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बहुमत जुटाने की चुनौती

नाटकीय घटनाक्रम में येदियुरप्पा को सरकार बनाने का मौका तो मिला लेकिन अभी खेल बाकी
ताजपोशीः आखिर येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री की कुर्सी

आखिर भाजपा ने हाथ आई गद्दी को न जाने देने का ही फैसला किया। भले उसके ल‌िए उसे कैसी भी तरकीबें अपनानी पड़ सकती हैं। तमाम ऊहापोह के बीच राज्यपाल वजुभाई वाला ने भाजपा व‌िधायक दल के नेता बीएस येद‌ियुरप्पा को 17 मई को शपथ द‌िलाने का फैसला किया। हालांकि, 104 सीटों वाली भाजपा बाकी आठ व‌िधायकों का इंतजाम कैसे करेगी यह अभी तय नहीं है। दूसरी ओर कांग्रेस और जेडीएस ने भी कमर कस रखी है। यानी सस्‍पेंस अभी बाकी है। हालांकि राज्यपाल ने भाजपा को विधानसभा में विश्वास मत हासिल करने के लिए 15 दिनों का लंबा समय देकर राजनैतिक जोड़तोड़ की खातिर पूरा मौका दे दिया है। यही नहीं, राज्यपाल की आधिकारिक चिट्ठी के पहले ही भाजपा नेताओं ने ट्वीट कर दिया और विजय का निशान दिखाने लगे। 

यकीनन सारा वाकया किसी फिल्मी पटकथा के सस्‍पेंस से होड़ ले सकता है। ऊपर से यह राज्य के दो पुराने चुनावों का घालमेल प्रतीत होती है। 2008 की तरह इस बार भी भाजपा बहुमत के आंकड़े को छूते-छूते रह गई और 2004 की तरह जनता दल (सेकुलर) ने सत्ता की सुगंध भांप ली। सिद्धरमैया के लिए यह कोई सामान्य चुनाव नहीं था। जिस कांग्रेस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पीपीपी (पंजाब-पुदुच्चेरी परिवार) का तंज कसते हैं, सिद्धरमैया के कंधों पर दक्षिण में उसके आखिरी गढ़ को बचाने का दारोमदार था। एक तरफ भाजपा के बड़े भारी चुनाव ‌जिताऊ तंत्र से मुकाबला करना था तो दूसरी तरफ इतिहास आड़े आ रहा था। पिछले तीन दशक से कर्नाटक की जनता ने सत्तारूढ़ दल या सत्तासीन मुख्यमंत्री के प्रति नरमी नहीं दिखाई।

बहुत संभव है कि भाजपा येन-केन-प्रकारेण  बहुमत साब‌ित कर ले। यह राज्यपाल पर भी निर्भर है। लेकिन कांग्रेस-जेडीएस भी आसानी से मोर्चा छोड़ने वाले नहीं हैं। कर्नाटक का जनादेश दर्शाता है कि 2013 में जो भाजपा बिखरी हुई दिख रही थी, उसने राज्य में अपनी ताकत जुटा ली है। और अब वह उतनी ही दमदार दिख रही है जितनी एक दशक पहले हुआ करती थी। कुल मतों में भाजपा की हिस्सेदारी भले ही कांग्रेस (38 फीसदी) से कम रही लेकिन भाजपा ने ज्यादा सीटें बटोरी हैं।

भाजपा के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, “हमने किसी इलाके में जनाधार नहीं खोया और न ही हमारा कोई वोट बैंक खिसका है। भले ही, कुछ सीटें हम जीत नहीं सके।” इस तरह का नुकसान खासकर बेंगलूरू में हुआ है जहां कांग्रेस ने मजबूत पकड़ बनाए रखी। मगर मध्य और तटीय कर्नाटक के सात जिलों में भाजपा की आंधी चली और उसने 45 में से 37 सीटें जीत लीं। लगता है, इस क्षेत्र में हिंदुत्व और लिंगायत भावनाएं भाजपा के पक्ष में काम कर गईं। आखिरी के 10 दिनों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का धुआंधार चुनाव प्रचार काम कर गया। बेंगलूरू में पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा के घर के बाहर मौजूद एक जेडीएस समर्थक कहता है, “मोदी का चुनाव प्रचार नहीं होता, तो भाजपा को इतनी सीटें न मिलतीं।” चुनाव नतीजों के दिन शाम होते-होते देवेगौड़ा के घर के बाहर समर्थकों की भीड़ बढ़ने लगी थी, जबकि शहर के दूसरे हिस्से में भाजपा कार्यालय पर सुबह से छूट रहे पटाखों का शोर थमने लगा।

राजनीतिक विश्लेषक संदीप शास्‍त्री मानते हैं कि राज्य की सिद्धरमैया सरकार और केंद्र की मोदी सरकार को लेकर मतदाताओं के बीच स्पष्ट ध्रुवीकरण था। जैसे-जैसे मोदी का चुनाव प्रचार आगे बढ़ा, कांग्रेस विरोधी मतदाता भाजपा की तरफ ‌खिंचते चले गए। शास्‍त्री ने आउटलुक को बताया कि उनके अध्ययन के अनुसार 30 अप्रैल को भाजपा के मुकाबले कांग्रेस को पांच फीसदी की बढ़त हासिल थी। एक से 12 मई के बीच बढ़त का यह अंतर घटकर डेढ़ फीसदी रह गया। शास्‍त्री मानते हैं कि कांग्रेस की बढ़त में इस कमी का प्रमुख कारण पीएम मोदी की 20 से ज्यादा रैलियां हैं। जमीनी स्तर पर भाजपा और संघ की गहरी पैठ ने भी काम किया। भाजपा के एक पदाधिकारी बताते हैं कि पार्टी ने बूथ स्तर पर कम से कम छह लाख लोगों को नियुक्त किया था। वे कहते हैं, “जमीन तैयार थी। मोदी आए और जीत के बीज बो दिए। ऐसा नहीं है कि यह कोई बंजर जमीन थी, जहां उन्होंने चमत्कार कर दिखाया।”       

कार्यकाल खत्म करने के बाद सत्ता में वापसी करने वाले कर्नाटक के आखिरी मुख्यमंत्री डी. देवराज अर्स थे, जिन्हें सिद्धरमैया अपना आदर्श मानते हैं। कुरुबा समुदाय से आने वाले सिद्धरमैया देवराज सरीखे करिश्मे को दोहराने के लिए अन्य पिछड़ा वर्ग के साथ-साथ अल्पसंख्यक मतों के भरोसे थे।

धारवाड़ की कर्नाटक यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान पढ़ाने वाले प्रोफेसर हरीश रामास्वामी कहते हैं, “कर्नाटक की राजनीति पर प्रभावशाली जातियों का वर्चस्व है। लिंगायत भाजपा के साथ हैं जबकि दक्षिण कर्नाटक में वोक्कालिगा देवेगौड़ा के जेडीएस के साथ हैं।” लिंगायत बहुल इलाकों में भाजपा को मिली सीटों की तादाद बताती है कि इस समुदाय को अल्पसंख्यकों का दर्जा देकर वोट काटने का सिद्धरमैया का दांव उलटा पड़ा गया। सिद्धरमैया के कई लिंगायत मंत्रियों की हार इसका सबूत है। 

शास्‍त्री मानते हैं कि लिंगायत फैक्टर कांग्रेस पर बुरी तरह उलटा पड़ा है। लिंगायतों में कांग्रेस का जो थोड़ा-बहुत जनाधार था, उसमें कोई इजाफा होने के बजाय कांग्रेस को नुकसान ही उठाना पड़ा है। हालांकि, कांग्रेस के एक नेता का कहना है कि तेजी से दौड़ रही गाड़ी पर ब्रेक भर लगाया था। जाहिर है, उनका इशारा येदियुरप्पा की तरफ था।

फिर भी कांग्रेस ने हैदराबाद कर्नाटक क्षेत्र में काफी अच्छा किया, जिसमें लिंगायत की भी मौजूदगी है। खासकर बेल्लारी जिले में जहां उसका मुकाबला रेड्डी बंधुओं और अनुसूचित जाति वाल्मीकि नायक के श्रीरामुलु से था। बेंगलूरू में जहां भाजपा को अधिक उम्मीद थी, वहां भी कांग्रेस ने उसे रोका। हालांकि, मौजूदा विधायकों के खिलाफ नाराजगी भी बहुत थी। राजनैतिक टिप्पणीकार नरेंद्र पाणि कहते हैं, “सिद्धरमैया ने अच्छा काम किया होगा लेकिन विधायकों ने क्या किया? दस मंत्री चुनाव हार गए। यानी यह सरकार विरोधी वोट था।”

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