चार साल पहले केंद्र में सत्ता परिवर्तन को आसान बनाने वाली बड़ी वजहों में पेट्रोल-डीजल की कीमतों का चढ़ना और रुपये का लुढ़कना भी था। नरेंद्र मोदी और एनडीए नेताओं ने इसे कांग्रेस नीत यूपीए सरकार की काहिली की मिसाल बताई थी। लेकिन आज देश में पेट्रोल-डीजल की कीमतें सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंच गईं तो क्या पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान का यह बयान आपको यूपीए सरकार के मंत्रियों के लाचारी भरे बयान की याद नहीं दिला देता कि "अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें बढ़ गई हैं," जिस पर सरकार का वश नहीं है। वैसे, अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चा तेल अब भी अपने उच्चतम स्तर (2008 में 140 डॉलर प्रति बैरल) से करीब आधे पर है।
खैर, ऐसी सियासी दलीलों और सभी ओर से चुनावी "जुमलेबाजी" के अलावा आइए जरा यह देखें कि कीमतों में उतार-चढ़ाव का यह गणित कहता क्या है। यह गजब का गणित है, जिसमें बाजार में कीमतें घटें या बढ़ें केंद्र, राज्य सरकारों, तेल कंपनियों, पेट्रोल-डीजल डीलरों, पेट्रोल पंप मालिकों सबकी कमाई बढ़ती ही जाती है। लेकिन कीमतें चाहे घटें या बढ़ें, जनता का खर्च कभी नहीं घटता। सवाल है कि यह सिर्फ एकतरफा ही क्यों होता है।
इसी एकतरफा दबाव को छुपाने के लिए शायद यह तर्क तलाशा गया कि कीमतों में रोज-ब-रोज उतार-चढ़ाव करने की छूट तेल कंपनियों को दे दी जाए, ताकि लोगों को महंगाई का एहसास कम हो। बेशक, इसके लिए मुक्त बाजार की दलीलें दी गईं और इस डिरेगुलेशन को आर्थिक सुधार का हिस्सा बताया गया। पेट्रोल को डिरेगुलेट तो 2012 में यूपीए सरकार ही कर गई थी, एनडीए सरकार ने 2014 में डीजल को भी डिरेगुलेट कर दिया। फिर पिछले साल 2017 में रोज-ब-रोज दामों को बढ़ाने की इजाजत दे दी गई। कहावत है न कि कांटा हल्का चुभाओ तो दर्द का एहसास देर से होता है। लेकिन अब यह कांटा धंसता ही जा रहा है और अब बेहद दुखने लगा है। वैसे, सरकार को यह एहसास बदस्तूर है कि कम से कम चुनाव में उतरें तो पेट्रोल-डीजल की कीमतें बढ़ने का सवाल लोगों की जुबान पर न आए।
सो, कर्नाटक चुनाव की सियासी मजबूरी दूर होते ही पेट्रोल-डीजल की महंगाई ने पुराने रिकॉर्ड तोड़ दिए। इस दौरान करीब 19 दिनों तक दाम पर लगा सरकारी ब्रेक हटा तो देश में पेट्रोल का दाम 78 रुपये से लेकर 86 रुपये और डीजल 69 रुपये से लेकर 73 रुपये प्रति लीटर के पार पहुंच गया। देश में आज तक पेट्रोल-डीजल इतना महंगा कभी नहीं बिका। इस बीच पेट्रोल-डीजल की कीमतें लगातार 16 दिनों तक बढ़ती चली गईं। तथ्य बताते हैं कि कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट का फायदा जनता तक पहुंचने के बजाय सरकार की जेब में पहुंचा और जनता के हिस्से में महंगाई की मार ही आई।
सबकी कमाई, जनता के सिर बोझ
मई, 2014 में जब केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार आई तो अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल का दाम 110 डॉलर प्रति बैरल के आसपास था। तब दिल्ली में पेट्रोल का दाम 71 रुपये और डीजल 56 रुपये प्रति लीटर के आसपास था। उसके बाद कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट का दौर शुरू हुआ और जनवरी, 2016 में कच्चा तेल 35 डॉलर प्रति बैरल तक गिर गया। लेकिन तब भी दिल्ली में पेट्रोल 60 रुपये और डीजल 45 रुपये के आसपास बिकता रहा। यानी, कच्चे तेल की कीमतें घटकर करीब एक तिहाई रह जाने के बावजूद पेट्रोल-डीजल के दाम मुश्किल से 15-20 फीसदी घटे। अब पिछले एक साल से कच्चे तेल में फिर तेजी का रुख है और कीमतें 75 डॉलर प्रति बैरल के पार पहुंच चुकी हैं।
कर्नाटक चुनाव के बाद लगातार 16 दिन पेट्रोल-डीजल की कीमतों में बढ़ोतरी का दौर जारी रहा। फिर 17वें दिन राहत दी गई तो सिर्फ एक पैसे की। 29 मई को दिल्ली में पेट्रोल का दाम 78.43 रुपये और डीजल 69.31 रुपये लीटर तक पहुंच गया। मुंबई में तो पेट्रोल का दाम 86.24 रुपये और डीजल का 73.79 रुपये रहा। जबकि 2014 के मुकाबले अभी भी कच्चे तेल का दाम करीब 30 फीसदी कम है, फिर भी देश में पेट्रोल 2014 के मुकाबले करीब 10 फीसदी और डीजल 23 फीसदी महंगा बिक रहा है। इसी दौरान कच्चे तेल का दाम 79.80 डॉलर से घटकर 75 डॉलर के आसपास आ गया। कच्चा तेल जिस हफ्ते करीब पांच डॉलर सस्ता हुआ, भारत में पेट्रोल-डीजल की महंगाई नए रिकॉर्ड बना रही थी।
लेकिन अब लोगों का धैर्य जवाब देने लगा है। महंगाई से त्रस्त आम जनता, कारोबारी और किसान सड़कों पर उतरने लगे हैं। विपक्षी दल भी सरकार पर हमलावर होने का यह मौका गंवाने के मूड में नहीं हैं। पंजाब के लुधियाना जिले में भारतीय किसान यूनियन (राजेवाल) की अगुआई में हजारों किसानों ने ट्रैक्टरों के साथ डीजल के बढ़ते दाम के खिलाफ मार्च किया तो बिहार के किशनगंज में युवा कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने बैलगाड़ी पर जुलूस निकाला। आगरा में सपा की महिला कार्यकर्ताओं ने रिक्शा चलाकर विरोध जताया तो बनारस में सपा कार्यकर्ता ने बाइक का पिंडदान कर दिया। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस ने पेट्रोल-डीजल की महंगाई के खिलाफ राज्यव्यापी आंदोलन छेड़ दिया है। सोशल मीडिया पर भी विपक्षी दल सरकार को घेरने का कोई मौका नहीं चूक रहे हैं। क्रिकेटर विराट कोहली के फिटनेस चैलेंज को स्वीकार करके जैसे ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट किया, जवाब में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने उन्हें पेट्रोल-डीजल के दाम घटाने की चुनौती दे डाली।
कीमतों का तिलिस्म
कच्चे तेल की कम कीमतों के बावजूद पेट्रोल-डीजल की बढ़ती महंगाई के इस तिलिस्म को समझने के लिए कुछ तथ्यों पर गौर करना जरूरी है। मिसाल के तौर पर, जब दिल्ली में पेट्रोल बिकने के लिए डीलर के पास पहुंचता है तो उसका दाम 38.64 रुपये के आसपास होता है। लेकिन इस पर 19.48 रुपये केंद्र सरकार एक्साइज ड्यूटी वसूलती है। उसके बाद 16.67 रुपये राज्य सरकार वैट के रूप में अपना हिस्सा लेती है। फिर पेट्रोल बेचने वाला डीलर अपने मार्जिन के तौर पर 3.64 रुपये कमीशन लेता है। इस तरह करीब 38 रुपये का पेट्रोल लोगों को 78 रुपये में खरीदना पड़ रहा है।
डीजल की भी यही कहानी है। दिल्ली में डीलर के पास पहुंचने पर डीजल का दाम 41.26 रुपये होता है। इस पर 15.33 एक्साइज ड्यूटी, 10.91 रुपये वैट और 2.53 रुपये डीलर मार्जिन वसूले जाने से डीजल का दाम 69 रुपये प्रति लीटर से ऊपर पहुंच जाता है। इस कमाई में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए सरकार एक्साइज ड्यूटी बढ़ा लेती है तो राज्य अपने वैट पर अड़े रहते हैं। डीलर भी पिछले एक दशक में अपना मार्जिन ढाई-तीन गुना बढ़वा चुके हैं।
पेट्रोलियम उत्पादों पर टैक्स वसूली केंद्र और राज्य सरकारों के लिए राजस्व जुटाने और घाटा दूर करने का बड़ा जरिया बन चुका है। एक अनुमान के मुताबिक, पेट्रोल-डीजल पर एक्साइज ड्यूटी में एक रुपये का इजाफा होते ही सरकारी खजाने को करीब 13 हजार करोड़ रुपये का फायदा पहुंचता है। यही कारण है कि जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम गिरे तो सरकार ने एक्साइज ड्यूटी बढ़ाकर अपनी कमाई का रास्ता और चौड़ा कर लिया। नवंबर, 2014 से जनवरी, 2016 के बीच जब कच्चे तेल के दाम गिरावट की ओर थे तो केंद्र सरकार ने नौ बार एक्साइज ड्यूटी बढ़ाई मगर दाम इक्का-दुक्का मौकों पर ही घटने दिए। तेल से कमाई में राज्य सरकारें भी पीछे नहीं हैं। महाराष्ट्र में पेट्रोल पर करीब 40 फीसदी, मध्य प्रदेश में 36 फीसदी, केरल में 32 फीसदी, दिल्ली में 27 फीसदी और बिहार में 25 फीसदी वैट है।
कौन घटाए, केंद्र या राज्य
पेट्रोल-डीजल की कीमतों में कमी के लिए केंद्र और राज्य सरकारें पहले आप, पहले आप की तर्ज पर एक-दूसरे को अपने हिस्से के टैक्स घटाने की नसीहत देती रहती हैं। जबकि आम जनता पर महंगाई का बोझ और सरकारों की कमाई दिन दोगुनी, रात चौगुनी रफ्तार से बढ़ रही है। जिस दिन पेट्रोल-डीजल के दाम में महज एक पैसे की कटौती हुई तब केरल सरकार ने एक रुपये की राहत देकर केंद्र को आईना दिखाने का काम जरूर किया।
साल 2016-17 में केंद्र सरकार ने पेट्रोलियम उत्पादों पर एक्साइज ड्यूटी के जरिए 2.42 लाख करोड़ रुपये का राजस्व जुटाया, जो दो साल पहले एक लाख करोड़ रुपये से कुछ कम ही था। लगभग ढाई गुना बढ़ोतरी! हालांकि, पेट्रोलियम पर वैट से राज्य सरकारों को होने वाली कमाई इस अनुपात में नहीं बढ़ी है, फिर भी उनके खाते में इससे सालाना डेढ़ लाख करोड़ रुपये से ज्यादा पहुंच रहा है। तेल की खुदाई या आयात से लेकर खुदरा बिक्री के हर चरण पर लगने वाले करों का कमाल है कि पिछले चार साल में केंद्र सरकार पेट्रोलियम के जरिए करीब 10 लाख करोड़ रुपये का राजस्व जुटा चुकी है।
इस पर सवाल उठाते हुए कांग्रेस के संचार विभाग के प्रमुख रणदीप सिंह सुरजेवाला कहते हैं कि मोदी सरकार आम जनता की जेब काटकर वित्तीय मोर्चे पर अपनी खामियां छिपा रही है। पेट्रोल-डीजल पर एक्साइज ड्यूटी व अन्य टैक्स घटाने या फिर उन्हें जीएसटी के दायरे में लाने के बजाय पेट्रोल पर जो एक्साइज ड्यूटी 2014 में 9.20 रुपये थी, उसे बढ़ाकर 19.48 रुपये कर दिया गया। इसी तरह डीजल पर एक्साइज ड्यूटी 3.46 रुपये से बढ़ाकर 15.33 रुपये कर दी गई। भाजपा के केंद्र की सत्ता में आने के बाद एक्साइज ड्यूटी 12 दफा बढ़ी है।
सब्सिडी का मामला
लेकिन सवाल सिर्फ पेट्रोल-डीजल की कीमतों का ही नहीं है। असल मुद्दा लोक कल्याणकारी राज्य की मूल भावना से हटकर बाजार और जनता के बीच बिचौलिया बनी सरकार की भूमिका को लेकर है। कुछ साल पहले तक जब कच्चे तेल के दाम 140 डॉलर तक पहुंच गया था, तब सरकारी तेल कंपनियां घाटा सहकर भी जनता को अपेक्षाकृत सस्ते भाव पर पेट्रोल-डीजल मुहैया कराती थीं। इस घाटे की भरपाई सरकार सब्सिडी के जरिए करती, जिस पर सालाना 60-70 हजार करोड़ रुपये तक खर्च हो जाते थे। सस्ता ईंधन मुहैया कराना सरकार की जिम्मेदारी समझा जाता था। लेकिन यह जिम्मेदारी धीरे-धीरे सरकारी खजाने की हालत सुधारने के उपाय में बदलती चली गई।
पड़ाेसी देशों में कम क्यों
ताज्जुब की बात है जिन देशों में पेट्रोल-डीजल भारत से जाता है, वहां भी पेट्रोल-डीजल भारत के मुकाबले सस्ता है। मई के पहले हफ्ते में जब दिल्ली में पेट्रोल का दाम 74.63 रुपये लीटर था, तब नेपाल की राजधानी में पेट्रोल 66.69 रुपये प्रति लीटर मिल रहा था। श्रीलंका में तो पेट्रोल का दाम 50 रुपये प्रति लीटर से भी कम है। खुद को पड़ोसी देशों से बेहतर दिखाने वाली भारत सरकार इस मामले में उनसे होड़ लेने के कतई मूड में नहीं दिखती।
एनर्जी एक्सपर्ट नरेंद्र तनेजा का कहना है कि इंटरनेशनल मार्केट में क्रूड की कीमतों में तेजी या गिरावट का असर घरेलू बाजार में कुछ दिनों बाद आता है। ऐसे में पेट्रोल और डीजल के भाव में फिलहाल और बढ़ोतरी हो सकती है, क्योंकि मई के पहले हफ्ते में ग्लोबल मार्केट में ब्रेंट क्रूड का भाव 73-75 डॉलर प्रति बैरल के आसपास ही रहा उसके बाद इसमें तेजी आई और भाव बढ़कर 22 मई को 80 डॉलर प्रति बैरल के पार चला गया। इसके बाद गिरावट आई है।
अमेरिका के ईरान के साथ परमाणु करार से पीछे हटने, नाजुक भू-राजनीतिक स्थितियों और कई देशों की अर्थव्यवस्था में सुधार के चलते तेल की मांग बढ़ने से कच्चे तेल के दाम 80 डॉलर के ऊपर पहुंचने की आशंका बनी हुई है। पिछले साल भर में कच्चा तेल पहले ही करीब 40 फीसदी महंगा हो चुका है। ऐसे में सवाल यह है कि अब अगर कच्चा तेल महंगा हुआ तो सरकार क्या करेगी।
कमजोर रुपया की मार
केंद्र में यूपीए-दो की सरकार के दौरान चालू खाता घाटा (सीएडी) बढ़ने के चलते रुपये की विनिमय दर में बड़ा बदलाव आया था। रुपया कमजोर हो रहा था। तब गुजरात के मुख्यमंत्री और मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तंज करते हुए कहा था कि डॉलर के मुकाबले रुपया प्रधानमंत्री की उमर से भी आगे निकलने को तत्पर है। उस वक्त कुछ लोगों ने यहां तक दावा किया कि मोदी प्रधानमंत्री बनेंगे तो रुपया रिकॉर्ड मजबूती की ओर जाएगा। लेकिन दिलचस्प बात देखिए। उस समय रुपये ने मनमोहन सिंह की उम्र का स्तर तो नहीं छुआ, लेकिन पिछले दिनों उसकी कमजोर होती स्थिति ने नरेंद्र मोदी की उम्र का स्तर जरूर पार कर लिया है। चालू साल के जनवरी माह में एक डॉलर की कीमत 63.64 रुपये थी जो मई में 68.02 रुपये प्रति डॉलर तक चली गई।
असल में क्रूड ऑयल यानी कच्चे तेल की ऊंची कीमतें रुपये को भी सीधे प्रभावित करती हैं। महंगे क्रूड के चलते डॉलर की मांग में इजाफा होता है, इसका सीधा असर रुपये की विनिमय दर पर पड़ता है। साथ ही हमारा निर्यात भी लक्ष्य के अनुरूप बढ़ नहीं है, उसके चलते व्यापार घाटा भी बढ़ रहा है। कच्चे तेल की कीमतें 80 डॉलर प्रति बैरल के आसपास पहुंचने से रुपये पर दबाव बना। एक अनुमान के मुताबिक, इस साल चालू खाता घाटा सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 2.5 फीसदी तक जा सकता है जो सरकार के दो फीसदी के लक्ष्य से अधिक है। हालांकि, विदेशी मुद्रा भंडार का स्तर 420 अरब डॉलर के आसपास है तो किसी तरह से बैलेंस ऑफ पेमेंट (बीओपी) की दिक्कत दूर-दूर तक नहीं है। वैसे, 1991 के बाद से यह दिक्कत कभी देश के सामने नहीं आई।
रुपये की कमजोरी के आम आदमी पर असर को देखें तो आने वाले दिनों में कंज्यूमर इलेक्ट्राॅनिक्स के दाम ढाई फीसदी से पांच फीसदी तक बढ़ा जाएंगे। इसमें मोबाइल फोन से लेकर एलसीडी, वाशिंग मशीन और फ्रिज तक शामिल हैं। कमजोर रुपये और महंगे क्रूड के चलते इनके कच्चे माल के दाम बढ़ रहे हैं और कंपनियां इस बढ़ती लागत को उपभोक्ताओं पर ही डालने जा रही हैं। असल में सरकार के दावों के उलट हम कंज्यूमर इलेक्ट्राॅनिक्स का अधिकांश हिस्सा आयात ही करते हैं। यह उपकरणों के रूप में हो या तैयार उत्पाद के रूप में। कमजोर रुपये और कच्चे तेल की कीमतों में उछाल के चलते इस साल पेट्रोलियम आयात में 50 अरब डॉलर का इजाफा हो सकता है। पेट्रोल-डीजल पर करों में कटौती के दबाव के बीच यह एक बड़ी चुनौती है।
कमजोर रुपये के चलते देश में विदेशी निवेश पर भी असर पड़ सकता है क्योंकि निवेशक ऊंचा रिटर्न चाहते हैं। कमजोर रुपये का मतलब वह यहां से कम डॉलर ले जा पाएंगे। वहीं देश के ऐसे लाखों छात्र जो विदेशों में पढ़ने जाते हैं उनके अभिभावकों के लिए भी कमजोर रुपया बुरी खबर है। साथ ही जो लोग छुट्टियां मनाने विदेश जाना चाहते हैं उनका भी खर्च बढ़ना तय है।
रुपये को संभालना बहुत कुछ भारत की सरकार पर निर्भर भी नहीं है क्योंकि क्रूड की कीमतों के बढ़ने की एक बड़ी वजह जियोपालिटिक्स है और इसके केंद्र में अमेरिका है, जिसके फैसले तनाव बढ़ाते हैं और क्रूड के दाम बढ़ते हैं। साथ ही संरक्षणवादी नीतियों के चलते वह ग्लोबल ट्रेड को भी प्रभावित करने की ओर बढ़ रहा है। जिसका सीधा असर हमारे निर्यात पर पड़ सकता है जो पहले से ही बहुत बेहतर स्थिति में नहीं है।