को ‘राज्य की एजेंसी या उसकी इकाई’ के रूप में देखा जाना चाहिए। इसका सीधा मतलब होगा कि क्रिकेट का प्रबंधन केंद्र सरकार के जिम्मे आ जाएगा। ऐसा नहीं हो सकता है। हालांकि, बीसीसीआइ को हर भारतीय के लिए जवाबदेह होना चाहिए। इसलिए उसे हाइकोर्ट में अनुच्छेद-226 के तहत चुनौती दी जा सकती है न कि अनुच्छेद-32 के तहत सुप्रीम कोर्ट में।” जब मामला अगली बार सुनवाई के लिए आएगा तो ये सारी बातें गौण हो जाएंगी। लेकिन यह देखना दिलचस्प होगा कि इस बार बीसीसीआइ आरटीआइ की गुगली से कैसे बाहर निकलता है।