इस साल आउटलुक-दृष्टि की प्रोफेशनल कॉलेजों की रैंकिंग में 400 कॉलेज और अवधारणात्मक सर्वेक्षण में 20 हजार से ज्यादा छात्र, प्रोफेसर, नियोक्ता और पेशेवर शामिल हुए। इस सर्वेक्षण में यह अब तक की सबसे अधिक हिस्सेदारी है।
2018 की रैंकिंग में शीर्ष पायदान पर कोई विशेष बदलाव नहीं आया है। यह दर्शाता है कि टॉप के संस्थान अपनी गुणवत्ता बनाए हुए हैं। पिछले दो वर्षों के दौरान देश के नामी संस्थानों द्वारा रिसर्च, इनोवेशन और राष्ट्रीय विकास में उचित योगदान न किए जाने को लेकर काफी सवाल उठे हैं। लेकिन साथ ही मैंने यह भी महसूस किया कि कई संस्थान रिसर्च ऐंड डेवलपमेंट पर ध्यान दे रहे हैं। पिछले साल हमने महसूस किया था कि शिक्षा का भविष्य मल्टीडिसप्लनेरी एप्रोच और कन्वर्जन्स से तय होगा। हालांकि, अभी भी पूरी तरह मल्टीडिसप्लनेरी एप्रोच नजर नहीं आ रही है, लेकिन इतना जरूर है कि कई संस्थान इस दिशा में कदम बढ़ा रहे हैं।
टॉप इंजीनियरिंग कॉलेजों और डिजाइन स्कूल्स में ये बदलाव दिखाई पड़ रहे हैं। सोशल वर्क के कोर्स बदल रहे हैं तो कई संस्थानों के होटल मैनेजमेंट के कोर्स भी बदल रहे हैं।
ऐसा लगता है कि शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर संस्थान अपनी खामियां दुरुस्त करने पर ध्यान दे रहे हैं। छात्रों को मिलने वाली शिक्षा और समूचे शैक्षणिक अनुभव पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है। सरकार की मौजूदा और प्रस्तावित नीतियां भी इंटर्नशिप पर फोकस और रिसर्च की फंडिंग बढ़ाकर सकारात्मक बदलाव लाने की कोशिश कर रही हैं।
मांग की तरफ देखें तो इस साल इंजीनियरिंग सीटों के लिए आवेदनों में कमी आई है। जाहिर है, कम लोकप्रिय कॉलेजों में कई सीटें खाली रह जाएंगी। इससे इंजीनियरिंग स्नातकों की मांग का अंदाजा लगाया जा सकता है। मैन्यूफैक्चरिंग में ग्रोथ न होने की वजह से भारत में कोर इंजीनियरिंग की नौकरियां कम हैं और सॉफ्टवेयर की नौकरियों में भी कमी आ सकती है। निकट भविष्य में निम्न स्तर की कोडिंग जॉब तकनीक की वजह से खत्म हो सकती हैं। हालांकि, ऐसी नौकरियां इंजीनियरिंग की पढ़ाई पर खर्च के मुकाबले बेहद कम रिटर्न देती हैं। ऐसे छात्रों को मुश्किल से सालाना दो-तीन लाख रुपये मिलते हैं। अब ये नौकरियां भी जाने वाली हैं। स्टार्ट-अप की वजह से काफी नौकरियां पैदा होती हैं। यह क्षेत्र भी बदलाव और चुनौतियों के दौर से गुजर रहा है।
भारत को मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र में नौकरियां बढ़ाने पर ध्यान देना होगा। फिलहाल, मेक इन इंडिया जैसे सरकारी अभियान का असर दिखना बाकी है। सेवा क्षेत्र भी काफी नौकरियां देता है, लेकिन उसमें शायद उतने इंजीनियरों की जरूरत नहीं है।
इन सब कारकों को मिलाकर देखें तो कुछ बातें एकदम स्पष्ट हैं। मसलन, नौकरियां मुश्किल से आएंगी, मौजूदा नौकरियां शायद वेतन ज्यादा न दे पाएं, निजी संस्थानों की मोटी फीस के बदले उतनी अच्छी नौकरी न मिल पाए और अगर छात्र कर्ज लेकर पढ़ाई करते हैं तो आगे चलकर हम भी अमेरिका की तरह स्टूडेंट लोन के मकड़जाल में उलझ सकते हैं।
इसलिए आंख मूंदकर इंजीनियरिंग में दाखिला लेने के बजाय छात्रों को सोच-समझकर कोर्स का चुनाव करना चाहिए। इंजीनियर बनने की ख्वाहिश रखने वालों को भी देखना चाहिए कि क्या वे किसी प्रतिष्ठित कॉलेज में दाखिला ले रहे हैं? क्या उसके पास अच्छी शिक्षा, अच्छे प्लेसमेंट और इंडस्ट्री से संपर्क का अनुभव है? कंपनियां अब सामान्य ग्रेजुएट को भी भर्ती करने को तैयार हैं, इसलिए अब सिर्फ इंजीनियरिंग की डिग्री के नाम पर लाखों खर्च करना समझदारी नहीं है। इंजीनियरिंग के क्षेत्र में वाकई दिलचस्पी है तो बात अलग है।
आजकल इन्फ्रास्ट्रक्चर, रिन्यूएबल एनर्जी, एग्रीकल्चर ऐंड फूड प्रोसेसिंग, नेनो-टेक्नोलॉजी, मेडिसिन सर्विसेज, सोशल सर्विसेज सरीखे कई दूसरे क्षेत्र भी तेजी से उभर सकते हैं। डिजाइन के क्षेत्र में भी काफी संभावनाएं हैं। इन सभी क्षेत्रों में अलग-अलग तरह की सोच-समझ, रुझान और दक्षता वाले लोगों की जरूरत होगी।
इसलिए प्रोफेशनल कोर्स की तरफ कदम बढ़ा रहे नौजवानों को मेरे कुछ सुझाव हैं:
- ठीक से समझ लें, जिस कोर्स के लिए आवेदन कर रहे हैं, क्या वाकई उसमें आपकी रुचि है।
- देख लें कि जिस पढ़ाई पर आप जो पैसा खर्च कर रहे हैं, क्या उतना रिटर्न मिल पाएगा। जरूरी नहीं कि रिटर्न पैसे के रूप में ही हो।
- यह भी देखें कि जिस क्षेत्र को चुना है, उसमें सफल होने के लिए जरूरी प्रतिभा आपमें है या नहीं। मेहनत और लगन से प्रतिभा की भरपाई की जा सकती है।
- जिस भी विषय को चुनें, उसके प्रोफेसरों और विशेषज्ञों के संपर्क में रहें। अगर आपका संस्थान इंटर्नशिप नहीं कराता तो अपने बूते प्रयास करें।
याद रखें, बाजार में प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है। लेकिन जो खुद में सुधार करते जाएंगे, उन्हें इसका फल जरूर मिलेगा।
(लेखक दृष्टि स्ट्रैटेजिक रिसर्च सर्विसेज के मैनेजिंग डायरेक्टर हैं)