इन गरमियों में अगली गरमी के महासंग्राम की तैयारी ऐसे तपने लगेगी, इसका अंदाजा कर्नाटक के विधानसभा चुनावी नतीजों या कहिए, कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन की सरकार बनने के नाटकीय घटनाक्रम के पहले नहीं था। इसलिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कैराना संसदीय और नूरपुर विधानसभा उपचुनाव भी इतने अहम हो गए कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मतदान के एक दिन पहले दिल्ली से मेरठ के एक्सप्रेसवे के महज 9 किमी. के शुरुआती हिस्से के उद्घाटन के लिए भरी दोपहरी में रोड शो करने से लू के थपेड़े भी नहीं रोक सके। न ही उन्हें कैराना के बगल में बागपत में अधूरे ईस्टर्न पेरिफेरल सड़क के उद्घाटन के लिए सभा संबोधित करने में कोई हिचक हुई। वही क्यों, विपक्ष ने भी अगले दिन मतदान के दौरान 384 ईवीएम खराबी को ऐसा मुद्दा बनाया कि आखिर चुनाव आयोग को अप्रत्याशित रूप से 73 जगहों पर पुनर्मतदान का आदेश देना पड़ा, जबकि पहले वह इसे गरमी की वजह से खराबी का सामान्य वाकया बता रहा था। यानी दोनों तरफ तेवर और तैयारियां उफान पर हैं।
कर्नाटक के जनादेश से जो राजनैतिक संदेश उभरे, उससे विपक्ष ने जो सबक सीखा, उसके नजारे बेंगलूरू में कांग्रेस-जेडीएस की साझा सरकार के मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह में दिखे। यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी और बसपा सुप्रीमो मायावती की बहनापे सरीखी तस्वीरें ही नहीं, आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू, बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, दिल्ली के अरविंद केजरीवाल, माकपा के सीताराम येचुरी, राकांपा के शरद पवार, जदयू असंतुष्ट शरद यादव से लेकर विपक्ष के तमाम दिग्गजों और क्षत्रपों की मौजूदगी यही बता रही थी कि 2019 में मोदी लहर को रोकने का फॉर्मूला उन्हें मिल गया है। यह और बात है कि इसमें अभी कई पेच हैं। इसका अंदाजा हाल में बसपा के अधिवेशन में मायावती के इस ऐलान से भी लगा सकते हैं कि “तालमेल तभी होगा जब हमें पर्याप्त स्थान मिलेगा।”
यानी अभी बहुत कुछ तय होना है। सवाल यह भी है कि तीसरे मोर्चे की कोई जुगत बनेगी या कांग्रेस भी इस महागठबंधन का बदस्तूर हिस्सा होगी? एनडीए विरोधी विपक्षी एकता के प्रबल पैरोकार, जदयू से टूटकर हाल में लोकतांत्रिक जनता दल का गठन करने वाले शरद यादव कहते हैं, “फिलहाल तीसरे मोर्चे की खास गुंजाइश नहीं है। अभी तो मोदी या एनडीए विरोधी गठजोड़ या तालमेल की ही बात है क्योंकि मोदी सरकार की डिजाइन देश के लिए खतरनाक लगती है।” लेकिन तीसरे मोर्चे की बात आगे बढ़ाने के लिए ममता बनर्जी से मिल चुके तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ने बेंगलूरू में न पहुंचकर कुछ दूसरी संभावनाओं के दरवाजे भी खुले रखे हैं। इसी तरह द्रमुक के अध्यक्ष एम.के. स्तालिन और शिवसेना के उद्धव ठाकरे भी वहां नहीं पहुंचे थे। इसकी भाजपा के नेता कुछ ऐसी व्याख्या करते हैं कि अभी कई विकल्प खुले हुए हैं।
इसके अलावा अभी तक ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने भी अपना रुख साफ नहीं किया है। इसकी वजह यह है कि ओडिशा में कांग्रेस कमजोर है और यहां पटनायक के बीजू जनता दल को चुनौती देने का दावा भाजपा कर रही है। यूं तो नवीन पटनायक लंबे समय तक एनडीए गठबंधन का हिस्सा रहे हैं पर अब हालात बदल गए हैं।
वैसे, फिलहाल तो भाजपा खेमे में खिसियाहट ही नजर आ रही है। हाल में एक जनसभा में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा, “सभी भ्रष्ट अपना अस्तित्व बचाने के लिए गोलबंद हो रहे हैं।” इसके पहले भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा, “अगर (कर्नाटक में) कांग्रेस-जेडीएस ने अपने विधायकों को कैद में नहीं रखा होता तो नजारा कुछ और होता।”
कर्नाटक के भाजपा प्रभारी प्रकाश जावड़ेकर ने कहा, “ऐसा हम भी करना जानते हैं, हम अब इस पर विचार करेंगे।” यानी भाजपा ने भी अपने सहयोगियों को पाले में रखने या नए डोरे डालने के पत्ते अभी महफूज रखे हैं। भाजपा के एक सूत्र कहते हैं, “असली खेल तो इस साल के आखिर में होने वाले मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मिजोरम के चुनावों के साथ या उसके बाद शुरू होगा।”
शायद इसी वजह से कई हलकों में यह कानाफूसी भी चल पड़ी है कि शायद लोकसभा चुनाव इन्हीं विधानसभा चुनावों के साथ करा लिए जाएंगे। दरअसल, इसकी वजह मई के दूसरे हफ्ते में चुनाव आयोग से सरकार को मिली यह आश्वस्ति भी है कि वह सितंबर तक लोकसभा और विधानसभाओं के एक साथ चुनाव कराने की तैयारी पूरी कर लेगा। फिर नीति आयोग और प्रधानमंत्री कार्यालय पिछले कुछ समय से देश के पिछड़े जिलों के विकास के लिए सीधे जिलाधीशों के जरिए केंद्र की कल्याणकारी योजनाओं को पहुंचाने की एक परियोजना पर काम भी कर रहे हैं, जिन्हें “आकांक्षी जिले” नाम दिया गया है। ऐसे करीब 117 जिले चिह्नित किए गए हैं, जिनमें स्वास्थ्य, शिक्षा और ग्राम स्वराज अभियान के साथ प्रधानमंत्री की प्रिय और प्रमुख योजनाओं को आगे बढ़ाना है। लेकिन, इसके लिए राज्य सरकारों को बेशक भरोसे में लेना होगा और विपक्ष शासित राज्यों में यह कैसे होगा, यह बड़ा सवाल है। फिलहाल, पश्चिम बंगाल ने अपने पांच जिलों को इसमें शामिल करने से मना कर दिया है। फिर मामला सीमित वित्तीय आवंटनों का भी है।
केंद्र सरकार की यह तैयारी भले लोकसभा चुनाव जल्दी कराने के लिए न हो मगर यह स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा किस तबके पर चुनाव के नजरिए से जोर देना चाहते हैं। प्रधानमंत्री मोदी को अपनी प्रिय उज्ज्वला, जन धन, ग्राम आवास जैसी योजनाओं के जरिए गरीबों को आकर्षित करने या अपने पाले में बनाए रखने का भरोसा है। उन्होंने हाल में एक सभा में कहा भी, “उज्ज्वला प्रेमचंद की कहानी ईदगाह के पात्र हामिद की मां की आंखों के आंसू पोछने के लिए है।” जाहिर है, गणित यह है कि भाजपा के ऊंची जातियों के वोट के साथ अगर निचली जातियों खासकर अति पिछड़ों को जोड़ा जा सका तो 2019 में भी 2014 जैसी न सही, पर कमोबेश एक फिजा तैयार की जा सकेगी। सो, सरकार के चार साल पर ऐसी ही उपलब्धियों के गुणगान के लिए पूरे देश में भाजपा और संघ परिवार ने अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं को रवाना किया है। सांसद, मंत्री, विधायक तो अपने-अपने क्षेत्रों में सक्रिय कर ही दिए गए हैं।
असल में भाजपा की दिक्कत यह भी होती जा रही है कि फिलहाल एनडीए में बचे दलों को भी यह चिंता सताने लगी है कि भाजपा उनका अस्तित्व ही खत्म करती जा रही है। शिवसेना और तेलुगू देशम के तीखे तेवर इसकी सबसे बड़ी मिसाल हैं। यानी अब इनकी भावनाओं पर ही मरहम लगाना संभव नहीं है तो दूसरे दलों से गठजोड़ की संभावना तलाशना कहां मुमकिन है। आखिर इसी फॉर्मूले से वह 'कांग्रेस मुक्त भारत' का अपना अभियान चला रही थी। इसकी मिसालें, असम, त्रिपुरा, मणिपुर, मेघालय, गोवा, अरुणाचल, नगालैंड (अब बिहार और एक मायने में अन्नाद्रमुक की वजह से तमिलनाडु भी) वगैरह हैं, जहां कांग्रेस के नेताओं को थोक भाव में आयात करके या क्षेत्रीय दलों से गठजोड़ करके भाजपा सत्ता में पहुंच गई थी।
अब तो हालात इतने बदल गए हैं कि चंद्रबाबू नायडु ही नहीं, के. चंद्रशेखर राव भी भाजपा के जोड़तोड़ से आशंकित हैं। चंद्रबाबू नायडु ने तो 27-28 मई को अपनी पार्टी के अधिवेशन में कहा, “2019 में भाजपा विरोधी मोर्चा क्षेत्रीय दल संभालेंगे और हमारी पार्टी उसमें अहम किरदार निभाएगी। क्षेत्रीय दलों के पास कई सक्षम नेता हैं।” दरअसल, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में भाजपा जगनमोहन रेड्डी की वाइएसआर कांग्रेस और कुछ छोटे दलों के साथ मिलकर संभावनाएं तलाश रही है। इसी आशंका से चंद्रशेखर राव ने कथित तौर पर वह फॉर्मूला निकाला है, जिससे तमाम क्षेत्रीय दलों के साथ कांग्रेस का एक तालमेल बने।
सूत्रों के मुताबिक, फॉर्मूला यह है कि कांग्रेस की जहां क्षेत्रीय पार्टियों से सीधी लड़ाई है, वहां तो पूरी ताकत से लड़े लेकिन ऐसे राज्यों में भी जिन सीटों पर भाजपा या एनडीए मजबूत है, वहां कोई गुपचुप तालमेल बना लिया जाए। जहां गठजोड़ की संभावना है, वहां तो एक झंडे के तहत लड़ा ही जाए और फिर नतीजों के बाद नेता पद पर विचार हो। बेशक, इस फॉर्मूले में भी कई पेच हैं। कांग्रेस कितना लचीलापन दिखा पाती है, यह इस पर निर्भर है।
इस लचीलेपन का पैमाना शायद मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ के चुनाव नतीजों के बाद ही तय हो पाएगा, जहां कांग्रेस सीधे भाजपा से भिड़ेगी। फिलहाल तो चार लोकसभा और कुछ विधानसभाओं के उपचुनाव के नतीजे ही तय करेंगे कि विपक्ष और सत्तापक्ष की रणनीतियां क्या होंगी। जो भी हो मुकाबला दिलचस्प होने वाला है और पूरे देश की निगाहें इस पर टिकी रहेंगी।
ईवीएम भी बड़ा मुद्दा
यह विवाद नया नहीं है लेकिन उत्तर प्रदेश के कैराना संसदीय और नूरपुर विधानसभा चुनाव में जो हुआ उससे इसके नए सिरे खुलने लगे हैं। कैराना और नूरपुर में करीब 384 ईवीएम-वीवीपैट में गड़बड़ियों की शिकायतें आईं। पहले तो चुनाव आयोग की ओर से कहा गया कि यह बेतहाशा गरमी की वजह से हुआ है और वीवीपैट मशीनों को मतदान केंद्रों के पीठासीन अधिकारियों के ठीक से न चला पाने की वजह से भी हुआ। लेकिन विपक्ष का आरोप था कि ऐसा ज्यादातर उन्हीं मतदान केंद्रों पर हुआ जहां मुस्लिम और दलित आबादी की बहुलता थी। आखिर चुनाव आयोग को 73 मतदान केंद्रों पर पुनर्मतदान का आदेश देना पड़ा, जो कम तो नहीं कहा जा सकता। कैराना में करीब 21 फीसदी वीवीपैट बदलने की बात चुनाव आयोग ने मानी है।
दरअसल, मामले के तूल पकड़ने की वजह यह रही कि रालोद के अध्यक्ष अजित सिंह, सपा के अध्यक्ष अखिलेश यादव फौरन सक्रिय हो उठे और प्रेस कॉन्फ्रेंस की। फिर इन पार्टियों के वरिष्ठ नेता फौरन चुनाव आयोग के दिल्ली मुख्यालय में भी पहुंच गए। कांग्रेस भी फौरन सक्रिय हो गई। यह उसी तरह की सक्रियता और तेजी थी, जैसी कर्नाटक चुनावों के दौरान दिखी। इससे यह अंदाजा तो लग रहा है कि विपक्ष का खेमा लगातार एकजुटता की ओर बढ़ रहा है। दरअसल, उन्हें अब यह डर भी वाजिब लगने लगा है कि भाजपा सत्ता के दुरुपयोग में किसी भी हद तक जा सकती है। ईवीएम की गड़बड़ियों की शिकायत तो कैराना से भाजपा की उम्मीदवार मृगांका सिंह ने भी की, लेकिन इन चुनावों में भाजपा ने अपने तमाम मंत्रियों और संबंधित विधायकों की फौज उतार दी थी, उससे साफ है कि ये चुनाव उसके लिए काफी अहम हैं। इससे यह भी तय है कि ईवीएम को लेकर आशंकाएं और विवाद और गहराएगा। वैसे भी, यह विवाद 2014 के पहले खासकर 2009 के लोकसभा चुनावों के बाद भाजपा भी उठा चुकी है।
उसके एक पदाधिकारी जीवीएल नरसिंह राव तो ईवीएम में छेड़छाड़ की संभावनाओं पर पूरी एक किताब लिख चुके हैं। अमेरिका के कई राज्य और कई यूरोपीय देश तो ईवीएम से पहले ही तौबा कर चुके हैं। लेकिन हमारे यहां चुनाव आयोग अभी तक इसकी निष्पक्षता पर अड़ा हुआ है। मगर नए संदर्भों में यह विवाद नए सिरे से खड़ा होगा।