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वैकल्पिक एजेंडा है कहां!

कांग्रेस-वामपंथी और तथाकथित उदार लोगों को पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने नई राह दिखाई
संघ मुख्यालय में पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का स्वागत करते सरसंघचालक मोहन भागवत

डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा 1925 में स्थापित 93 साल के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का विवादों से रिश्ता नया नहीं है। आरएसएस पर तीन बार प्रतिबंध लगाए गए, कई जांच कमीशन बैठे और दुष्प्रचार किया गया। फिर भी यह देश के लगभग 80 फीसदी गांवों और दुनिया के 80 से अधिक देशों में पहुंच वाला इकलौता गैर-सरकारी संगठन है।

आरएसएस के संस्थापक कांग्रेस में थे। उन्होंने 1931 के जंगल सत्याग्रह में भाग लिया। उन्होंने संगठन को राजनीति से दूर रखने के लिए इस्तीफा दिया और ब्रिटिश जेल से रिहा होने के बाद ही संगठन के प्रमुख बने। वर्षों बाद देश के विभाजन और महात्मा गांधी की हत्या के बाद पचास के दशक के शुरुआती साल में आरएसएस पर राजनीतिक भूमिका निभाने का जबरदस्त दबाव था। मगर आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक एम.एस. गोलवलकर ने भी संगठन को राजनीति से दूर रखा। जब राजनीतिक दल का गठन हुआ, तो उन्होंने आधा दर्जन पक्के कार्यकर्ताओं को जनसंघ में भेजा, लेकिन आरएसएस को चुनावी राजनीति से बाहर रखा।

आरएसएस में तीन चरणों में अपने काडर को प्रशिक्षण देने की व्यवस्था है। पहले दो वर्षों का प्रशिक्षण राज्यों और तीसरा वर्ष हमेशा नागपुर में आयोजित होता है। विचारधारा से इतर काडर को संबोधित करने के लिए समाज में प्रतिष्ठित शख्सियत को आमंत्रित करने की परंपरा रही है। इसी खुलेपन और प्रतिकूल विचारों के प्रति सम्मान से आरएसएस अधिक स्वीकार्य और व्यापक हुआ है।

इसी परंपरा के तहत आरएसएस ने पूर्व राष्ट्रपति और अनुभवी कांग्रेस नेता प्रणब मुखर्जी को आमंत्रित किया, जिन्होंने वैचारिक मतभेदों के बावजूद आरएसएस के निमंत्रण को स्वीकार किया। यह सब जरूर प्रणब मुखर्जी के कार्यकाल के अंतिम दिनों में आरएसएस सरसंघचालक मोहन भागवत (जो पश्चिम बंगाल में प्रचारक रह चुके हैं, इसलिए बांग्ला भी ठीकठाक बोल लेते हैं) के साथ भेंट-मुलाकातों का नतीजा होगा।

भारतीय राष्ट्रपति का पद सर्वोच्च संवैधानिक पद होता है। यह एक गैर-राजनीतिक पद है और इस पद पर बैठा व्यक्ति अराजनैतिक माना जाता है। कांग्रेस में भी अपने इस वरिष्ठ नेता के लिए कोई प्यार नहीं बचा है। फिर भी जब पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने आरएसएस के समारोह में जाने का फैसला किया, तो पार्टी ने न जाने के लिए उन्हें मनाने की खातिर हर मुमकिन चाल चली। इससे यह सामान्य-सी घटना सुर्खियों में बनी रही।

हालांकि, पूर्व राष्ट्रपति ने हर जटिल स्थिति में मध्यमार्ग अपनाने की अपनी कुशलता का अपने भाषण में ऐसी बौद्धिकता के साथ परिचय दिया कि अब उसे हर राजनीतिक वर्ग अपने पक्ष में होने का दावा कर रहा है।

पूर्व राष्ट्रपति ने कहा कि भारतीय राष्ट्रवाद सार्वभौमिकता, बहुलतावाद के प्रति उत्कृष्ट आदर्शों का सम्मान और विविधता से उत्पन्न होता है। इससे भटकाव हमें पतन की ओर ले जाएगा।

मोहन भागवत ने भी कहा, “हम सभी को अपनाते हैं, हम सिर्फ किसी एक वर्ग के लिए नहीं हैं। आरएसएस विविधता में एकता को मानता है। भारत में जन्म लेने वाला हर नागरिक भारतीय है। हमारी मातृभूमि की पूजा करना उसका अधिकार है। हम सभी भारतीय एक और एकजुट हैं।” मोहन भागवत और पूर्व राष्ट्रपति दोनों ने कमोवेश एक ही बात कही।

कांग्रेस ने शुरू में प्रणब मुखर्जी की कड़ी आलोचना की। लेकिन, उनके भाषण के बाद पार्टी को अपनी नादानी का एहसास हुआ और फिर दावा किया कि यह भाषण आरएसएस के लिए एक सबक है।

दरअसल, कांग्रेस-वामपंथी पार्टियों और तथाकथित उदार लोगों का कहना था कि प्रणब दा के जाने से आरएसएस को विश्वसनीयता मिलेगी। लेकिन आरएसएस को किसी से चरित्र प्रमाण-पत्र की कहां दरकार है। वामपंथी पार्टियों या लोगों की तो खुद कोई साख नहीं बची है, न कोई राजनीतिक प्रासंगिकता बची है। जहां तक कांग्रेस की बात है तो न उसके पास कोई सरकार चलाने का वैकल्पिक एजेंडा है, न ही गौरवशाली अतीत, बहुलतावाद का कोई सम्मान है। इसमें दो राय नहीं कि राजनीतिक दलों को राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों जैसे अर्थव्यवस्था, विदेश-संबंध और राष्ट्रीय सुरक्षा पर पारस्परिक विश्वास और सहयोग विकसित करने की जरूरत है। कई बार आरएसएस की सेवाओं की देश के प्रधानमंत्रियों और सरकारों ने सराहना की है। लेकिन तीन बार नाजायज प्रतिबंध भी लगाए गए। कम से कम एक पूर्व कांग्रेसी प्रधानमंत्री को तो आरएसएस से काफी अधिक सहानुभूति रखने वाला माना जाता था और यहां तक कि उनकी पार्टी के लोगों ने ही उन पर “छिपा हुआ संघी” होने का आरोप लगाया था।

क्या प्रणब दा और मोहन भागवत ने अलग-अलग भाषाओं में समान बातें कहीं? किस मामले में कांग्रेस मानेगी कि कांग्रेस और आरएसएस के विचारों में एकरूपता है? क्या कांग्रेस ने एक अनुभवी कांग्रेसी की निंदा करने में जल्दबाजी की और फिर एक शर्मनाक यू-टर्न ले लिया? क्या इस पूरे घटनाक्रम का कोई राजनीतिक मतलब है? क्या इस घटना के बाद कांग्रेसियों का कांग्रेस से भाजपा में पलायन होगा?

दिग्गज कांग्रेसी नेता के आरएसएस मुख्यालय में जाने की यह घटना आने वाले दिनों और महीनों में कुछ और चौंकाने वाले पहलू लेकर आ सकती है।

(लेखक ऑर्गेनाइजर के संपादक रह चुके हैं और भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य हैं)

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