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2019 पर घना साया

लगातार पैदावार की घटती कीमतों पर काबू पाने में मोदी सरकार की नाकाम योजनाओं से किसानों की नाराजगी बनने लगी 2019 के लिए बड़ी चुनौती, किसान संगठन और विपक्ष मोर्चे पर मुस्तैद
कब बदलेंगे ‌द‌िन?

- राजस्थान का हाड़ौती इलाका जो कोटा, झालावाड़ और बूंदी सहित कुछ जिलों को मिलाकर बनता है। वहां से किसानों की आत्महत्या की खबरें आने लगी हैं। राजस्थान के बाकी हिस्सों के मुकाबले यहां पानी की स्थिति ठीक-ठाक है इसलिए किसानों ने यहां नकदी फसलों की ओर रुख किया और लहसुन उगाने लगे। 2016 में उन्हें 60 रुपये किलो का भाव मिला था, जो 2017 में 30 रुपये रह गया लेकिन इस साल तो यह 12 से 14 रुपये किलो पर आ गया। यहां किसानों ने ड्रिप इरीगेशन पर अच्छा खासा निवेश किया है। जब फसल का दाम तीन साल में एक-चौथाई रह जाए तो किसानों की हालत का आप अंदाजा लगा सकते हैं।

- सहारनपुर की नकुड़ तहसील के किसान रामकुमार ने बेहतर आय के लालच में इस साल टमाटर की खेती की। नतीजा 25 किलो की टमाटर की कैरट 35 रुपये में बिकी। इस पर बाकी खर्च अलग है।

- दालों के दाम न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से नीचे चल रहे हैं, वह भी तब जब सरकारी स्टाक में भी 40 लाख टन दाल है। खपत से 100 लाख टन चीनी के स्टॉक ज्यादा होने के चलते गन्ना किसानों का हाल सबके सामने है तो एक समय उपभोक्ताओं को रुलाने वाला प्याज अब महाराष्ट्र के किसानों को रुला रहा है क्योंकि मिट्टी के भाव बिक रहे प्याज के चलते वह भारी संकट में हैं। वजह यह कि बढ़ती कीमतों के दौर में स्टोरेज वगैरह पर बड़ा निवेश किया।

- पंजाब के युवा डेयरी किसानों का हाल दूध की खरीद कीमत में भारी गिरावट के चलते बहुत बुरा हो गया है।

बात किसी एक फसल या देश के किसी एक राज्य पर नहीं रुक रही है। फसल दर फसल और राज्य दर राज्य किसानों की हालत पतली बनी हुई है। वह भी तब जब पैदावार के नए रिकॉर्ड बन रहे हैं। यानी किसान गिरती कीमतों और अधिक पैदावार के ऐसे संकट में फंस गया है जिसका हल सरकार नहीं कर पा रही है। दर्जनों योजनाओं की घोषणा और पुरानी योजनाओं में बदलाव का कोई नतीजा नहीं निकल रहा है।

असल में केंद्र की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के लिए मई, 2017 तक विपक्षी दल कोई बड़ा मुद्दा नहीं खड़ा कर पाए थे। नोटबंदी जैसे बड़े विवादास्पद फैसले के बाद भी भाजपा को 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में भारी बहुमत मिला। लेकिन मई, 2017 में स्थिति बदलने लगी क्योंकि देश के कई हिस्सों में किसानों की खराब होती हालत ने उनको सड़कों पर आने के लिए मजबूर कर दिया। यह बेचैनी महाराष्ट्र के नासिक जिले के पुणतंबा गांव में शेतकारी सांपा (किसानों के आंदोलन) के रूप में सामने आई। उन्होंने शहरों में फल, सब्जी और दूध की आपूर्ति रोक दी थी।

इसकी आंच मध्य प्रदेश में भी पहुंची जहां जून के पहले सप्ताह में मंदसौर के आसपास किसानों का आंदोलन उग्र हो गया और पुलिस गोलीबारी में छह किसानों की मौत हो गई। यही वह टर्निंग प्वाइंट था जो एक मजबूत सरकार के खिलाफ बनते माहौल का संकेत दे गया। नतीजा पिछले एक साल में किसान संगठनों की सक्रियता बढ़ी और उन्होंने आल इंडिया किसान संघर्ष कोआर्डिनेशन कमेटी के तहत करीब 190 किसान संगठनों को जोड़ लिया। इस एकजुटता ने एक नया विपक्ष खड़ा कर दिया।

सरकार को घेरने के लिए विपक्षी दल भी इस संगठन के साथ खड़े हो गए हैं। अब सरकार अपने अंतिम साल में है। देश का राजनैतिक इतिहास रहा है कि पांचवें साल में मजबूत से मजबूत बहुमत वाली सरकार के सामने संकट और चुनौतियां बढ़ी हैं जो उसे सत्ता में लौटने के रास्ते में बड़ी बाधा बनी हैं। इस बात को प्रधानमंत्री से लेकर उनकी पार्टी के रणनीतिकार भी समझ रहे हैं कि सरकार को परेशान करने वाला कोई मुद्दा है तो वह है किसानों की बदतर होती हालत। ऊपर से किसान और राजनीतिक विरोधी नरेंद्र मोदी को उनका वह चुनावी वादा याद दिला रहे हैं जिसमें उन्होंने फसल की लागत पर 50 फीसदी मुनाफा देने की बात कही थी। 

असल में सरकार के लिए उसके आंकड़े ही दिक्कत पैदा कर रहे हैं। ये आंकड़े सेंट्रल स्टेटिस्टिक्स ऑफिस (सीएसओ) के ही हैं जो 31 मई, 2018 को जारी किए गए। मसलन, मोदी सरकार के अभी तक के कार्यकाल की 16 तिमाही में कृषि क्षेत्र की जीवीए (ग्रोस वैल्यू एडेड) दर पांच फीसदी से भी कम रहा है। इस दौरान यह तीन बार ऋणात्मक रही है जिसमें 3.05 फीसदी तक की गिरावट आई। फसलों की रिकार्ड उपज के बावजूद कीमतों में आई गिरावट ने किसानों की शुद्ध आय को कम किया है।

इस दौरान अर्थव्यवस्था की सामान्य विकास दर कृषि क्षेत्र से ज्यादा रही है। इससे साफ होता है कि टर्म्स ऑफ ट्रेड लगातार कृषि क्षेत्र के प्रतिकूल बना रहा है। इस तरह अगर चार साल के औसत को आधार मानें तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के किसानों की आय दोगुना करने के लक्ष्य को हासिल करने के लिए 14 साल की जरूरत है जबकि उन्होंने इसका लक्ष्य साल 2022 रखा है। जहां तक कृषि जीडीपी की बात है तो वह इस सरकार के दौरान 2.5 फीसदी रही जबकि सामान्य जीडीपी का औसत 7.2 फीसदी रहा है।

दूसरी ओर, फसलों के आंकड़े साबित कर रहे हैं कि बेहतर दाम को लेकर नाउम्मीद होते किसानों ने फसलों का पैटर्न ही बदल लिया है। वह उन फसलों की ओर जा रहे हैं जहां दाम गिरने के बावजूद घाटा कम रहने की उम्मीद है। तभी तो 22 हजार करोड़ रुपये के रिकॉर्ड बकाया गन्ना भुगतान के बावजूद उत्तर प्रदेश समेत दूसरे राज्यों में गन्ने का रकबा बढ़ा है। इसी तरह पंजाब में किसानों ने कपास को छोड़कर धान का रकबा बढ़ाया है।

अब किसानों के इस असंतोष को कम करने के लिए सरकार की कोशिशों, नौकरशाही और सिस्टम की अंतर्कथा पर नजर डालते हैं। वैसे नरेंद्र मोदी की छवि तेजी से और सख्त फैसले लेने में पीछे न हटने वाले नेता की मानी जाती है। नोटबंदी और जीएसटी लागू करने के फैसले इसके उदाहरण हैं। लेकिन कृषि के मामले में जमीनी हकीकत या यूं कहें मंत्रालयों के कमरों की कहानी कुछ और ही बयान करती है। सरकार में उच्च पदस्थ सूत्रों के हवाले से जो दिलचस्प कहानी उभरती है, उस पर एक नजरः

नीति कथा

नीति आयोग में एक बैठक चल रही है जिसका मुद्दा है न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को फसल लागत का डेढ़ गुना करने का रास्ता निकालना। वैसे, जब वित्त मंत्री अरुण जेटली ने चालू साल (2018-19) के बजट में कह ही दिया था कि रबी फसलों के लिए सरकार ने किसानों को लागत का डेढ़ गुना एमएसपी दे दिया है और खरीफ में भी दिया जाएगा। सभी किसानों को एमएसपी मिले, इसके लिए नीति आयोग राज्यों के साथ मिलकर रास्ता निकालेगा। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि बजट भाषण के बाद स्वामीनाथन की अध्यक्षता वाले किसान आयोग की सिफारिशों की पड़ताल होने लगी तो किसानों और विशेषज्ञों ने कहा कि यह एमएसपी स्वामीनाथन आयोग के अनुरूप डेढ़ गुना नहीं है। इस बैठक में बीच का रास्ता निकालने की मशक्कत हो रही थी, जिसमें तय हुआ कि फसल की ए2 लागत यानी किसान ने इनपुट पर जो खर्च किया है उसमें  परिवार के श्रम (फैमिली लेबर) को जोड़कर 50 फीसदी मुनाफा दे दिया जाए। लेकिन बात तो कंप्रिहैंसिव कॉस्ट यानी सी-2 की हुई थी जिसमें इनपुट की लागत, फैमिली लेबर, जमीन का रेंट और पूंजी पर ब्याज शामिल है। ऐसे में सरकार द्वारा तय की जा रही कीमत कई फसलों के मामले में सी-2 से 30 फीसदी तक कम है। इस बैठक में कुछ असहमति के स्वर भी उठे क्योंकि यह फार्मूला भाजपा के चुनाव घोषणा-पत्र में किए वादे के अनुरूप नहीं है। वहीं, इस लेखक के साथ बातचीत में नीति आयोग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि किसानों को ज्यादा लालच नहीं करना चाहिए। जिस जमीन पर कोई रेंट नहीं देता है उसे वह नहीं मांगना चाहिए।

मंत्री मंथन

इस बैठक से पहले एक वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री की अध्यक्षता में बने मंत्री-समूह (जीओएम) में भी इस पर चर्चा हुई और ए2 प्लस एफएल फार्मूले को आगे बढ़ाने की बात हुई। लेकिन एक पेच फंसा हुआ है। इस आधार पर भी धान के एमएसपी में काफी बढ़ोतरी करनी पड़ेगी। वैसे, कृषि मंत्रालय चाहता है कि इस बार यह दाम दे दिया जाए। मंत्रालय का दावा है कि जिन 24 फसलों का एमएसपी तय होता है उनमें 13 में लागत का डेढ़ गुना दाम मिल रहा है बाकी 11 पर भी फैसला होगा। अभी तक खरीफ का एमएसपी तय हो जाना चाहिए था जो नहीं हुआ।

अफसरी अर्थ चिंता

अब बात तीसरी बैठक की, जिसमें कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) के चेयरमैन और मुख्य आर्थिक सलाहकार शामिल हैं। इसमें मुख्य आर्थिक सलाहकार सीएसीपी चेयरमैन को समझाते हैं कि ए2एफएल के आधार पर भी 50 फीसदी बढ़ोतरी की जरूरत नहीं है। उनकी धारणा भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) की पाॅलिसी से मेल खाती है। इससे साफ है कि अगर धान का एमएसपी ज्यादा बढ़ा तो ब्याज दर बढ़ाने की जरूरत पड़ेगी। रिजर्व बैंक की सरकार के साथ सहमति है कि वह महंगाई दर को एक निश्चित स्तर पर रखेगा। ऐसे में महंगाई दर के आंकड़े में 45.86 वेटेज रखने वाले खाद्य उत्पादों के दाम कम रखने में ही फायदा है। हालांकि, ताजा मौद्रिक समीक्षा में वह ब्याज दर एक-चौथाई फीसदी बढ़ा चुका है। ब्याज दर बढ़ने से कर्ज महंगा होगा और विकास दर पर प्रतिकूल असर पड़ेगा।

पीएमओ परामर्श

एक बैठक प्रधानमंत्री के प्रिंसिपल सेक्रेटरी की भी है। इसमें कहा जाता है कि मॉडल एग्रीकल्चरल लैंड लीजिंग एक्ट, 2016 जैसे संवेदनशील मुद्दे को अभी ठंडे बस्ते में ही डाले रखना चाहिए क्योंकि चुनावी साल में सुधारों की बात करना सही नहीं है। यह वही एक्ट है जिसके आधार पर वित्त मंत्री ने बजट में कहा था कि अब जमीन ठेके पर लेने वाले किसानों को भी सस्ता कर्ज और खाद पर सब्सिडी जैसे फायदे मिल सकेंगे क्योंकि इस कानून के चलते उनको मालिकाना हक वाले किसानों के बराबर सुविधाएं मिलेंगी। इसी बात को कृषि मंत्रालय भी अपनी चार साल की उपलब्धियों में गिना रहा है।

पीएम पेशकदमी  

अब एक ऐसी बैठक जो होने वाली है। नीति आयोग में यह 16 जून को होगी जिसकी अध्यक्षता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी करेंगे। देश की सबसे उच्च नीति निर्धारक मानी जाने वाली इस बैठक  में राज्यों के मुख्यमंत्रियों समेत तमाम अहम लोग शामिल होंगे। इसके लिए मॉडल एग्रीकल्चरल लैंड लीजिंग एक्ट को एजेंडा में शामिल करने के लिए नीति आयोग को प्रधानमंत्री कार्यालय से निर्देश आता है। कृषि मंत्रालय भी ऐसा ही चाहता है। लेकिन मीटिंग से सप्ताह भर पहले इसे एजेंडा से बाहर करने का निर्देश भी आ जाता है। इसके साथ ही मॉडल एग्रीकल्चरल प्रॉड्यूस ऐंड लाइवस्टॉक कांट्रैक्ट फार्मिंग एक्ट को भी इस बैठक में चर्चा के लिए रखे जाने से परहेज किए जाने की बात है। जबकि 2022 तक किसानों की आय दोगुना करने में इस कानून को अहम बताया जा रहा है। सरकार में उच्च पदस्थ सूत्रों का कहना है कि अब इस तरह के सुधारवादी कदमों पर 2019 के चुनावों के बाद ही बात होगी।

ऊपर जिन बैठकों की बात की गई है वह कृषि और किसानों से जुड़े मसलों पर फैसले लेने की प्रक्रिया पर सरकार की गंभीरता की अंतर्कथा है। इसके चलते यह सांप-सीढ़ी के खेल जैसा हो गया है या कुछ यूं कहें कि कृषि और किसानों का संकट एक ऐसा अभेद्य चक्रव्यूह हो गया है जिसे प्रधानमंत्री और उनकी टीम भेदना तो चाहती है क्योंकि उसके लिए यह एक गंभीर राजनीतिक चुनौती बनता जा रहा है लेकिन अभी फार्मूला नहीं मिल पा रहा है।

वैसे, सरकार का रुख कुछ मामलों में बदलता भी दिख रहा है, जो इस बात का साफ संकेत है कि सरकार मुद्दों को बड़ा नहीं बनाना चाहती, क्योंकि उसे राजनीतिक नुकसान हो सकता है। चीनी मिलों पर करीब 22 हजार करोड़ रुपये के किसानों के बकाया के संकट को हल करने के हुए ताजा फैसले इसका उदाहरण हैं। कैराना के बहुचर्चित लोकसभा उपचुनाव में गन्ने का मुद्दा सांप्रदायिकता के आधार पर मतों के विभाजन के फार्मूले पर जिस तरह भारी पड़ा, उसने भाजपा और प्रधानमंत्री को राजनीतिक चेतावनी दे डाली। नतीजा चुनाव नतीजों के सप्ताह भर के भीतर गन्ना मूल्य भुगतान संकट को हल करने के लिए पैकेज की घोषणा हो गई। यानी अब नरेंद्र मोदी की वोट जुटाने की छवि भी किसानों के मुद्दों के सामने फीकी पड़ रही है।

2019 पर गहरा साया

यह अब लगभग तय हो गया है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के लिए 2019 के लोकसभा चुनाव में खेती-किसानी का संकट ही सबसे बड़ा मुद्दा बनने वाला है, जो भाजपा और नरेंद्र मोदी के लिए सबसे कमजोर कड़ी के रूप में दिख रहा है। यूपीए-2 के लिए जो चुनौती 2जी घोटाला, कोयला घोटाला और दूसरे भ्रष्टाचार के मामलों ने पैदा की थी, कुछ उसी तर्ज पर कृषि संकट मोदी के लिए चुनौती पैदा करता जा रहा है।

इस बात को विपक्ष भी अच्छी तरह से भांप चुका है। यही वजह है कि राहुल गांधी से लेकर शरद पवार तक और एनडीए में भाजपा की सहयोगी शिवसेना समेत तमाम क्षेत्रीय दल किसानों के मुद्दों पर सरकार को घेरते नजर आते हैं। पिछले एक दशक में करीब 3.5 लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। यह सिलसिला थम नहीं रहा है, हालांकि सरकार ने चालाकी बरतते हुए पिछले दो साल के ऐसी वारदातों के आंकड़े जारी ही नहीं किए हैं।

किसान संगठनों की पहल

सरकार के लिए चाहे इसे कुछ सुकून की बात कहा जाए या तूफान के पहले की शांति, क्योंकि मंदसौर आंदोलन की पहली बरसी अभी गई है और इस दौरान कुछ किसान संगठनों ने ‘गांव बंद’ का आयोजन किया था, जो बहुत कारगर नहीं रहा। लेकिन इसके साथ ही यह बात भी सच है कि मंदसौर के बाद ही किसान संगठन एक बार फिर एकजुट होना शुरू हुए और फसल लागत पर 50 फीसदी मुनाफे वाले दाम और पूर्ण कर्जमुक्ति की दो मांगों पर एकजुट करीब 190 किसान संगठन ऑल इंडिया किसान संघर्ष कोआर्डिनेशन कमेटी के बैनर तले अपनी लड़ाई को राष्ट्रीय स्वरूप दे चुके हैं। इनके द्वारा तैयार दो विधेयकों को संसद में प्राइवेट मेंबर बिल के रूप में पेश करने की तैयारी है। इन बिलों पर 17 राजनैतिक दलों ने सहमति के हस्ताक्षर किए हैं। इसके चलते किसानों के मुद्दे पर संसद का आगामी मानसून सत्र सरकार के लिए कई परेशानियां लेकर आ सकता है।

केंद्र की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार का दावा है कि वह साल 2022 तक देश के किसानों की आय दो गुना करने के लक्ष्य को पूरा करेगी। उन्होंने यह घोषणा 28 फरवरी, 2016 को उत्तर प्रदेश के बरेली में एक रैली के दौरान की थी। इस बीच सरकार का दावा है कि उसने दर्जनों ऐसी योजनाएं लागू की हैं जो किसानों को फायदा पहुंचा रही हैं। कई राज्यों ने किसानों के 50 हजार रुपये से एक लाख रुपये तक किसान कर्ज माफ भी किए हैं। लेकिन देश का किसान आंदोलित है और खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहा है। उसे बेहतर फसल उपज के बावजूद अनिश्चितता ने घेर लिया है। फसल के बाद उसे सही दाम मिलेगा या नहीं, उसके परिवार का कोई भविष्य भी है या नहीं, इस तरह के सवालों के जवाब उसे नहीं मिल रहे हैं और न ही सरकार उसे आश्वस्त कर पा रही है।

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