हालिया संपन्न कर्नाटक चुनाव में अगर आप प्रचार के दौरान वहां ओला या उबर की टैक्सियों से सफर कर रहे होते और ड्राइवर से पूछते कि कौन जीतने वाला है, तो उसका जवाब होता ‘कुमारन्ना’। उस समय कोई यह सोच भी नहीं पा रहा था कि जनता दल (सेकुलर) के नेता एच.डी. कुमारस्वामी के पास भी कोई मौका हो सकता है। लेकिन, अब देखिए वे मुख्यमंत्री पद की दौड़ में हैं। भले ही वे मुख्यमंत्री बनें या नहीं, लेकिन हकीकत यह है कि वे मुख्यमंत्री की कुर्सी पाने के करीब हैं और यह इस चुनाव का सबसे बड़ा आश्चर्य है।
यहां तक कि कांग्रेस के निराशाजनक प्रदर्शन और भारतीय जनता पार्टी के सबसे बड़ी पार्टी बनने से भी बड़ा आश्चर्य है।
इस नतीजे का श्रेय जाति और सामुदायिक समीकरणों वगैरह को देना बेहद आसान है, जैसा कि अधिकांश विश्लेषकों की आदत है। दक्षिण कर्नाटक में दबदबे वाले वोक्कालिगा समुदाय ने कांग्रेस से मुंह मोड़ लिया, उत्तर और मध्य कर्नाटक में लिंगायत समुदाय ने भाजपा के पक्ष में वोट किया और दलितों ने आंशिक रूप से कांग्रेस से नाता तोड़ा। ये ऐसी बातें हैं, जिसे कोई क्रॉस-चेक नहीं कर सकता और न कह सकते हैं कि वे सही हैं या नहीं। वे सही हो सकते हैं, गलत भी या आंशिक रूप से सही हो सकते हैं। इसे लेकर कोई भी आश्वस्त नहीं हो सकता है।
जाति आधारित विश्लेषण के साथ समस्या यह है कि वह कर्नाटक को अलग-थलग देखता है। हालांकि, इसमें कोई संदेह नहीं है कि विधानसभा चुनाव के नतीजे राज्य की स्थितियों को बतलाते हैं। लेकिन, इसके लिए देश की मैक्रो-पॉलिटिक्स को भी ध्यान में रखने की जरूरत है। 2014 में भाजपा के केंद्र में पहुंचने और खास तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की वजह से देश भर में संघ परिवार की विचारधारा के उभार के साथ-साथ सांप्रदायिक ध्रुवीकरण बढ़ा है।
कर्नाटक इससे अलग नहीं है। तटीय कर्नाटक के मेंगलूरू और उडुपी के आसपास इलाकों में यह साफ तौर पर दिखता है। यहां 2014 से पहले से ही बहुसंख्यक हिंदू समुदाय और मुसलमानों के बीच सांप्रदायिकता की आग सुलग रही है। केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद से इस इलाके में दोनों समुदायों के बीच विभाजन की खाई बढ़ी है और इसी का नतीजा है कि हालिया संपन्न चुनाव में कांग्रेस 21 में से महज तीन सीट ही जीत पाई। बाकी 18 सीटें भाजपा के खाते में गईं।
यह बहस का विषय हो सकता है कि 2013 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने इस इलाके में अच्छा प्रदर्शन नहीं किया और तब उसे सिर्फ पांच सीटें ही मिली थीं। अगर इस क्षेत्र में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का असर था, तो इसे कैसे समझा जा सकता है? 2013 के चुनाव में परेशानियों और घोटालों से घिरी भाजपा की बी.एस. येदियुरप्पा सरकार के खिलाफ भारी सत्ता विरोधी लहर थी और इस लहर में अन्य सभी मुद्दे दब गए।
साल 2013 और हालिया चुनाव के दरम्यान देश की राजनीति में एक बड़ा बदलाव आया है। पांच साल पहले पूरे भारत में कांग्रेस की कई राज्यों और केंद्र में सरकार थी। अब पार्टी देश के मानचित्र पर कुछ हिस्सों में सिमट गई है। ऐसा लगता है कि आरएसएस का हिंदुत्व एजेंडा काम कर रहा है और उसकी राजनीतिक शाखा भाजपा चुनावी फायदा उठा रही है। भगवा विस्तार के साथ-साथ आरएसएस और उससे जुड़े संगठन बजरंग दल, विश्व हिंदू परिषद और अन्य सहयोगी संगठनों का भी धीरे-धीरे विस्तार हो रहा है।
जैसा कि कर्नाटक में भी देखा गया कि भगवा नेटवर्क के विस्तार के साथ अधिकांश राज्यों में भाजपा पैठ बनाने के लिए तैयार है। यह बात अलग है कि कर्नाटक की तरह सभी राज्यों में स्थिति एक समान नहीं है। यहां ऐतिहासिक रूप से आरएसएस का संगठन ठीक-ठाक है, ऐसे में मोदी-शाह की जोड़ी उसे बढ़ाने में मददगार साबित हुई। हालांकि, वह जीत का आंकड़ा नहीं छू पाई, लेकिन पिछले चुनाव के 40 सीट के मुकाबले इस बार 104 (बहुमत से नौ कम) सीट जीतने में सफल रही, जो जमीनी स्तर पर संघ परिवार की ताकत को बताता है।
पूरे राज्य में आरएसएस के कार्यकर्ताओं का जमीनी स्तर पर काम शायद ही दिखता था। इसके अलावा, भाजपा का सोशल मीडिया पर वर्चस्व जमीनी स्तर पर उसके प्रयासों में मददगार साबित हुआ। यही वजह है कि प्रधानमंत्री मोदी का प्रचार व्यापक रूप से सफल रहा। पेशेवर तौर पर मतदाताओं और कार्यकर्ताओं को सक्रिय करने और विभिन्न बैठकों के लिए जमीन तैयार करने की वजह से ही मोदी को बड़ी सफलता मिली।
अगर कोई कर्नाटक के चुनाव प्रचार अभियान में नरेंद्र मोदी के भाषणों का विश्लेषण करे तो दिमाग में सबसे पहली बात यही आती है कि उन्होंने इस दौरान कोई बड़ा मुद्दा नहीं उठाया। अगर उन्होंने कोई मुद्दा उठाया भी तो वे कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और उनके परिवार पर व्यक्तिगत टिप्पणी, जेडीएस के वरिष्ठ नेता और पूर्व प्रधानमंत्री एच.डी. देवेगौड़ा पर हमले और फिर उनकी प्रशंसा में ही गायब हो गए। इसके अलावा प्रधानमंत्री मोदी ने इतिहास गढ़ने का भी काम किया। फील्ड मार्शल के.एम. करियप्पा और जनरल के.एस. थिमैया जैसे प्रतिष्ठित व्यक्तियों का सहारा लिया और अपने हिसाब से तथ्यों को तोड़मरोड़कर पेश किया। उनका आरोप था कि जवाहरलाल नेहरू जैसे तत्कालीन कांग्रेसी नेताओं ने उनका अपमान किया था। वैसे भी कहें तो मोदी के भाषणों में तथ्य उनके मन-मुताबिक होते हैं।
लेकिन फिर, चुनाव की पूर्व संध्या पर कुछ ही दिनों में 21 रैलियां करने वाले स्टार प्रचारक के इर्द-गिर्द बुने गए हाइप का क्या हुआ? हालांकि, यह नतीजा निकालना असंभव है कि क्या मतदाताओं ने उनका भाषण सुनने के बाद अपनी सोच बदली। ऐसे में यह कहना अधिक सही हो सकता है कि संघ परिवार की चुनाव मशीनरी ने यह तय किया कि उनकी तरफ सभी का ध्यान आकर्षित हो और प्रचार मिले। यह एक अलग संभावना है कि कर्नाटक के सुदूर इलाकों में लोग प्रधानमंत्री के साथ चलने वाले दलबल के ग्लैमर की चकाचौंध से प्रभावित हुए और मुमकिन है कि कुछ वोट भाजपा के पाले में चले गए होंगे।
उधर, कांग्रेस उम्मीद कर रही थी कि मुख्यमंत्री सिद्धरमैया के लिंगायत समुदाय को अलग धार्मिक पहचान के लिए सिफारिश करने और कन्नड़ उप-राष्ट्रीयता के प्रति उनके समर्थन से उसे सफलता मिलेगी। लेकिन वह यह सोचकर हैरान होगी कि आखिर किन वजहों से उसे नुकसान हुआ। एक तार्किक निष्कर्ष यह है कि इन दोनों रणनीतियों ने कांग्रेस के पक्ष में काम नहीं किया। इसका मतलब है कि न तो कन्नड़ कार्यकर्ता प्रभावित हुए और न ही लिंगायतों को अपने समुदाय के लिए कोई बड़ा फायदा नजर आया।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि सिद्धरमैया की विभिन्न लोकप्रिय योजनाओं, जैसे गरीबों को एक रुपये किलो चावल देने (अन्न भाग्य योजना), सब्सिडी वाले आवास और कम लागत वाले कैंटीन, जो कम कीमत पर गुणवत्ता वाले भोजन मुहैया कराते थे। ऐसा लगता है कि मतदाताओं पर इनका प्रभाव मामूली रहा।
जहां कांग्रेस असफल हुई और कमजोर हो रही है, वहां उसे हिंदुत्व के व्यापक भगवा संदर्भ में कारणों का पता लगाना है। इस पर न तो सिद्धरमैया और न ही कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी सहित उनकी पार्टी का थिंक-टैंक कुछ ठोस करता दिख रहा है। उनके पास मतदाताओं को ध्रुवीकरण से दूर करने के लिए भी कोई सटीक योजना नहीं है।
चुनाव से कुछ सप्ताह पहले अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय ने अपने वोटरों को एकजुट करने का काम किया और सभी को कांग्रेस के लिए वोट देने के लिए समझाया। पूरे राज्य में उनकी आबादी लगभग 12 प्रतिशत है और ये समान रूप से हर जगह मौजूद हैं। हिंदुत्व का मुकाबला करने और अपने वोट के नहीं बंटने देने का यह मुस्लिम तरीका था। नतीजों को देखते हुए ऐसा लगता है कि वे इसमें पूरी तरह सफल नहीं हुए हैं। वैसे, यह भी सच है कि मुसलमानों के एकजुट होने की वजह से उनका वोट शेयर कम नहीं हुआ। इस तर्क को मानने के पीछे बड़ी वजह है कि मुस्लिम समुदाय के पास कांग्रेस को वोट देने का मकसद साफ है। वह शायद कर्नाटक में भाजपा के शासन को रोकने के लिए कांग्रेस को अंतिम विकल्प के रूप में देखता है।
ऐसा लगता है कि कांग्रेस को कर्नाटक में अपने समर्थकों को साथ बनाए रखने में परेशानी हुई। साथ ही, विभिन्न चुनाव क्षेत्रों में बूथ स्तर पर प्रबंधन में भी दिक्कतें हुईं। अगर पार्टी आगे के चुनाव जीतना चाहती है तो यही वह समय है जब वह अपने संगठनात्मक ढांचे को दुरुस्त करे और जमीनी स्तर पर काम करने के लिए कार्यकर्ताओं को लामबंद करे।
वहीं, जेडी (एस) की बात करें तो पार्टी ने अपने गढ़ दक्षिण कर्नाटक, तेलंगाना से सटे उत्तरी कर्नाटक के कुछ हिस्सों से 37 सीटें हासिल कीं, और वह भी बिना किसी अधिक प्रयास के। पिछले पांच वर्षों से गौड़ा परिवार में आंतरिक कलह और झगड़े की वजह से इस पार्टी में काफी उठा-पटक हुई। इसके बावजूद, यह सच है कि जेडी(एस) का समर्थन करने वाले मतदाताओं (जैसे बेंगलूरू का वह कैब ड्राइवर) की संख्या बड़ी है। इससे साफ पता चलता है कि अगर इसके नेताओं ने कूटनीतिक समझ दिखाई होती और 1996 में पार्टी नहीं टूटती तो वह अब भी राज्य में कांग्रेस का मुख्य विकल्प बन सकती थी। लेकिन, यह एक अलग कहानी है। शायद अब उसे सोचना चाहिए।
(लेखक बेंगलूरू में स्वतंत्र पत्रकार हैं)