कर्नाटक विधानसभा चुनावों के नतीजों ने देश की राजनीति में दिलचस्प मोड़ ला दिया है। राज्य के मतदाताओं ने किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं दिया और इस तरह नए राजनैतिक समीकरण के तहत धुर प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस और जनता दल (एस) को एक पाले में खड़ा कर दिया है जबकि भाजपा को 104 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनाकर भी बहुमत से दूर रखा है। यह भाजपा के लिए चिंता का सबब भी है क्योंकि बिना किसी जोड़तोड़ के वह राज्य की सत्ता से दूर रह सकती है। लेकिन एक बार पहले भी दक्षिण में भाजपा के लिए प्रवेश द्वार बन चुके कर्नाटक में उसे सीटों की अच्छी खासी बढ़त मिली है और पिछले चुनाव में राज्य में बिखरी हुई भाजपा को एक साथ आने का फायदा मिला है। लेकिन चौंकाने वाली बात यह है कि इन चुनावों में वोट शेयर कुछ अलग ही तस्वीर पेश करता है। 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा का वोट शेयर 44 फीसदी था लेकिन विधानसभा चुनाव में यह घटकर 36 फीसदी रह गया। वहीं, कांग्रेस का वोट शेयर बढ़कर 38 फीसदी हो गया जो पिछले विधानसभा चुनाव से एक फीसदी ज्यादा है लेकिन सीटों के मामले में वह पिछड़ गई। जो लोग राज्य में जनता दल (एस) को खारिज कर रहे थे, उसे मिली 38 सीटें उनके लिए संदेश है कि अभी भी कर्नाटक में तीसरी पार्टी के लिए जगह है। पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा का कर्नाटक के लोगों में वजूद कायम है।
असल में ये नतीजे 1996 के लोकसभा चुनावों के नतीजों की याद दिलाते हैं जब अचानक देवेगौड़ा देश के प्रधानमंत्री बन गए थे। संयुक्त मोर्चा की उस सरकार का नेतृत्व संभालने के लिए ज्योति बसु से लेकर कई दूसरे उत्तर भारतीय नेताओं की चर्चाएं थीं लेकिन घटनाक्रम ने ऐसी करवट ली कि देवेगौड़ा प्रधानमंत्री बन गए। इसके पहले वे भारी जनसमर्थन से राज्य के मुख्यमंत्री बने थे जबकि वहां रामकृष्ण हेगड़े खुद को मुख्यमंत्री का प्रबल दावेदार समझ रहे थे। जीवन के नौंवें दशक में पहुंच चुके देवेगौड़ा ने दो राष्ट्रीय दलों के बीच से किंगमेकर की भूमिका में उभरकर यह साबित कर दिया कि राजनीति में उम्र की सीमा के भी कई बार मायने नहीं होते हैं। यह कुछ उसी तरह है, जैसा मलेशिया में 92 की उम्र पार कर चुके महातिर मुहम्मद दुनिया में किसी भी सरकार के सबसे उम्रदराज प्रमुख बने हैं।
अब बड़ा सवाल यह है कि कर्नाटक के चुनावों का 2019 के लोकसभा चुनावों के लिए क्या संदेश है। हर राजनैतिक दल और राजनैतिक पंडित इन चुनावों को 2019 के लिहाज से आंकने की कोशिश में लगा है। यह बात तो सही है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अभी भी भाजपा के लिए वोट बटोरने वाले सबसे अहम किरदार हैं। अभी कोई भी दूसरा नेता उनकी बराबरी नहीं कर सकता है। ये चुनाव नतीजे कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के लिए भी चिंता लेकर आए हैं। कांग्रेस अगर कर्नाटक में अपने बूते सरकार कायम रख पाती तो संयुक्त विपक्ष शायद आगामी लोकसभा चुनाव में उसका नेतृत्व स्वीकार कर लेता। लेकिन इन नतीजों ने कांग्रेस की उम्मीदों को कमजोर किया है। कांग्रेस के लिए यह भी संकेत है कि अब उसे तमाम क्षेत्रीय दलों से हाथ मिलाने को तैयार होना होगा।
गौरतलब है कि जिस तरह चुनाव नतीजों के कुछ ही घंटों के भीतर पुराने मतभेद भुलाकर कांग्रेस और जनता दल (एस) ने साझा सरकार बनाने के लिए राज्यपाल के सामने दावेदारी पेश की, वह इस बात का संकेत है कि विपक्ष की एकजुटता में भाजपा का प्रसार सबसे बड़ा राजनैतिक फैक्टर बन गया है।
भाजपा के लिए भी यह नई तरह की तैयारियों में जुटने का संकेत देने वाला चुनाव है। कर्नाटक में पार्टी का बहुमत से दूर रह जाना, उसके लिए बड़ा झटका है। भले ही पार्टी अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसे जीत बताएं लेकिन बहुमत न मिलने का सच उनके सामने है। यह चुनाव नतीजों के बाद पार्टी मुख्यालय में उनके संबोधन की भाव भंगिमा में साफ झलक रहा था। इन नतीजों के 2019 के लिए पूरे मायने निकालने के पहले राजनैतिक दलों को चार राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और मिजोरम के विधानसभा चुनावों की परीक्षा से भी गुजरना होगा। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार अब अपने पांचवें और अंतिम साल में प्रवेश कर चुकी है। जिस तरह आर्थिक विकास, रोजगार और किसानों के मुद्दों पर सरकार की चुनौतियां बढ़ रही हैं, उसके पास चार साल पूरे होने का जश्न मनाने के लिए कोई बहुत बड़ी उपलब्धियां भी नहीं हैं। अगर भाजपा को कर्नाटक में बहुमत मिल जाता तो उसे केंद्र सरकार के कामकाज पर भी मुहर मान लिया जाता लेकिन इन नतीजों ने यह मौका नहीं दिया। हालांकि, वोट शेयर घटने पर भी ज्यादा सीटें मिलने से उसका हौसला तो बढ़ा है। यही वजह है कि प्रधानमंत्री ने कहा है कि भाजपा को केवल हिंदी भाषी पार्टी बताने वाले लोगों को कर्नाटक की जनता ने जवाब दिया है और साबित किया है कि भाजपा पूरे देश की पार्टी है और भाषा की कोई दीवार उसके रास्ते में नहीं है। लेकिन उनके इस बयान के बावजूद यह भी सच है कि भाजपा के लिए यहां सत्ता पाने का रास्ता अभी भी ऊबड़खाबड़ है।