किसी भी लोकतंत्र के लिए सबसे अहम है उसकी संवैधानिक संस्थाओं में नागरिकों का भरोसा कायम रहे। यह भरोसा कमजोर होता है या डगमगाता है तो लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी बजने लगती है। कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजों के दिन खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि चुनाव होते रहते हैं लेकिन संस्थाओं को बने रहना सबसे जरूरी है। उनकी टिप्पणी पश्चिम बंगाल के पंचायत चुनावों में हुई हिंसा के संदर्भ में थी। देश के लोगों के लिए संवैधानिक संस्थाओं की अहमियत सरकार, प्रशासन तंत्र और राजनीतिक व्यवस्था से ऊपर है क्योंकि किसी स्तर पर भरोसा टूटा तो वह इन्हीं संस्थाओं में उम्मीद तलाशता है। चुनाव आयोग, सुप्रीम कोर्ट और आर्थिक मामलों में भारतीय रिजर्व बैंक ऐसी ही स्वायत्त संस्थाएं हैं।
ताजा संदर्भ चुनाव आयोग का है। हाल के लोकसभा और विधानसभाओं के उपचुनावों के बाद एक बार फिर उसे लेकर बहस तेज हुई। इन चुनावों में बड़े पैमाने पर इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) और उसके साथ लगने वाली वीवीपैट मशीन की गड़बड़ी की शिकायतें आईं। अहम बात यह है कि पिछले कुछ चुनावों में राजनीतिक दलों ने ईवीएम की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए। इसमें अभी तक कोई ठोस प्रमाण सामने नहीं आया है, लेकिन एक सवाल जरूर खड़ा हुआ है कि क्या ईवीएम में ऐसी छेड़छाड़ संभव है, जिससे किसी राजनीतिक दल को फायदा पहुंचाया जा सके? चुनाव आयोग लगातार सफाई देता आ रहा है कि छेड़छाड़ संभव नहीं है। लोगों का शक दूर करने के लिए ईवीएम के साथ वीवीपैट मशीनें लगाई गईं, ताकि यह आश्वस्त किया जा सके कि मतदाता ने जिस उम्मीदवार को वोट दिया, वह उसी के खाते में गया। इस तरह ईवीएम और वीवीपैट मशीन एक यूनिट की तरह काम करती है। ताजा उपचुनावों में इनका इस्तेमाल किया गया, जिनमें ईवीएम के खराब होने के मामले पहले से संभावित स्तर पर यानी एक फीसदी के आसपास ही रहे। लेकिन खराब वीवीपैट की संख्या एक लोकसभा क्षेत्र में 20 फीसदी को पार कर गई। यानी ईवीएम के ठीक रहने का कोई फायदा नहीं हुआ, क्योंकि उसमें वीवीपैट के बिना मतदान नहीं हो सकता था।
उत्तर प्रदेश की कैराना लोकसभा सीट का उपचुनाव भाजपा बनाम राष्ट्रीय लोकदल, सपा, बसपा और कांग्रेस के गठबंधन के प्रत्याशियों के बीच होने से यह हाई प्रोफाइल मुकाबला बन गया। इस सीट पर बड़ी संख्या में वीवीपैट के खराब होने से मतदान में देरी हुई। हालांकि, चुनाव आयोग ने दावा किया कि समय रहते मशीनें बदल दी गईं। लेकिन जिस तरह से बड़ी संख्या में पोलिंग बूथों पर पुनर्मतदान की नौबत आई, उससे साफ है कि मतदान प्रक्रिया बड़े स्तर पर प्रभावित हुई। आरोप और आशंकाओं को दरकिनार करते हुए चुनाव आयोग को यह सोचना होगा कि इस तरह की स्थिति क्यों पैदा हुई?
दरअसल, मामला किसी प्रत्याशी का नहीं, बल्कि मतदाता का है। हर बालिग को मत देने का संवैधानिक अधिकार है और यही हमारे लोकतंत्र की बुनियाद है। ऐसे में, क्या यह आश्वस्त करना चुनाव आयोग का मौलिक दायित्व नहीं है कि कोई भी नागरिक इस अधिकार से वंचित न रहे? चुनाव आयोग किसी भी दल या प्रत्याशी के मुकाबले देश के हर नागरिक के प्रति ज्यादा जवाबदेह है। देश में चुनाव प्रक्रिया में बाहुबल और प्रशासनिक मशीनरी के दुरुपयोग पर अंकुश लगाने में आयोग बहुत हद तक कामयाब रहा है। यही वजह है कि गड़बड़ी होने के बाद प्रभावित लोग चुनाव आयोग की ओर ही उम्मीद से देखते हैं। यही वह भरोसा है जिसे चुनाव आयोग जैसी संस्था को बचाकर रखना है। अगर यह भरोसा कमजोर होता है तो लोकतंत्र की नींव ही कमजोर हो जाएगी।
कुछ इसी तरह का मामला लोकतांत्रिक मूल्यों को बचाने के लिए पिछले दिनों सामने आया था। कर्नाटक विधानसभा चुनावों के बाद राज्यपाल ने जिस तरह से बहुमत को दरकिनार कर भाजपा के नेता बी.एस. येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी और बहुमत साबित करने के लिए 15 दिन का लंबा समय दे दिया, उससे ऐसा ही संकट खड़ा हो गया था। उसके खिलाफ विपक्षी दल सुप्रीम कोर्ट पहुंचे और न्यायालय के आदेशों के बाद लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भरोसा पुख्ता हुआ। लिहाजा, सुप्रीम कोर्ट को लेकर जो उम्मीद रहती है, वह और मजबूत हुई है। इसी तरह का मसला रिजर्व बैंक को लेकर है, जिस पर देश के नागरिकों को करेंसी की वैधता का भरोसा दिलाने का जिम्मा है, लेकिन नवंबर, 2016 में नोटबंदी के बाद के घटनाक्रम ने रिजर्व बैंक की विश्वसनीयता और स्वायत्तता पर चोट की है। यह किसी भी स्वायत्त संस्था के लिए अच्छा संकेत नहीं है।
संस्थाओं का कायम रहना, स्वायत्त रहना और लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए देश के नागरिकों का उनमें विश्वास बना रहना किसी भी देश के लिए सबसे जरूरी है। इसके लिए नागरिकों से बड़ा दायित्व संस्थाओं का है कि जब नागरिक अपने अधिकारों की रक्षा के लिए उनकी ओर देखे तो वे उसकी उम्मीद पर खरी उतरें।